वेदप्रताप वैदिक का ब्लॉग: रूसी विदेश मंत्री का दौरा और भारत को मिली एक अच्छी तो एक बुरी खबर
By वेद प्रताप वैदिक | Published: April 8, 2021 12:40 PM2021-04-08T12:40:42+5:302021-04-08T12:40:42+5:30
रूस के विदेश मंत्री हाल में भारत दौरे पर थे। दोनों देशों के रिश्ते काफी पुराने और एक समय दोनों देशों के इस रिश्ते को दुनिया भी अलग निगाह से देखती है। हालांकि अब भी क्या वाकई ऐसा है?
रूसी विदेश मंत्री सर्गेइ लावरोव और भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर के बीच हुई बातचीत के जो अंश प्रकाशित हुए हैं और उन दोनों ने अपनी पत्रकार परिषद में जो कुछ कहा है, अगर उसकी गहराई में उतरें तो आपको थोड़ा-बहुत आनंद जरूर होगा लेकिन आप दुखी हुए बिना भी नहीं रहेंगे.
आनंद इस बात से होगा कि रूस से हम एस-400 प्रक्षेपास्त्र खरीद रहे हैं, वह खरीद अमेरिकी प्रतिबंधों के बावजूद जारी रहेगी. यद्यपि इधर भारत ने रूसी हथियार की खरीद लगभग 33 प्रतिशत घटा दी है लेकिन लावरोव ने भरोसा दिलाया है कि अब रूस भारत को नवीनतम हथियार-निर्माण में पूर्ण सहयोग करेगा.
लावरोव ने भारत-रूस सामरिक और व्यापारिक सहयोग बढ़ाने के भी संकेत दिए हैं. उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि भारत किसी भी देश के साथ अपने संबंध घनिष्ठ बनाने के लिए स्वतंत्र है.
उनका इशारा इधर भारत और अमेरिका की बढ़ती हुई घनिष्ठता की तरफ रहा होगा लेकिन उन्होंने कई ऐसी बातें भी कही हैं, जिन पर आप थोड़ी गंभीरता से सोचें तो लगेगा कि वे दिन गए, जब भारत-रूस संबंधों को लौह-मैत्री कहा जाता था.
क्या कभी ऐसा हुआ है कि कोई रूसी नेता भारत आकर वहां से तुरंत पाकिस्तान गया हो? नई दिल्ली में पत्रकार-परिषद खत्म होते ही लावरोव इस्लामाबाद पहुंच गए. वे इस्लामाबाद क्यों गए? इसलिए कि वे अफगान-संकट को हल करने में जुटे हुए हैं.
सोवियत रूस ने ही यह दर्द पैदा किया था और वह ही इसकी दवा खोज रहा है. लावरोव ने साफ-साफ कहा कि तालिबान से समझौता किए बिना अफगान-संकट हल नहीं हो सकता. जयशंकर को दबी जुबान से कहना पड़ा कि हां, उस हल में सभी अफगानों को शामिल किया जाना चाहिए.
यह हमारी सरकार की अक्षमता है कि हमारा तालिबान से कोई संपर्क नहीं है. हम यह जान लें कि तालिबान गिलजई पठान हैं. वे मजबूरी में पाकिस्तान परस्त हैं. वे भारत-विरोधी नहीं हैं. यदि उनके जानी दुश्मन अमेरिका और रूस उनसे सीधा संपर्क रख रहे हैं तो हम क्यों नहीं रख सकते?
लावरोव ने तालिबान से रूसी संबंधों पर जोर तो दिया ही, उन्होंने ‘इंडो-पैसिफिक’ के बजाय ‘एशिया-पैसिफिक’ शब्द का इस्तेमाल किया. चीन और पाकिस्तान के साथ मिलकर रूस अब अमेरिकी वर्चस्व से टक्कर लेना चाहेगा. लेकिन भारत के लिए यह बेहतर होगा कि वह किसी भी गुट का पिछलग्गू नहीं बने.
यह बात जयशंकर ने स्पष्ट कर दी है लेकिन दक्षिण एशिया की महाशक्ति होने के नाते भारत को जो भूमिका अदा करनी चाहिए, वह उससे अदा नहीं हो पा रही है.