विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: सांप्रदायिकता के जहर से बचाना ही होगा देश को

By विश्वनाथ सचदेव | Updated: March 13, 2020 06:05 IST2020-03-13T06:05:46+5:302020-03-13T06:05:46+5:30

सवाल सिर्फ मुसलमानों की स्वतंत्नता-सुरक्षा का नहीं था, हर भारतीय की सुरक्षा का था. आज भी यही सवाल है और हमेशा रहेगा. हमारा संविधान हर भारतीय की स्वतंत्नता-सुरक्षा की गारंटी देता है. पर इस गारंटी का औचित्य तभी है जब हर भारतीय दूसरे भारतीय की सुरक्षा-स्वतंत्नता-प्रगति के प्रति चिंतित हो. जब हम सब स्वयं को पहले भारतीय समझें, फिर कुछ और. इस संदर्भ में संविधान सभा में सरदार पटेल की भूमिका हमारा मार्गदर्शन कर सकती है.

Vishwanath Sachdev blog: The country will have to be saved from the poison of communalism | विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: सांप्रदायिकता के जहर से बचाना ही होगा देश को

तस्वीर का इस्तेमाल केवल प्रतीकात्मक तौर पर किया गया है। (फाइल फोटो)

यह संयोग ही था कि जब राजधानी दिल्ली के कुछ चुनिंदा हिस्सों में सांप्रदायिकता की चिनगारियां उठ रही थीं, मुझे एक किताब मिली- ‘सरदार पटेल तथा भारतीय मुसलमान’. यह पुस्तक मैं पहले भी पढ़ चुका था. स्वर्गीय रफीक जकारिया ने लगभग तीन दशक पहले अंग्रेजी में लिखी थी यह किताब. डॉ. जकारिया ने वह किताब मुझे भेजी थी और चाहा था कि पुस्तक के लोकार्पण समारोह में मैं उपस्थित रहूं.

मुझे याद है तब मैंने इस पुस्तक का भारत की सभी भाषाओं में अनुवाद किए जाने की बात कही थी. पुस्तक के प्रकाशक भारतीय विद्या भवन के निदेशक स्वर्गीय एस. रामकृष्णन ने मेरी बात का समर्थन करते हुए हिंदी अनुवाद का आश्वासन दिया. यह उसी अनुवाद का चौथा संस्करण है, जो मुझे दिल्ली के हाल के दंगों के दौरान मिला था. मैं फिर से इसे पढ़ गया, और सोच रहा हूं, देश के पहले गृह मंत्नी सरदार पटेल ने विभाजन के उस दौर में हिंदू-मुसलमानों की एकता की महत्ता को कितनी शिद्दत से समझा था, और क्या-क्या नहीं किया उन्होंने दोनों के रिश्तों को मधुर बनाए रखने के लिए. मैं यह भी सोच रहा था कि उस दौरान, और उसके बाद भी सरदार पटेल पर बहुसंख्यक हिंदुओं का पक्षधर होने के आरोप भी लगते रहे थे. डॉ. जकारिया ने अपनी इस किताब में बड़ी दृढ़ता और स्पष्टता के साथ उन तथ्यों को सामने रखा है जो सरदार पटेल को हिंदुओं का समर्थक या मुसलमानों का विरोधी बताने वालों के लिए एक करारा जवाब हैं.

जब सरदार पटेल पर मुस्लिम-विरोधी होने के आरोप लग रहे थे तो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था, ‘‘सरदार को मुसलमान-विरोधी कहना सच्चाई का उपहास उड़ाना है.’’  गांधीजी ने यह भी कहा था कि ‘‘सरदार का दिल इतना बड़ा है कि उसमें सब समा सकते हैं.’’ स्वयं सरदार पटेल ने उस समय स्पष्ट शब्दों में कहा था, ‘‘हिंदू-मुसलमान एकता एक कोमल पौधे जैसी है. इसे हमें लंबी अवधि तक बड़े ध्यान से पालना होगा, क्योंकि हमारे दिल अभी उतने साफ नहीं है, जितने
होने चाहिए.’’

पुस्तक में ये शब्द पढ़ते हुए मैं ठिठक-सा गया. दिल्ली के कुछ इलाकों में जो इन दिनों घटा, वह सब मेरी आंखों के सामने आ गया. और मैं जैसे अपने आप से कह रहा था, आजादी हासिल करने के 73 साल बाद भी, एक पंथ-निरपेक्ष राष्ट्र की शपथ लेने के बाद भी, हमारे दिल उतने साफ क्यों नहीं हो पाए, जितने होने चाहिए थे? क्यों हम जब-तब सांप्रदायिकता के शिकार हो जाते हैं?  

