विजय दर्डा का ब्लॉग: अशांति रोकने के लिए संशय का समाधान जरूरी
By विजय दर्डा | Published: December 23, 2019 05:00 AM2019-12-23T05:00:04+5:302019-12-23T05:00:04+5:30
जब तक बात संभलती तब तक एक तिनके पर चिनगारी गिरी और देखते-देखते पूरे देश में आग फैल गई. देश के कई हिस्से जल रहे हैं. कहना मुश्किल है कि आग और कितना फैलेगी. पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच झड़प में कई जानें जा चुकी हैं.
यदि देश को विश्वास में न लिया जाए, न समझाया जाए और विश्वास का वातावरण न बनाया जाए तो परिणाम वही होता है जो हम देख रहे हैं. वातावरण ऐसा हो गया है जैसे संकट की घड़ी आ गई है. सरकार नागरिकता कानून लेकर आई और इसे लेकर संशय की स्थिति पैदा हो गई.
जब तक बात संभलती तब तक एक तिनके पर चिनगारी गिरी और देखते-देखते पूरे देश में आग फैल गई. देश के कई हिस्से जल रहे हैं. कहना मुश्किल है कि आग और कितना फैलेगी. पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच झड़प में कई जानें जा चुकी हैं.
इस विषय पर चर्चा से पहले मैं एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैं हर समस्या का समाधान महात्मा गांधी की विचारधारा के माध्यम से ढूंढ़ता हूं इसलिए हर तरह की हिंसा का विरोधी हूं. हमारा लोकतंत्र निश्चय ही हमें अपनी बात कहने, विरोध करने और शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन की इजाजत देता है. इससे किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए लेकिन इस विरोध और प्रदर्शन में हिंसा के लिए कहीं कोई जगह नहीं होनी चाहिए.
इसलिए मेरी नजर में वे सभी गुनहगार हैं जो बसें जला रहे हैं, पथराव कर रहे हैं और सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान पहुंचा रहे हैं. मेरी नजर में यह भी गुनाह है कि पुलिस किसी यूनिवर्सिटी कैंपस में बिना अनुमति घुस जाए और लाइब्रेरी में पहुंचकर विद्यार्थियों पर लाठीचार्ज करे और आंसू गैस के गोले दागे. एक विद्यार्थी की तो पढ़ने वाली आंख ही चली गई. सवाल यह है कि पुलिस ने बाहर का गुस्सा जामिया मिलिया विश्वविद्यालय के भीतर क्यों निकाला? पथराव तो बाहर से हुए थे, फिर लाइब्रेरी में क्यों घुसी पुलिस?
हमारे सामने मुंबई का उदाहरण है जहां प्रदर्शन के दौरान पुलिस ने अत्यंत आत्मसंयम का परिचय दिया. हजारों हजार की भीड़ में एक पत्ता तक नहीं खड़का! मुंबई के पुलिस कमिश्नर संजय बव्रे और संयुक्त पुलिस कमिश्नर विनय चौबे की इसके लिए तारीफ की जानी चाहिए.
लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि विरोध की ज्वाला भड़की ही क्यों? मुङो तो लगता है कि पढ़े-लिखे लोगों में भी ऐसे लोगों की संख्या अत्यंत कम होगी जिन्हें यह पता होगा कि यह नागरिकता कानून क्या है या एनआरसी का मसला क्या है. तो जब लोगों को ठीक से पता ही नहीं है तो भीड़ उसे ही सच मान लेगी जो उड़ती-उड़ती बात उस तक पहुंचेगी.
इसलिए यदि संशय की स्थिति पैदा हुई है तो इसे दूर करने की जिम्मेदारी सरकार की है. जब नागरिकता कानून पास हो रहा था तो सरकार को यह अंदाजा होना चाहिए था और मैं मानता हूं कि होगा भी कि विरोध के स्वर फूट सकते हैं. तो इसके लिए पहले से तैयारियां करनी चाहिए थी. जिस तरह से धारा 370 के प्रावधानों को हटाने के पहले सरकार ने जम्मू-कश्मीर में प्रतिबंधात्मक व्यवस्थाएं कर ली थीं तो आग नहीं भड़की, इसी तरह नागरिकता कानून से पूरे देश का परिचय पहले ही करा देने के लिए सरकार को व्यवस्था करनी चाहिए थी. विरोधी पक्ष को साथ लेना चाहिए था.
