दिल्ली के झंडेवालान इलाके में पिछले महीने जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत जी ने कुछ प्रमुख मुस्लिम बुद्धिजीवियों के साथ मुलाकात की तो किसी को कानोंकान खबर नहीं हुई थी. उस मुलाकात में पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस.वाई. कुरैशी, दिल्ली के पूर्व लेफ्टिनेंट गवर्नर नजीब जंग, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के पूर्व कुलपति व पूर्व सैन्य अधिकारी जमीरुद्दीन शाह, पूर्व सांसद तथा पत्रकार शाहिद सिद्दीकी और बिजनेसमैन सईद शेरवानी मौजूद थे.
दिलचस्प बात यह है कि करीब एक महीने बाद जिस दिन उस बैठक की खबर मीडिया के माध्यम से सार्वजनिक हुई, उसी दिन संघ प्रमुख मोहन भागवत जी इंडिया गेट के पास कस्तूरबा गांधी मार्ग की एक मस्जिद में पहुंचे. वे ऑल इंडिया मुस्लिम इमाम ऑर्गेनाइजेशन के प्रमुख उमर अहमद इलियासी के निमंत्रण पर वहां गए थे और करीब 40 मिनट तक अकेले में दोनों ने बातचीत की.
संघ प्रमुख उसके बाद तजवीदुल कुरान मदरसा पहुंचे और वहां के बच्चों से बातचीत की. कुछ इस तरह की खबरें सामने आईं कि बच्चों के सामने इमाम इलियासी ने संघ प्रमुख को राष्ट्रपिता और राष्ट्रऋषि बताया. हालांकि बाद में उन्होंने कहा कि उनकी बात को लोगों ने ठीक से समझा नहीं है. बहरहाल भागवत जी ने विनम्रता के साथ केवल इतना कहा कि हम सब राष्ट्र की संतानें हैं. मोहन भागवत जी वास्तव में व्यापक विचारों वाले व्यक्ति हैं. उनकी सोच प्रोग्रेसिव है. उन्होंने संघ में कई बदलाव भी लाए हैं.
स्वाभाविक तौर पर राजनीति गर्म होनी ही थी. तरह-तरह के विचार व्यक्त किए जाने लगे. किसी ने कहा कि संघ को मुसलमानों की याद क्यों आ रही है? मुसलमानों का एक तबका इमाम इलियासी से भी खफा हो गया.
निश्चय ही मोहन भागवत जी पहले संघ प्रमुख हैं जिन्होंने किसी मस्जिद में कदम रखा या किसी मदरसे में जाकर बच्चों से बात की लेकिन मुस्लिमों के साथ संघ काफी पहले से मेल-मुलाकात करता रहा है. संघ के पांचवें प्रमुख के.एस. सुदर्शन के समय यह प्रक्रिया शुरू हुई थी. 2004 में दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में एक बैठक भी हुई थी.
जमीयत-ए-उलमा-ए-हिंद से आरएसएस निरंतर संवाद करता रहा है. 2019 में मौलाना अरशद मदनी और मोहन भागवत की भेंट भी हुई थी. इतना ही नहीं करीब दो दशक पहले संघ ने राष्ट्रीय मुस्लिम मंच नाम की एक संस्था को आकार दिया था जिसके मार्गदर्शक इंद्रेश कुमार हैं. पिछले महीने मुस्लिम बुद्धिजीवियों के साथ बैठक में और अभी मस्जिद और मदरसा जाने के समय भी उनकी भूमिका रही है.
मैं निजी तौर पर लोकतांत्रिक परंपराओं में विश्वास करने वाला व्यक्ति हूं और मुझे लगता है कि दो पाट पर खड़े दो समुदायों के बीच यदि भाईचारे को समग्रता के साथ स्थापित करने की कोई पहल हो रही है तो निश्चय ही इसका स्वागत किया जाना चाहिए. मुल्क के मौजूदा हालात से हम सब अच्छी तरह वाकिफ हैं. यह कहने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि दोनों तरफ ऐसे लोग हैं जिनके लिए उग्रता उनका हथियार है.