यह सही है कि राजधानी दिल्ली में नफरत की आग को आपसी भाईचारे की भावना ने ज्यादा फैलने नहीं दिया, पर लगभग पचास लोगों का मारा जाना, लगभग तीन सौ लोगों का घायल होना और सैकड़ों दुकानों-घरों का जलाया जाना किसी भी दृष्टि से छोटी बात नहीं है. सच बात तो यह है कि सांप्रदायिक दंगे में किसी एक भी भारतीय का मारा जाना भारत के उस विचार की हत्या की शर्मनाक कोशिश है, जिसे हम गंगा-जमुनी तहजीब वाली सभ्यता और वसुधैव कुटुम्बकम की संस्कृति की परिभाषा कहते हैं.

डॉ. जकारिया की सरदार पटेल वाली पुस्तक की भूमिका में जाने-माने वकील नानी पालखीवाला ने सत्ता के संघर्ष में क्षेत्नीयता, धर्म, जाति आदि के नाम पर राजनीति का खतरनाक खेल करने वालों को आगाह किया है कि भले ही इससे अल्पकालिक राजनीतिक लाभ मिल जाए, पर आगे चलकर पूरे देश को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी.

सच तो यह है कि अपनी नादानी से हम यह कीमत लगातार चुका रहे हैं. हमारे नेता दावे भले ही कुछ कर रहे हों, पर राजनीति के नाम पर जो कुछ देश में हो रहा है, वह किसी भी दृष्टि से देश के हित में नहीं है. धर्म और जाति के नाम पर वोट बैंक बनाने-मानने की मानसिकता को किसी भी दृष्टि से उचित नहीं ठहराया जा सकता और पिछले दिनों दिल्ली में जो कुछ हुआ वह इसी मानसिकता का एक डराने वाला परिणाम है. डरानेवाला इसलिए कि न तो हम अब तक हुए सांप्रदायिक दंगों से कुछ सीखे हैं और न ही कुछ सीखने की तैयारी दिख रही है.

उपद्रवों की पहल किसने की, भड़काया किसने, पुलिस की भूमिका का औचित्य कैसे सिद्ध होगा, कौन अपने राजनीतिक स्वार्थो की रोटियां सेंक रहा है जैसे सवाल उठाए जा रहे हैं. राजनेता आरोपों-प्रत्यारोपों की एक होड़ में लगे दिख रहे हैं. समझने की बात यह है कि ऐसी कोई भी होड़ वैयक्तिक अथवा दलीय स्वार्थो की पूर्ति में भले ही सहायक बनती दिखती हो, पर इस सब में राष्ट्र तो घाटे में ही रहेगा. और यह ऐसा घाटा है जिसकी पूर्ति संभव नहीं है.

आज सरदार पटेल को हिंदुओं का हित-चिंतक बताने की कोशिशें हो रही हैं. वे सबके हित-चिंतक थे. उन्होंने स्पष्ट कहा था, ‘‘भारत में हिंदू राज की बात करना एक पागलपन है, इससे भारत की आत्मा मर जाएगी.’’ उन्होंने यह सिर्फ कहा ही नहीं, इस बात की ईमानदार कोशिश भी की कि भारत की जनता इस ‘पागलपन’ से बचे. हमें इस बात को नहीं भूलना है कि सरदार पटेल की सबसे बड़ी चिंता राष्ट्रीय एकता थी.

सवाल सिर्फ मुसलमानों की स्वतंत्नता-सुरक्षा का नहीं था, हर भारतीय की सुरक्षा का था. आज भी यही सवाल है और हमेशा रहेगा. हमारा संविधान हर भारतीय की स्वतंत्नता-सुरक्षा की गारंटी देता है. पर इस गारंटी का औचित्य तभी है जब हर भारतीय दूसरे भारतीय की सुरक्षा-स्वतंत्नता-प्रगति के प्रति चिंतित हो. जब हम सब स्वयं को पहले भारतीय समझें, फिर कुछ और. इस संदर्भ में संविधान सभा में सरदार पटेल की भूमिका हमारा मार्गदर्शन कर सकती है.

यह सब याद करने का मतलब यही है कि हम सांप्रदायिकता के जहर से बचने की ईमानदार कोशिश करें. दिल्ली में जो कुछ हुआ, उसे एक चेतावनी के रूप में लें. देश के हर नागरिक को भारतीय समङों. तभी देश बचेगा हम बचेंगे.

Web Title: Vishwanath Sachdev blog: The country will have to be saved from the poison of communalism

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