विनीत नारायण का ब्लॉग: बजट पेश करने के पहले सरकार की दुविधा
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: January 6, 2020 06:09 IST2020-01-06T06:09:37+5:302020-01-06T06:09:37+5:30
पहली बार हुआ है कि सरकार ने संजीदा होकर बजट के पहले हर तबके से सुझाव मांगे. हालांकि ज्यादातर सुझाव आर्थिक क्षेत्र में प्रभुत्व रखने वाले तबके यानी उद्योग-व्यापार की तरफ से आए. अब देखना यह है कि इस बार के बजट में सरकार किस तरफ ज्यादा ध्यान देती है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। (फाइल फोटो)
2020 का बजट असाधारण परिस्थितियों में आ रहा है. सरकार पर चारों तरफ से दबाव है. अर्थव्यवस्था में मंदी या सुस्ती के दौर में चौतरफा दबाव होते ही हैं. वैसे सरकार ने अपने तरफ से हर उपाय करके देख लिए. हालात अभी भले ही न बिगड़े हों लेकिन अर्थव्यवस्था के मौजूदा लक्षण सरकार को जरूर चिंता में डाल रहे होंगे. यह पहली बार हुआ है कि सरकार ने संजीदा होकर बजट के पहले हर तबके से सुझाव मांगे. हालांकि ज्यादातर सुझाव आर्थिक क्षेत्र में प्रभुत्व रखने वाले तबके यानी उद्योग-व्यापार की तरफ से आए. अब देखना यह है कि इस बार के बजट में सरकार किस तरफ ज्यादा ध्यान देती है.
अर्थशास्त्र की भाषा में समझें तो अर्थव्यवस्था के तीन क्षेत्र हैं. एक विनिर्माण, दूसरा सेवा और तीसरा कृषि. उद्योग-व्यापार का नाता सिर्फ विनिर्माण और सेवा क्षेत्र से ही ज्यादा होता है. जाहिर है कृषि को उतनी तवज्जो नहीं मिल पाती, क्योंकि कृषि को असंगठित क्षेत्र ही समझा जाता है. इसीलिए उस पर ध्यान देने की जिम्मेदारी सरकार की ही समझी जाती है. अर्थव्यवस्था में भारी सुस्ती के मौजूदा दौर में कृषि पर कुछ ज्यादा ध्यान देने की बात उठाई जा सकती है. माना जाता रहा है कि कृषि की भूमिका आर्थिक वृद्धि दर बढ़ाने में ज्यादा नहीं होती है. उद्योग व्यापार की हिस्सेदारी जीडीपी में तीन चौथाई से ज्यादा है जबकि कृषि की एक चौथाई से कम है. मोटा अनुमान है कि जीडीपी में कृषि का योगदान सिर्फ सोलह से अठारह फीसदी ही बचा है. अब सवाल यह है कि जीडीपी में अपने योगदान की मात्रा के आधार पर ही क्या कृषि की अनदेखी की जा सकती है?
हम कृषि प्रधान देश इसलिए कहे जाते हैं क्योंकि देश की आधी से ज्यादा आबादी इसी में लगी है. जीडीपी में अपने योगदान के आधार पर न सही लेकिन लोकतांत्रिक राजव्यवस्था में अपने आकार के आधार पर उसे अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण न मानना समझदारी नहीं है. उस हालत में जब उद्योग-व्यापार को ताबड़तोड़ राहत पैकेज देकर देख लिए गए हों फिर भी मनमुताबिक असर अर्थव्यवस्था पर न पड़ा हो, तब कृषि को महत्वपूर्ण मानकर देख लेने में हर्ज नहीं होना चाहिए.
दशकों बाद यह स्थिति बनी है जिसमें यह पता नहीं चल रहा है कि देश के मध्यवर्ग की क्या स्थिति है. महंगाई काबू में रहने की बात बार-बार दोहराई जा रही है. सरकार का दावा सही भी हो सकता है कि इस समय महंगाई काबू में है. लेकिन इस बात का पता नहीं चल रहा है कि देश के मध्यवर्ग की आमदनी की क्या स्थिति है. मध्यवर्ग राजनीतिक तौर पर भी संवेदनशील होता है. लिहाजा इस बार के बजट में भी मध्यवर्ग पर ज्यादा गौर किए जाने की संभावनाएं तो बहुत हैं. लेकिन इस चक्कर में अंदेशा यही है कि कहीं किसान और खेतिहर मजदूर न छूट जाएं.