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वेदप्रताप वैदिक का ब्लॉग: शराबबंदी- गोंड समाज से सीखे सारा भारत

By वेद प्रताप वैदिक | Updated: March 12, 2021 10:35 IST

कवर्धा के गोंडों ने सर्वसम्मति से फैसला लिया है अब शराब का सेवन त्योहार, उत्सवों या फिर विवाह कार्यक्रम में नहीं किए जाएंगे। साथ ही दहेज को लेकर भी अहम फैसला हुआ।

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भारत में गोंड आदिवासियों की संख्या लगभग 90 लाख है. ये मुख्यत: छत्तीसगढ़, म.प्र., महाराष्ट्र और ओडिशा के जंगलों में रहते हैं. छत्तीसगढ़ में कवर्धा जिले के गोंडों ने एक ऐसा संकल्प किया है, जिसका अनुकरण सारा भारत कर सकता है. 

गोंड कबीलों के लोग प्राय: गरीब और अशिक्षित होते हैं. उन्हें संविधान की अनुसूचित में डाल रखा है लेकिन उन्होंने समाज-सुधार के कुछ ऐसे फैसले किए हैं, जो शहरों और गांवों में रहनेवाले ऊंची जातियों के संपन्न और सुशिक्षित लोग भी उनसे कुछ सीख सकते हैं.

उनका पहला फैसला है, शराबबंदी का. म.प्र. के आदिवासी इलाकों में मुझे जब भी जाने का मौका मिलता था, मैं यह देखकर दंग रह जाता था कि आदिवासी लोग सुबह-सुबह बंटा चढ़ा लेते थे. उन्हें मां-बाप और बुजुर्गों से कोई संकोच नहीं होता था. 

कोई भी कानून उन्हें शराबखोरी से रोक नहीं पाता था लेकिन अब कवर्धा के गोंडों ने एक महासम्मेलन आयोजित किया और उसमें सर्वसम्मति से फैसला किया कि त्यौहारों और उत्सवों में अब जो भी शराब पिएगा, उस पर 2 से 5 हजार रु. तक जुर्माना होगा. बारातियों को अब शराब नहीं परोसी जाएगी. 

यह शुरुआत भर है. हो सकता है कि रोजमर्रा की व्यक्तिगत शराबखोरी के खिलाफ भी सामूहिक संकल्प तैयार हो जाए. दूसरा बड़ा फैसला वहां यह हुआ कि न तो दहेज लिया जाएगा, न दिया जाएगा. आदिवासियों में दहेज की परंपरा के कारण कई मुसीबतें खड़ी हो जाती हैं लेकिन अब यह तय हुआ है कि वधु को सिर्फ पांच प्रकार के बर्तन भेंट किए जाएंगे. 

शराबबंदी, दहेज और मृत्युभोज के विरुद्ध 60-65 साल पहले मैंने इंदौर में जब आंदोलन शुरू किया था तो लोगों ने मुझे गिरफ्तार करवा दिया था लेकिन मुझे खुशी है कि अब इन्हीं मुद्दों पर आदिवासी समाज की मुहर लग रही है. 

धीरे-धीरे सभी प्रांतों के गोंड आदिवासी यही संकल्प करनेवाले हैं. कवर्धा के महासम्मेलन ने एक फैसला ऐसा किया है, जिस पर मतभेद हो सकता है. वह यह कि मुर्दों को जलाने की बजाय गाड़ा जाए. ऐसा करने से लकड़िया बचेंगी. जंगल नहीं कटेंगे.

यह तर्क तो बहुत प्रशंसनीय है लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि बड़े-बड़े कब्रिस्तानों के कारण लंबी-चौड़ी जमीनें बेकार हो जाएंगी. ऐसा दंड भुगतते हुए मैंने ईरान और लेबनान के कई सुंदर पहाड़ों और वन्य-प्रदेशों को अपनी आंखों से देखा है. 

अब कई देशों में भी मशीनी शव-दाह शुरू  हो गया है. वे मानते हैं कि गड़े हुए शवों से कई अदृश्य और असाध्य रोग भी फैल जाते हैं. इस मशीनी शव-दाह में लकड़ियों की कोई जरूरत नहीं होती. मुझे विश्वास है कि हमारे आदिवासी भाई इन वैज्ञानिक और आर्थिक कारणों पर भी जरूर ध्यान देंगे और अत्येंष्टि के बारे में पुनर्विचार करेंगे.

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