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विजय दर्डा का ब्लॉग: जिंदगी हो या मौत, सम्मान की होनी चाहिए

By विजय दर्डा | Updated: May 17, 2021 15:41 IST

कोरोना काल में कई अनचाहे दृश्य देखने को मिले हैं. हाल में दिल को दहलाने वाली कई खबरें पढ़ने, देखने और सुनने को मिली. मृत्यु के बाद सम्मान के साथ विदाई भी लोगों को नहीं मिल पा रही है.

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कितना है बदनसीब जफर दफ्न के लिए/दो गज जमीन भी न मिली कू-ए-यार में.रंगून की जेल में कैद के दौरान भारत के अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर ने ये गजल लिखी थी. वाकई यह कितना दुर्भाग्यजनक है कि किसी को अपनी मिट्टी में जगह न मिले. मौजूदा हालात में मुझे बहादुर शाह जफर की ये गजल बड़ी मौजूं लग रही है.

जीवन और मौत, दोनों ही सम्मानपूर्वक मिलनी चाहिए. लोकतंत्र में सबसे पहला तकाजा यही है. सम्मानपूर्वक इस दुनिया में आने और सम्मानपूर्वक इस दुनिया से जाने के लिए किसी भी ओहदे की आवश्यकता नहीं होती है और न उसका गरीबी से या अमीरी से कोई संबंध है. किसी को सुपुर्देखाक होना है या किसी को पंचमहाभूतों में विलीन होना है. 

दोनों का संबंध सम्मान का है. राजा भी वैसे ही जाता है और रंक भी वैसे ही जाता है. ..लेकिन दिल को दहलाने वाली खबरें जब पढ़ी, देखी और सुनी कि सैकड़ों लाशें गंगा में बहा दी गई हैं और हजारों लाशें रेत में दबा दी गई हैं तो मन सोचने लगा कि यह कैसे हो रहा है? और ये मेरे भारत में हो रहा है जो भारत विश्व गुरु बनने जा रहा है! उस भारत में हो रहा है जो एक ताकतवर देश बनने जा रहा है. 

भारत के ताकतवर होने और चीन या रूस के ताकतवर होने में जमीन और आसमान का अंतर है. लोकतांत्रिक भारत का ताकतवर होना यानी हर व्यक्ति का ताकतवर होना है.  

जीवन में अंत में एक ही चीज सबसे महत्वपूर्ण है और वो है मान-सम्मान और प्रतिष्ठा. चाहे वो छोटा बच्च हो या कोई बड़ा व्यक्ति हो. जिस किसी को मान-सम्मान न मिले वो जीते जी मर गया है. चाहे वो घर में हो, चाहे वो समाज में हो या फिर देश में हो.

मेरे बाबूजी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्री जवाहरलालजी दर्डा कहते थे कि देश मान-सम्मान देता है. वह भेदभाव नहीं करता. एक बार मैं स्कूल से लौटा था और रो रहा था तो बाबूजी ने पूछा कि तुम क्यों रो रहे हो? मैंने कहा कि क्लास में मेरा आज अपमान हुआ है. शिक्षा देने वाले मेरे गुरु ने जातिवाचक शब्दों से मेरी प्रताड़ना की है. यदि मैं मारवाड़ी जैन कुल में पैदा हुआ तो इसमें मेरा क्या दोष है? उन्होंने कहा कि विजय तुम्हारे ये आंसू हैं न, इसका मैं सम्मान करता हूं. मैं इसलिए सम्मान करता हूं क्योंकि हर व्यक्ति को सम्मान के साथ जीने का अधिकार है.

..और यही मेरे संविधान ने मुझे दिया है. हमने आजादी की जो लड़ाई लड़ी, वो भी आत्मसम्मान के लिए लड़ी है. वर्ना दो रोटी तो हमें कहीं भी मिल जाती. आज मैं व्यथित हूं क्योंकि मेरे मान और मेरे सम्मान की रक्षा नहीं हो रही है. जीते जी मुझे न दवाइयां मिलीं, न इंजेक्शन मिले, न ऑक्सीजन मिला और न ही मुङो मान और सम्मान मिला. मैं जानता हूं कि गरीबी एक श्रप भी है लेकिन इतना बड़ा अभिशाप भी नहीं है कि उसे मान-सम्मान नहीं मिले.

हर व्यक्ति अपनी हैसियत के अनुसार अपने परिजनों का अंतिम संस्कार करता है. हिंदू रीति-रिवाज के अनुसार पार्थिव शरीर को अग्नि के सुपुर्द किया जाता है तो मुसलमान भाई फातेहा पढ़ते हैं, क्रिश्चियन भाई ‘ऑन न नेम ऑफ गॉड’ बाइबिल की पंक्तियां पढ़ते हैं और शरीर को सम्मानपूर्वक धरती के हवाले करते हैं. 

