विजय दर्डा का ब्लॉग: जरा उन परिवारों की सोचिए जो दंगे में तबाह हो गए
By विजय दर्डा | Updated: March 2, 2020 12:46 IST2020-03-02T07:20:25+5:302020-03-02T12:46:44+5:30
है. देश की राजधानी दिल्ली का जब यह हाल है तो कल्पना कीजिए कि देश के दूसरे शहरों का क्या हाल होगा? सवाल इसलिए गंभीर है क्योंकि यह फसाद अपराधियों ने पैदा किया.

दिल्ली हिंसा (प्रतीकात्मक फोटो)
मैं इस समय विदेश में हूं और यहां दो ही चीजों की चर्चा हो रही है. एक तो यह कि भारत कोरोना वायरस से निपटने के लिए एंटी डोज विकसित कर रहा है और दूसरी चर्चा दिल्ली की कि इतनी हिंसा कैसे फैल गई? यहां मेरे जानने पहचानने वाले मुझसे सवाल कर रहे हैं कि आपके देश की राजधानी दिल्ली में ये क्या हुआ? इन सबके लिए तो आपका देश नहीं जाना जाता है! मैं उन्हें समझाने की कोशिश करता हूं लेकिन बार-बार निरुत्तर हो जाता हूं.
उन बेगुनाहों के लिए मन रो रहा है जो इस हिंसा की चपेट में आ गए! मैं सोच रहा हूं कि ठेला लगाकर सब्जी या फल बेचने वाले किसी व्यक्ति की कुल पूंजी कितनी होती है? यही कोई हजार दो हजार रुपए. दिन भर की फेरी के बाद वह सौ-दो सौ रुपए कमाता है और किसी तरह परिवार का पेट पालता है.
अब जरा कल्पना कीजिए कि अचानक किसी दिन एक खौफनाक भीड़ ठेला जला देती है तो अगले दिन वह व्यक्ति क्या करेगा? एक व्यक्ति रिक्शा चलाता है और किसी दिन दंगाइयों की भीड़ सड़क से गुजरते उसके 15 साल के बेटे को मौत के घाट उतार देती है तो सोचिए कि उस व्यक्ति के जीवन में बचा क्या?
देश की राजधानी दिल्ली में यही सब हुआ है! सैकड़ों परिवार नेस्तनाबूद हो गए हैं. 40 से ज्यादा लोग मौत के घाट उतार दिए गए और दो सौ से ज्यादा लोग बुरी तरह से घायल हुए हैं. दुकानें जला दी गई हैं. सैकड़ों वाहन फूंक दिए गए हैं. सीधे शब्दों में कहें तो उत्तर-पूर्वी दिल्ली के कई मोहल्लों में जिंदगी सिसक रही है और कोई अधिकृत तौर पर बताने को तैयार नहीं है कि यह सब किसने किया?
किसकी साजिश थी यह सब? बहुत कुछ सामने है. पूरा देश उन नेताओं को जान रहा है जिन्होंने नफरती शब्दों से माहौल को बुरी तरह गंदा किया. सद्भाव को नेस्तनाबूद करने की कोशिश वाले बयानों को पूरे देश ने सुना लेकिन उनके खिलाफ एफआईआर तक दर्ज नहीं हुई. सरकार का यह कहना आश्चर्यजनक है कि भड़काऊ भाषण देने वालों के खिलाफ अभी केस दर्ज करना ठीक नहीं रहेगा! क्यों ठीक नहीं रहेगा भाई? यदि किसी ने भड़काऊ भाषण दिया है तो उसे धार्मिक नजरिये से किसी भी हालत में नहीं देखा जाना चाहिए. उसे एक अपराधी के रूप में देखा जाना चाहिए और उसके साथ वैसा ही सलूक करना चाहिए जैसा सलूक करने की इजाजत हमारे देश का कानून देता है.