मीडिया, सोशल मीडिया और युवाओं को विश्वास में लेना चाहिए था. मुङो लगता है कि यह कदम अब भी उठाया जा सकता है. प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि किसी को चिंतित होने की जरूरत नहीं है तो पूरी जानकारी के साथ यह बात लोगों के मन में बिठाना भी जरूरी है.
केवल यह आरोप मढ़ देने से काम नहीं चलेगा कि भड़काने का काम विपक्ष कर रहा है. विरोध प्रदर्शनों और आंदोलनों में तो राजनीतिक पार्टियां होती ही हैं. कभी भाजपा, कभी कांग्रेस, कभी वामपंथी दल तो कभी क्षेत्रीय दल शामिल रहते हैं. लोकतंत्र के भीतर यह स्वाभाविक भी है. बोलने, लिखने और दूसरा पक्ष सामने रखने का अधिकार हर किसी को है. इसी रूप में विरोध को स्वीकार भी करना चाहिए.
सत्ताधारी दल को संयम रखना चाहिए और हम ऐसा करते भी आए हैं. और हां, पूवरेत्तर भारत आज अपनी संस्कृति को बचाने की लड़ाई लड़ रहा है तो हम सभी को उसकी चिंता करने की जरूरत है. किसी को दोषी ठहराने की जरूरत नहीं है.
यह कितनी बड़ी विडंबना है कि हमने यह कह दिया कि अफगानिस्तान में अल्पसंख्यक हिंदुओं पर अत्याचार हो रहा है. क्या यह कहने की जरूरत थी? अफगानिस्तान हमारा मोस्ट फेवर्ड नेशन है. हर साल हम वहां तीन बिलियन डॉलर खर्च कर रहे हैं और वहां हम बड़े स्टेक होल्डर हैं. अफगानिस्तान को एक तरफ दोस्त कहते हैं और दूसरी ओर इस तरह के आरोपों से उसे ठेस पहुंचा देते हैं! यह अच्छी बात नहीं है. ..और क्या ये बात भारत को शोभा देती है कि हमारे पड़ोसी बांग्लादेश के विदेश मंत्री ए.के. अब्दुल मोमेन और गृह मंत्री असदुज्जमां खान आरोपों से आहत होकर अपना भारत दौरा रद्द कर देते हैं और कहते हैं कि यदि हमारे नागरिक आपके यहां हैं तो हमें दे दीजिए!
मैं यह मानता हूं कि भाजपा के चुनावी घोषणापत्र में राम मंदिर, धारा 370, तीन तलाक, समान नागरिक संहिता, घुसपैठियों को बाहर करना, जनसंख्या नियंत्रण जैसे मुद्दे शामिल थे. उसी के आधार पर भाजपा को प्रचंड बहुमत भी मिला. उसकी सरकार बनी. सरकार को जनता के सुख-दुख की चिंता करनी चाहिए. राजनीतिक मुद्दों पर बाद में ध्यान देना चाहिए. आज देश की आर्थिक स्थिति को संभालने की जरूरत है. उद्योगों को संभलने में मदद करने की जरूरत है ताकि प्रधानमंत्री का ‘मेक इन इंडिया’ का बड़ा सपना पूरा हो सके. रोजगार पैदा करने की जरूरत है.
हर हाथ को काम और पेट को भोजन सुनिश्चित करना पहली जरूरत है. जिस तरह से कांग्रेस ने ‘राइट टू फूड’, ‘राइट टू एजुकेशन’ और ‘राइट टू इनफॉर्मेशन’ का कानून बनाया उसी तरह मौजूदा सरकार को एकाउंटेबिलिटी बिल पास करना चाहिए ताकि हर विभाग और हर अधिकारी की जिम्मेदारी सुनिश्चित हो सके व जनता का काम जल्दी हो. और हां, ध्यान रखिए कि इस देश में 80 प्रतिशत हिंदू हैं तो 20 प्रतिशत अल्पसंख्यक भी हैं.
हिंदू बड़े भाई हैं लेकिन भारतीय संविधान सभी को समान अधिकार देता है. जिन्होंने संविधान बनाया था, उसमें सभी वर्गो और विचारधारा के लोग शामिल थे. विद्वान लोग थे. उन्होंने बहुत सोच-समझ कर दुनिया का सर्वश्रेष्ठ संविधान बनाया. हर भारतवासी का कर्तव्य है कि वह हर हाल में संविधान की रक्षा करे.