इसका नतीजा है कि दोनों के बीच अविश्वास की खाई गहरी होती जा रही है और इस खाई को केवल एक-दूसरे को समझ कर ही पाटा जा सकता है. एक-दूसरे को समझने के लिए मेल-मुलाकात बहुत जरूरी है. जब तक हम एक-दूसरे को समझेंगे नहीं, एक दूसरे के मन में पनपी गठानों को खोलने की कोशिश नहीं करेंगे तब तक समस्या का निदान हो ही नहीं सकता!
इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि यह देश जितना हिंदुओं का है, उतना ही मुसलमानों का, उतना ही सिखों, जैन, बौद्ध या पारसी धर्मावलंबियों का या फिर अन्य विचारों को मानने वालों का है. हम सबको साथ रहना है. विचारों में भिन्नता हो सकती है, होनी भी चाहिए लेकिन मनभेद नहीं होना चाहिए. आज मनभेद की स्थिति पैदा हो चुकी है. जाहिर सी बात है कि ये हालात आम आदमी को तो परेशान कर ही रहे हैं, वैचारिक रूप से संपन्न नेतृत्वकर्ताओं को भी चिंता हो रही है.
इस मुलाकात को उसी चिंता के रूप में देखा जाना चाहिए. इमाम इलियासी का निमंत्रण स्वीकार करके और मस्जिद पहुंच कर भागवत जी ने एक सौहार्द्रपूर्ण संदेश दिया है. जो जानकारियां उभर कर सामने आई हैं उनके अनुसार मुस्लिम बुद्धिजीवियों के साथ बैठक में संघ प्रमुख ने पूछा था कि गोहत्या और काफिर शब्द के बारे में उनकी क्या राय है? बुद्धिजीवियों ने स्पष्ट कहा कि कोई भी समझदार मुसलमान किसी भी हिंदू के लिए कभी काफिर शब्द का उपयोग नहीं करता है.
जब गोहत्या को लेकर चर्चा हुई तो बुद्धिजीवियों ने संघ प्रमुख को याद दिलाया कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संस्थापक सर सैयद अहमद खान ने भावनाओं का ख्याल रखते हुए विश्वविद्यालय परिसर में बीफ पर प्रतिबंध लगा दिया था. बुद्धिजीवियों ने यह भी कहा कि ऐसा कोई मुद्दा नहीं है जिस पर चर्चा नहीं हो सकती! मैं यहां बताना चाहूंगा कि पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के बारे में आम धारणा यह थी कि वे मुसलमानों को तरजीह देती हैं लेकिन ऐसा था नहीं. उनके संबंध देवरस जी से भी थे और बाल ठाकरे जी से भी थे.
उम्मीद की जानी चाहिए कि भागवत जी ने मेल-मिलाप की प्रक्रिया को जो नया स्वरूप दिया है उससे हम किसी शांतिपूर्ण नतीजे पर जरूर पहुंच पाएंगे. दुनिया अशांति में जल रही है, हम क्यों जलें? लेकिन उसके लिए सबसे पहले यह जरूरी है कि उग्र विचारों पर लगाम लगे. मोहन भागवत जी के शब्दों में कहें तो हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों ढूंढ़ना? और मुस्लिम संगठनों को भी यह सोचना होगा कि उन पथभ्रष्ट लोगों को समाज में क्यों जगह मिलती है जो आतंकवादियों पर कार्रवाई के विरोध में सड़कों पर उतर आते हैं?
ये मुट्ठी भर लोग हैं. इन्हें हाशिये पर किया जा सकता है. हर मुसलमान को पाकिस्तानी नहीं समझा जाना चाहिए! ध्यान रखिए कि ताली दोनों हाथ से बजती है. एक हाथ तो केवल थप्पड़ बनकर रह जाता है. मैं इमाम उमर इलियासी की इस बात से पूरी तरह इत्तेफाक रखता हूं कि इमाम और पंडित एक हो जाएं तो देश मजबूत होगा.