विजय दर्डा का ब्लॉग: हम सब मिट्टी..! इसी मिट्टी में स्वर्ग बसा है..!
By विजय दर्डा | Updated: July 5, 2021 09:14 IST2021-07-05T09:14:55+5:302021-07-05T09:14:55+5:30
ऊंची उड़ान की लालसा में हम उस मिट्टी के बारे में सोचते ही नहीं जिससे हम जन्मे, जिसमें हम मिल जाएंगे।

विजय दर्डा का ब्लॉग: हम सब मिट्टी..! इसी मिट्टी में स्वर्ग बसा है..!
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने जब अपने गांव की मिट्टी को ललाट पर लगाया और कहा कि स्वर्ग यही है तो मैं स्मृतियों की गहराई में उतरता चला गया. न जाने कितनी स्मृतियां हैं. कुछ बचपन की हैं. कुछ जवानी की और कुछ हाल फिलहाल की..! तमाम अनुभवों का निचोड़ यही है कि हम सब मिट्टी हैं..! इसी मिट्टी में स्वर्ग बसा है..!
कोई ढाई दशक पहले एक सर्वेक्षण हुआ था कि लोगों को अपने घर की सबसे ज्यादा याद कब आती है? दिल्ली में काम कर रही एक नर्स का जवाब मुझे गहराई तक भेद गया था. उसने कहा था- ‘तपती धरती पर बारिश की जब बूंदें गिरती हैं और उससे मिट्टी की जो सौंधी-सौंधी सी महक उठती है वह मुझे अपने गांव की याद दिला देती है.’
वाकई मिट्टी की महक का कोई जवाब नहीं है. मैं खुद को खुशनसीब समझता हूं कि मेरा बचपन मिट्टी की खुशबू से भीगा रहा है. वह तासीर इतनी गहराई तक पैठी है कि आज भी अपने बगीचे में मिट्टी का स्पर्श मेरे दिल-दिमाग को आह्लादित कर देता है. मैं बचपन की स्मृतियों में लौट जाता हूं. मैं अपने नानीघर बेला और बाबूजी के नानीघर मादनी बचपन में खूब जाया करता था. तब आज की तरह मोटरें नहीं थीं.
हमारी यात्र बैलगाड़ी पर होती थी और धूल के गुबार के बीच यह फिक्र बिल्कुल ही नहीं होती थी कि मिट्टी में हम गंदे हो जाएंगे! उस धूल में भी एक अलग तरह का सुख छिपा था. बच्चे तब धूल मिट्टी में खेलकर ही बड़े होते थे. तब आम धारणा यही थी कि बच्चे मिट्टी में जितना खेलेंगे, उतने ही मजबूत होंगे.
आज के संदर्भो में कहें तो मिट्टी एंटीबॉडीज तैयार करती है लेकिन अब जमाना बदल गया और आज की शहरी माताएं, यहां तक कि गांव की भी बहुत सी माताएं इस बात का खास तौर पर ध्यान रखने लगी हैं कि बच्च कहीं मिट्टी के संपर्क में न आ जाए! उन्हें बच्चे के बीमार हो जाने का डर सताता है. ज्ञान-विज्ञान इसी मिट्टी की उपज है लेकिन कृत्रिमता जीवन पर इतनी हावी हो गई है कि प्रकृति से हमारी दूरियां बढ़ने लगी हैं.
सुदूर गांवों में मिट्टी से प्रेम अब भी बना हुआ है लेकिन शहरों में हालात जरा अलग हैं. मैं कई बार सोचता हूं कि जिस मिट्टी से हम सब बने हैं, उसमें खेलने से बच्चों को क्यों रोकना? वास्तव में मिट्टी तो जीवन का मर्म बताती है..! जीने का एहसास जगाती है. जाने-माने कवि शिवमंगल सिंह सुमन की पंक्तियां मुझे याद आ रही हैं..
निर्मम कुम्हार की थापी से
कितने रूपों में कुटी-पिटी,
हर बार बिखेरी गई, किंतु
मिट्टी फिर भी तो नहीं मिटी!