जहां तक कानून का सवाल है तो पूरा देश इस बात से हैरत में है कि शुरुआती दो दिनों तक दिल्ली पुलिस ने हिंसा को रोकने के लिए कार्रवाई क्यों नहीं की जबकि पुलिस के हेड कांस्टेबल रतन लाल और इंटेलिजेंस ब्यूरो के कर्मचारी अंकित शर्मा को भी दंगाइयों ने मार डाला. सवाल यह भी उठता है कि कोई नेता पुलिस के सामने कैसे गला फाड़ फाड़ कर चुनौती देता रहा? जिस बड़े पैमाने पर हिंसा हुई है, उससे साफ जाहिर होता है कि तैयारियां पहले से रही होंगी. दंगाइयों ने जिस बड़े पैमाने पर गोलियां चलाई हैं वह बड़े आपराधिक षड्यंत्र की ओर इशारा करता है. क्या दिल्ली पुलिस को भनक नहीं लगी?
यदि नहीं लगी तो यह और खतरनाक बात है. देश की राजधानी दिल्ली का जब यह हाल है तो कल्पना कीजिए कि देश के दूसरे शहरों का क्या हाल होगा? सवाल इसलिए गंभीर है क्योंकि यह फसाद अपराधियों ने पैदा किया. इसमें दोनों ही पक्षों के आपराधिक तत्व शामिल थे. दोनों तरफ का आम आदमी तो केवल शिकार हुआ.
दिल्ली में निश्चय ही नफरत बोने की भरपूर कोशिश हुई लेकिन सुकून की बात है कि इतने सारे फसादों के बीच इंसानियत कायम रही बल्कि जीती भी. मुस्तफाबाद इलाके में मंजू सारस्वत नाम की महिला को मुस्लिम युवाओं ने दंगाइयों के हमलों के बीच बाहर निकाला और मोमिन सैफी के घर पर उन्हें पनाह मिली. इसी तरह एक मुस्लिम लड़की को पिंकी गुप्ता नाम की महिला ने बचाया. हाजी नूर मोहम्मद को जब उनके परिवार वालों ने फोन किया कि चारों तरफ से दंगाइयों ने मोहल्ले को घेर रखा है तो वे परेशान हो गए. वे सऊदी अरब में थे. उन्होंने कई रिश्तेदारों को फोन किया लेकिन कोई वहां जाने को तैयार नहीं था. तब उन्हें याद आई अपने दोस्त पूरन चुघ की.
नूर मोहम्मद ने चुघ को फोन किया और वे बिना वक्त गंवाए नूर मोहम्मद के घर जा पहुंचे. वहां पहुंचना आसान नहीं था क्योंकिं रास्ते में जगह-जगह दंगे हो रहे थे. चुघ ने नूर के परिवार को तो वहां से निकाला ही, एक अन्य परिवार को भी बचाकर उनके रिश्तेदारों के घर छोड़ा.
भीषण दंगे के बीच ऐसी सुकून भरी कहानियां बताती हैं कि नफरत अभी इतनी बड़ी नहीं हुई है कि इंसानियत को खत्म कर सके. दरअसल यही हमारी सबसे बड़ी ताकत है. कुछ ताकतें रह-रह कर सांप्रदायिक सौहाद्र्र बिगाड़ने की कोशिश करती हैं लेकिन हमारे भीतर की इंसानियत, हमारा सामाजिक सरोकार और आपसी भाईचारा हर बार जीतता है. मैं हमेशा यह मानता रहा हूूं कि हमारा धर्म हमारी निजी मान्यता है और हमारी जिंदगी को संस्कारित करता है लेकिन सबसे बड़ा धर्म इंसानियत है. दुनिया का कोई भी धर्म कभी भी नफरत करना नहीं सिखाता.
हिंसा तो कतई नहीं सिखाता है. जो लोग धर्म के नाम पर हिंसा भड़काने की कोशिश करते हैं, हिंसा करते हैं, सच मानिए, उनका कोई धर्म नहीं होता. वे अपराधी हैं और केवल अपराधी हैं. ऐसे अपराधियों से इतनी सख्ती से निपटना चाहिए कि फिर कभी आग न उगल सकें.
और हां, हम सभी को इस बात का ध्यान जरूर रखना चाहिए कि कोई हमारे बीच नफरत के बीज न बो पाए. एकता ही हमारी पहचान है और एकता ही हमारी ताकत है. तो मिल जुलकर रहिए, सतर्क रहिए, सजग रहिए..!