हिमालय से छेड़खानी के नतीजे तो भुगतने ही होंगे, अनिल जैन का ब्लॉग
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: February 10, 2021 11:20 AM2021-02-10T11:20:18+5:302021-02-10T11:22:25+5:30
भारतीय उपमहाद्वीप की विशिष्ट पारिस्थितिकी की कुंजी हिमालय का भूगोल है. लेकिन हिमालय की पर्वतमालाओं के बारे में हमारा अज्ञान लगातार बरकरार है.
उत्तराखंड समेत समूचे हिमालयी क्षेत्र में बरसात के मौसम में तो बादल फटने, ग्लेशियर टूटने, बाढ़ आने, जमीन दरकने और भूकंप के झटकों की वजह से जान-माल की तबाही होती ही रहती है. ऐसी आपदाओं का कहर कभी उत्तराखंड, कश्मीर और हिमाचल प्रदेश तो कभी पूर्वोत्तर के राज्य अक्सर ङोलते रहते हैं.
लेकिन इस बार सर्दी के मौसम में उत्तराखंड में कुदरत का कहर बरपा है. वहां चमोली जिले में भीषण तबाही मची है और बड़े पैमाने पर जान-माल का नुकसान हुआ है. आश्चर्यजनक रूप से सर्दी के मौसम में घटी यह घटना एक नए खतरे की ओर इशारा करती है. कहने को तो यह खतरा प्राकृतिक है और इसे जलवायु चक्र में हो रहे परिवर्तन से भी जोड़कर देखा जा रहा है लेकिन असल में यह मनुष्य की खुदगर्जी और विनाशकारी विकास की भूख से उपजा संकट है.
2013 में केदारनाथ और 2014 में कश्मीर में बाढ़ से भीषण तबाही हुई थी
पिछली बार जब 2013 में केदारनाथ और 2014 में कश्मीर में बाढ़ से भीषण तबाही हुई थी, तब तमाम अध्ययनों के बाद चेतावनी दी गई थी कि अगर पहाड़ों की अंधाधुंध कटाई और नदियों के बहाव से अतार्किक छेड़छाड़ या उसके दोहन पर रोक नहीं लगाई गई तो नतीजे भयावह होंगे.
कुछ साल पहले पूर्वोत्तर में आए भूकंप के बाद केंद्रीय गृह मंत्नालय के आपदा प्रबंधन विभाग से जुड़े वैज्ञानिकों ने भी चेतावनी दी थी कि पहाड़ों और नदियों से छेड़छाड़ का सिलसिला रोका नहीं गया तो आने वाले समय में समूचे उत्तर भारत में भीषण तबाही मचाने वाला भूकंप आ सकता है.
नाश हमने पिछले 60-65 सालों में कर दिया
दरअसल, भारतीय उपमहाद्वीप की विशिष्ट पारिस्थितिकी की कुंजी हिमालय का भूगोल है. लेकिन हिमालय की पर्वतमालाओं के बारे में हमारा अज्ञान लगातार बरकरार है. इनको जितना और जैसा बर्बाद अंग्रेजों ने दो सौ सालों में नहीं किया था उससे कई गुना ज्यादा इनका नाश हमने पिछले 60-65 सालों में कर दिया है.
इनकी भयावह बर्बादी को ही दक्षिण-पश्चिम एशिया के मौसम चक्र में बदलाव की वजह बताया जा रहा है, जिससे हमें कभी भीषण गर्मी का कहर तो कभी जानलेवा सर्दी का सितम ङोलना पड़ता है. कभी बादल फट पड़ते हैं तो कभी धरती दरकने या डोलने लगती है, पहाड़ धंसने लगते हैं.
कुछ साल पहले पूर्वोत्तर और उसके बाद समूचे भारतीय उपमहाद्वीप को बुरी तरह हिला देने वाले नेपाल के भूकंप और उससे पहले उत्तराखंड और कश्मीर में आई प्रलयंकारी बाढ़ को भी इसी रूप में देखा जा सकता है. हजारों-हजार जिंदगियों को लाशों में तब्दील कर गई तथा लाखों लोगों को बुरी तरह तबाह कर गई इन त्नासदियों को दैवीय आपदा कहा गया लेकिन हकीकत यह है कि यह मानव निर्मित आपदाएं ही थीं जिन्हें विकास और आधुनिकता के नाम पर न्यौता जा रहा था और अभी भी यह सिलसिला जारी है.
