विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉगः कहीं जुमला बनकर न रह जाए ‘सब ठीक है’
By विश्वनाथ सचदेव | Published: September 26, 2019 06:50 PM2019-09-26T18:50:49+5:302019-09-26T18:50:49+5:30
चर्चा सिर्फ इसलिए नहीं है कि यह विदेश में बसे भारतीयों का अब तक का सबसे बड़ा जमावड़ा था, बल्कि इसलिए भी कि यह पहली बार है जब अमेरिका के ताकतवर राष्ट्रपति ने किसी विदेशी नेता के साथ इस तरह मंच साझा किया. निश्चित रूप से ह्यूस्टन की यह विशाल रैली, जिसमें पचास हजार से अधिक लोग एकत्न हुए थे.
प्रधानमंत्नी मोदी की विदेश-यात्नाएं हमेशा चर्चा में रही हैं, खासतौर पर राजनेताओं से उनका गले मिलना और विदेशों में बसे भारतीयों से उनका संवाद.
पहले भी वे जब-जब विदेशों में भारतीय मूल के लोगों से मिले हैं, उसे भारत में नागरिकों द्वारा बड़े कौतूहल और प्रशंसा की दृष्टि से देखा गया है, लेकिन इस बार अमेरिका-यात्ना के दौरान ह्यूस्टन में हुआ भव्य आयोजन विशेष रूप से चर्चा में है.
चर्चा सिर्फ इसलिए नहीं है कि यह विदेश में बसे भारतीयों का अब तक का सबसे बड़ा जमावड़ा था, बल्कि इसलिए भी कि यह पहली बार है जब अमेरिका के ताकतवर राष्ट्रपति ने किसी विदेशी नेता के साथ इस तरह मंच साझा किया. निश्चित रूप से ह्यूस्टन की यह विशाल रैली, जिसमें पचास हजार से अधिक लोग एकत्न हुए थे, भारतीय विदेश-नीति की एक ‘सफलता’ के रूप में बखानी जाएगी.
इस तरह के आयोजनों में जो कहा जाता है, वह महत्वपूर्ण तो होता है, पर माहौल और संबंधित नेताओं के हाव-भाव भी कम महत्वपूर्ण नहीं होते. इस आयोजन के श्रोताओं ने जिस तरह प्रधानमंत्नी मोदी का अभिनंदन किया और जिस तरह राष्ट्रपति ट्रम्प को अपने कहे-किए का प्रतिसाद मिला, ये दोनों ही आयोजन की सफलता का दावा करने का एक आधार बनेंगे.
लेकिन, यह भव्य आयोजन अमेरिका में बसे चालीस लाख से अधिक भारतीयों के लिए ही नहीं था, ऐसे आयोजनों का उद्देश्य स्वदेश की जनता को भी ध्यान में रखकर किया जाता है. हमारे प्रधानमंत्नी अच्छी तरह जानते हैं कि इन आयोजनों पर भारत की जनता की भी निगाह होती है.
जिस तरह देश में ह्यूस्टन वाली इस रैली को लेकर चर्चा हो रही है और इसे एक शानदार सफलता बताया जा रहा है, वह किसी भी राजनेता के लिए संतोष का विषय होना चाहिए. प्रधानमंत्नी की इस विदेश-यात्ना का सम्यक आकलन तो पूरी यात्ना के परिणामों पर ही आधारित होगा, पर कुछ बातों पर आज भी चर्चा की जा सकती है.