यह कितनी बड़ी विडंबना है कि अपने परिजनों को लोग मजबूर होकर नदी में बहा रहे हैं या रेत में दबा रहे हैं क्योंकि दाह संस्कार के लिए लकड़ियों की कमी हो गई है. श्मशान में जगह नहीं है और लकड़ियों की कीमतें आसमान छू रही हैं. कब्रिस्तानों में जगह की कमी पड़ गई है. 

नाजियों के समय की ऐसी दास्तान मैंने पढ़ी थी लेकिन मैं तो आज लोकतंत्र में जी रहा हूं. ये कहा गया था और इसमें मेरा विश्वास भी है कि भारत सशक्त हो जाएगा. अमेरिकी दूतावास के सामने जब मैं वीजा के लिए भारतीयों की कतार देखता हूं तो मेरे मन में चाहत पैदा होती है कि एक दिन अमेरिकी लोग भारत के वीजा के लिए कतार लगाकर खड़े हों! वह सब सुनकर बहुत आत्मगौरव महसूस कर रहा था. लेकिन हमारे भारत में आज क्या हो रहा है?  

एक बात मैं स्पष्ट कर दूं कि जब भी मैं कुछ लिखता हूं तो मेरी आंखों पर किसी पार्टी का चश्मा नहीं होता है. केवल और केवल मानवता, आत्मसम्मान और जीने का सम्मान और जीने के अधिकार के नजरिए से मैं लिखता हूं. कोविड के पहले दौर में हमने प्रवासी मजदूरों को भूख से मरते देखा. उनके छोटे-छोटे बच्चों की मृत्यु की खबरें दिल को दहलाने वाली थीं, तो अब गोवा में पांच दिनों में 100 से अधिक लोग ऑक्सीजन की कमी से मर गए! 

पहले ये हमने काफी पढ़ा कि ऑक्सीजन की कमी से दिल्ली में लोग गए, पालघर में गए, नागपुर में गए. पंजाब में लोग मरे, मगर अब तो समय ऐसा आ गया था कि व्यवस्था बदलती और ऐसा दुर्भाग्य देखने को न मिलता. हमारे छोटे से प्रदेश गोवा को पूरी दुनिया जानती है, वहां पर ऑक्सीजन की कमी से लोगों का मर जाना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है. 

एक दिन हो गया, दूसरा दिन हो गया, तीसरे, चौथे और पांचवें दिन भी वैसी ही घटना घनघोर लापरवाही को दर्शाती है. आखिर पहले से तैयारी क्यों नहीं की गई? वहां के मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत और स्वास्थ्य मंत्री विश्वजीत राणो के बीच  समन्वय नहीं है. सावंत को राणो धमका रहे हैं. इसे क्या कहा जाए और कौन सी सजा दी जाए?

क्या मनुष्य इतना लाचार हो गया है, इतना बेजार हो गया है, इतना पंगु हो गया है? न वो बोल सकता है, न वो आवाज उठा सकता है न खुद को अभिव्यक्त कर सकता है? क्या केवल फटी आंखों से देखते रहना ही उसकी किस्मत है? क्या इतना ही उसके हाथ में रह गया है?

अब तो ये हो रहा है कि लोग कोरोना से ठीक हो रहे हैं लेकिन उसके बाद के साइड इफेक्ट के कारण आंखों को प्रभावित करने वाली एक अजीब सी बीमारी हो रही है जिसे म्यूकर मायकोसिस कहते हैं. उसकी दवाइयां बाजार से गायब हो गई हैं. चालीस दिनों तक रोज चार इंजेक्शन लगाने पड़ते हैं. एक इंजेक्शन सात से आठ हजार का  आता है. इलाज के लिए कहां से इतना पैसा लाएगा आम आदमी?

इसलिए मैं कहता हूं कि कोरोना का सेकंड वेव अभी खत्म नहीं हुआ है. इसका प्रकोप अभी जारी है. आप असावधान मत रहिए. आपको ही अपनी रक्षा करनी है. मास्क, सुरक्षित दूरी का पालन और हाथों की सफाई तो करनी ही है आपको. मेरी बस इतनी अपेक्षा है सरकार से कि तीसरी वेव से मुकाबले की तैयारी करें और जहां जो सुविधा है, उन लोगों की मदद लें और सम्मानपूर्वक लोगों की जान बचाएं. जिनकी जान न बच पाई उन्हें सम्मान के साथ विदाई तो  मिले!

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