प्राकृतिक संपदा से ज्यादा छेड़छाड़ घातक साबित
दरअसल, कुछ अपवादों को छोड़ दें तो कभी भी हिमालय और इससे जुड़े मसलों पर कोई गंभीर विमर्श हुआ ही नहीं, क्योंकि हम इसकी भव्यता और इसके सौंदर्य में ही खो गए. जबकि हिमालय को इसकी विराटता, इसके सौंदर्य और इसकी आध्यात्मिकता से इतर इसकी सामाजिकता, इसके भूगोल, इसकी पारिस्थितिकी, इसके भू-गर्भ, इसकी जैव-विविधता आदि की दृष्टि से भी देखने और समझने की जरूरत है. हिमालय एशिया का वाटर टावर माना जाता है और यह बड़े भू-भाग का जलवायु निर्माण भी करता है. लिहाजा हिमालय क्षेत्न की प्राकृतिक संपदा से ज्यादा छेड़छाड़ घातक साबित हो सकती है.
पहाड़ी इलाकों में पर्यटन को बढ़ावा देना राजस्व के अलावा स्थानीय लोगों के रोजगार की दृष्टि से जरूरी माना जा सकता है. लेकिन इसकी आड़ में हिमालयी राज्यों की सरकारें होटल-मोटल, पिकनिक स्थल, शॉपिंग मॉल आदि विकसित करने, बिजली, खनन और दूसरी विकास परियोजनाओं और सड़कों के विस्तार के नाम पर निजी कंपनियों को मनमाने तरीके से पहाड़ों और पेड़ों को काटने की धड़ल्ले से अनुमति दे रही हैं.
जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्य, सबकी दास्तानें एक जैसी दर्दनाक
उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्य, सबकी दास्तानें एक जैसी दर्दनाक हैं. ये सभी इलाके कई विशिष्ट कारणों से सैलानियों के आकर्षण का केंद्र हैं, इसलिए कई निजी कंपनियों ने यहां कारोबारी गतिविधियां शुरू कर दी हैं. हालांकि स्थानीय बाशिंदे और पर्यावरण के लिए काम करने वाले स्वयंसेवी संगठन इन इलाकों में पहाड़ों और वनों की कटाई के खिलाफ आवाज उठाते रहे हैं, लेकिन सरकारी सरपरस्ती हासिल होने के कारण ये आपराधिक कारोबारी गतिविधियां निर्बाध रूप से चलती रहती हैं.
पर्यावरण संरक्षण के मकसद से ज्यादातर पहाड़ी इलाकों में बाहरी लोगों के जमीन-जायदाद खरीदने पर कानूनन पाबंदी है, लेकिन ज्यादा से ज्यादा राजस्व कमाने के चक्कर में इन पहाड़ी राज्यों की सरकारों के लिए इस कानून का कोई मतलब नहीं रह गया है और कई कंस्ट्रक्शन कंपनियां पहाड़ों में अपना कारोबार फैला चुकी हैं.
दो मंजिल से ज्यादा ऊंची इमारतें बनाने पर रोक थी
जिन इलाकों में दो मंजिल से ज्यादा ऊंची इमारतें बनाने पर रोक थी, वहां अब बहुमंजिला आवासीय और व्यावसायिक इमारतें खड़ी हो गई हैं. बड़ी इमारतें बनाने और सड़कें चौड़ी करने के लिए जमीन को समतल बनाने के लिए विस्फोटकों के जरिये पहाड़ों की अंधाधुंध कटाई-छंटाई से पहाड़ इतने कमजोर हो गए हैं कि थोड़ी सी बारिश होने पर वे धंसने लगते हैं.
दरअसल, पहाड़ों को और पर्यावरण को बचाने के लिए जरूरत है एक व्यापक लोक चेतना अभियान की, जिसका सपना पचास के दशक में डॉ. राममनोहर लोहिया ने ‘हिमालय बचाओ’ का नारा देते हुए देखा था या जिसके लिए गांधीवादी पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा ने ‘चिपको आंदोलन’ शुरू किया था. हालांकि संदर्भ और परिप्रेक्ष्य काफी बदल चुके हैं लेकिन उनमें वैकल्पिक सोच के आधार-सूत्न तो मिल ही सकते हैं.