यही तो जीवन का सार है! कुम्हार से मुझे याद आया कि बचपन में मिट्टी की हांडी में बनी दाल और सब्जी तथा मिट्टी के तवे पर सेंकी गई रोटी की बात ही निराली थी. कितनी खुशबू होती थी उसमें! पिछले महीने बचपन की वो याद अचानक इतनी हावी हो गई कि मैंने मिट्टी के बर्तनों का एक पूरा सेट अपने रसोईघर में शामिल किया.
पूरा खाना मिट्टी के बर्तन में बनाया गया और मिट्टी के बर्तनों में ही परोसा गया. जिन करीबियों को मैंने भोजन पर आमंत्रित किया था वे लज्जतदार स्वाद से अभिभूत हो गए. मैंने भी बहुत दिनों बाद ऐसा स्वाद चखा. दुर्भाग्य है कि मिट्टी के बर्तन अब गांवों से भी गायब होने लगे हैं. कहीं कभी-कभार ही ये बर्तन दिखते हैं.
आपको याद होगा कि पहले ट्रेनों में या शहरों में भी कुल्हड़ में चाय मिला करती थी. अब वो बीते जमाने की बात हो गई है. हालांकि कोलकाता में आज भी कम से कम दही तो मिट्टी के कुल्हड़ में ही मिलता है. मैं जब भी कोलकाता जाता हूं तो मिट्टी के बर्तन में मीठी दही खाना नहीं भूलता.
सच कहें तो चांदी के बर्तन में भी वह सुख नहीं जो मिट्टी के बर्तन में स्वाद आता है. चांदी और सोने की थाली सुगंध कहां से पैदा करेगी? मशहूर शायर मुनव्वर राना ने कुछ साल पहले मुझे बताया था कि उनके बेटे की शादी के वक्त जब लड़की वालों ने कहा कि उपहार में क्या चाहिए तो मुनव्वर भाई ने मिट्टी के बर्तनों के पूरे सेट की मांग कर दी. लड़की वालों ने उपलब्ध भी कराया!
दरअसल जिनमें भावनात्मकता होती है, आध्यामिकता के करीब होते हैं या फिर प्रकृति के साथ जीना चाहते हैं वे किसी न किसी रूप में मिट्टी से राब्ता बनाए रखना चाहते हैं. क्योंकि सच यही है कि हम सब मिट्टी हैं. इसी से हम वजूद में आए हैं और खुशनसीब रहे तो अपने वतन की इसी मिट्टी में एक दिन मिल जाना है.
कोई स्वाहा होकर मिट्टी में मिल जाएगा तो कोई जमीन के नीचे दफन हो जाएगा. फिर उसी मिट्टी से सृजन होगा. शिवमंगल सिंह सुमन की ही कुछ और पंक्तियां मेरे जेहन में कौंधने लगी हैं..
मिट्टी की महिमा मिटने में
मिट मिट हर बार संवरती है
मिट्टी मिट्टी पर मिटती है
मिट्टी मिट्टी को रचती है
वास्तव में जीवन का नवगीत सुनाने और सृजन का संसार रचने की क्षमता केवल और केवल हमारी मिट्टी में है. विज्ञान ने बहुत तरक्की कर ली है और उसने भी हमें बता दिया है कि जिन ग्रहों तक पहुंच हुई है वहां भी हमारी जैसी मिट्टी नहीं है इसलिए जीवन नहीं है.
हमारी धरती बीज पड़ते ही फसल के रूप में लहलहा उठती है, अनाज पैदा करती है, जो हमारे जीवन की ऊर्जा का आधार है. इस मिट्टी से ही हमारे नैसर्गिक खेल उपजे हैं, जिससे हमें ऊर्जा मिलती है. वाकई हमारी मिट्टी ऊर्जा का भंडार है. अपनी धरती, अपने वतन और अपने गांव की मिट्टी में ही तो स्वर्ग बसा है..!