प्रधानमंत्नी ने ह्यूस्टन के अपने प्रभावशाली भाषण के दौरान एक बात को भारत की कई भाषाओं में रेखांकित किया था- उन्होंने अमेरिका में बसे भारतीयों को हिंदी, गुजराती, बांग्ला, कन्नड़ आदि कई भाषाओं में यह आश्वासन देना जरूरी समझा कि भारत में सब ठीक है. यह बात उन्होंने भारत की विविधता में एकता के संदर्भ में कही थी, और साथ ही साथ यह भी बताना जरूरी समझा था कि उनकी सरकार देश की जनता की जरूरतों के प्रति पूरी तरह सावधान है. लेकिन ‘सब ठीक है’ एक जुमला मात्न बन कर न रह जाए इसलिए जरूरी है कि देश में जो कुछ हो रहा है, उसे भी पूरे संदर्भो में देखा-समझा जाए. प्रधानमंत्नी मोदी के नेतृत्व में भाजपा दूसरी बार चुनाव में शानदार सफलता पाकर सत्ता में आई है और सत्ता में आने के बाद बड़ी तेजी से एक साथ कई मोर्चो पर सरकार सक्रिय हो गई है. इनमें से जिस बात की चर्चा प्रधानमंत्नी ने अपनी ह्यूस्टन की रैली में विशेष रूप से की थी- वह थी जम्मू-कश्मीर में धारा 370 को समाप्त करने की कार्रवाई.
जहां तक संविधान की इस व्यवस्था को निरस्त करने का सवाल है, देश में कुल मिलाकर इसका स्वागत ही हुआ है. हां, इस काम को करने के तरीके पर सवाल जरूर उठे हैं, और इस बारे में सरकार के दावों पर भी संदेह व्यक्त किए जा रहे हैं. जब प्रधानमंत्नी ने अपनी रैली में ‘सब ठीक है’ कहा तो यह सवाल उठना स्वाभाविक था कि क्या कश्मीर में भी सब ठीक है? गृह मंत्नी ने दावा किया है कि जम्मू-कश्मीर में स्थिति तेजी से सामान्य होती जा रही है. तो फिर जम्मू-कश्मीर के लगभग सभी बड़े नेता, और बड़ी संख्या में वहां के नागरिक भी जेलों में बंद क्यों हैं या ‘नजरबंद’ क्यों हैं? यदि देश में सब ठीक है तो बेरोजगारी कम क्यों नहीं हो रही? महंगाई क्यों बढ़ रही है? बलात्कार और लिंचिंग की घटनाएं क्यों हो रही हैं? अर्थव्यवस्था क्यों चरमराती लग रही है?
बहरहाल, जहां तक भारत-अमेरिका के रिश्तों का सवाल है, प्रधानमंत्नी की इस यात्ना का सकारात्मक परिणाम निकलने की आशा की जानी चाहिए. यूं तो हर देश अपने हितों को देखते हुए ही अपनी विदेश नीति को बनाता है, फिर भी दूरगामी परिणामों के मद्देनजर कुछ ऐसे फौरी कदम भी उठा लिए जाते हैं जो देश विशेष के पक्ष में जाते दिखाई दें. इसलिए, प्रधानमंत्नी की इस अमेरिका-यात्ना में भारत-अमेरिकी संबंधों के मजबूत होने की आशा की जा सकती है. यहीं इस बात को भी याद रखा जाना चाहिए कि हमारा भारत अमेरिका के लिए बहुत बड़ा बाजार है.
अमेरिका इसकी अनदेखी नहीं कर सकता. जहां इस आयोजन में भाग लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति ने भारत के साथ अपने संबंधों को एक मजबूती देने की कोशिश की है, वहीं उनकी निगाह अमेरिकी राष्ट्रपति पद के लिए होने वाले आगामी चुनावों पर भी थी. चालीस लाख से अधिक प्रवासी भारतीय किसी भी अमेरिकी राजनेता के लिए कम महत्वपूर्ण नहीं हैं. और यहीं प्रधानमंत्नी मोदी थोड़ा-सा लड़खड़ाए भी. ‘अबकी बार ट्रम्प सरकार’ का उनका ‘नारा’ भले ही वहां सराहा गया हो, अंतर्राष्ट्रीय राजनयिक मर्यादाओं के अनुकूल तो नहीं ही था. प्रश्न यह भी है कि यदि ट्रम्प अगला चुनाव हार गए तो?
ट्रम्प का हाथ पकड़कर उन्हें घुमाने वाले मोदी की तस्वीर अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में तो दिखाई देती ही रहेगी, भारत में भी यह छवि राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति का माध्यम बनी रह सकती है. इसे राजनीति का हथियार बनाने पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए.