ऐसा लगता है कि संसार की शिखर संस्थाएं अब अंतिम सांसें ले रही हैं. वे अपना मूल चरित्र और मकसद खो बैठी हैं. अब यह संस्थाएं कूटनीतिक और राजनयिक स्वार्थों से संचालित हो रही हैं. इसका नुकसान समूचे संसार को हो रहा है. सबसे ज्यादा तो स्वतंत्र हैसियत बनाए रखने वाले मुल्क इसका शिकार हो रहे हैं. इन संस्थाओं का परदे के पीछे से संचालन अमेरिका जैसे बड़े और विकसित देश कर रहे हैं. वे इस संगठन को चलाने के लिए सबसे अधिक धन भी देते हैं.
इसी आर्थिक मदद के कारण वे ऐंठे रहते हैं और दुनिया को अपने इशारों पर नचाना चाहते हैं. यह एक गंभीर चेतावनी है कि आने वाले समय में संसार को ऐसी संस्थाओं की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी.
विश्व की सबसे बड़ी पंचायत संयुक्त राष्ट्र से बात शुरू करते हैं. इसका अतीत आतंकवाद विरोधी संकल्पों से भरा पड़ा है. पाकिस्तान जैसे आतंकवादी देश के बारे में संयुक्त राष्ट्र के मंच पर कई बार निर्णायक राय बन चुकी है. एक समय यह देश अपनी नीतियों के चलते वैश्विक समुदाय से अलग-थलग पड़ गया था.
उसकी अपनी नीतियों ने ही उसे बदहाली के गर्त में धकेल रखा है. ताज्जुब है कि अब वही पाकिस्तान सुरक्षा परिषद के अस्थायी अध्यक्ष की भूमिका निभाता है और आतंकवाद विरोधी पक्ष में जाकर बैठता है. सिर्फ इसीलिए कि अमेरिका ऐसा चाहता है. अब वह अपने स्वार्थों की खातिर पाकिस्तान को जेब में रखना चाहता है. वैश्विक कल्याण की चिंता करने वाली इस संस्था ने कभी लंबे समय तक चलने वाले कोरिया युद्ध को समाप्त कराने के लिए भारत की सहायता से महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
कुछ अन्य अवसरों पर भी उसने अंतरराष्ट्रीय तनाव या जंगी हालात से निपटने में अपनी सार्थकता सिद्ध की है. लेकिन अब उसे रूस और यूक्रेन के बीच तीन साल से जारी जंग नहीं दिखाई दे रही है. फिलिस्तीनियों का दर्द नहीं दिखाई देता और एक अमेरिका दादागीरी दिखाते हुए मनमाने ढंग से किसी भी देश पर कोई भी प्रतिबंध लगा देता है. यह शिखर संस्था उस पर कोई कार्रवाई नहीं करती. इसीलिए भारत समय-समय पर चेतावनी देता रहा है कि अगर संयुक्त राष्ट्र ने कार्यशैली नहीं बदली तो यह गुमनामी में खो जाएगा.
हिंदुस्तान ने तो यहां तक कहा है कि इससे संयुक्त राष्ट्र संगठन ही खतरे में पड़ जाएगा और विश्व के तमाम देश वैकल्पिक रास्ता चुनने के लिए आजाद होंगे. यह स्थिति अच्छी नहीं है. यह संकेत करती है कि जिस उद्देश्य से इस वैश्विक संस्थान का गठन किया गया था, वह पूरा नहीं हो रहा है.
छोटे-बड़े मुल्कों में गुस्सा है. अब यह संगठन चंद देशों की जेब में बैठा नजर आता है. भारतीय चेतावनी को बड़े राष्ट्र समर्थन देते रहे हैं. मगर तब भारत और अमेरिका के रिश्तों में तल्खी नहीं थी. इसलिए नहीं कहा जा सकता कि यह समर्थन कोई क्रांतिकारी परिवर्तन लाएगा. उदाहरण के तौर पर ब्रिटेन ने भारत से सहमति जताई थी और माना था कि वीटो पावर ही सुधार के रास्ते में बाधा है.
समूह-चार के ब्राजील, जापान और जर्मनी ने भी भारत की बात से सहमति प्रकट की. ये देश भारत से सहमत थे कि यदि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार नहीं हुए तो सदस्य देश बाहरी समाधान खोजने लगेंगे. यह बूढ़ों के क्लब जैसा हो गया है. पांच देश नहीं चाहते कि उन पर कोई उंगली उठाए अथवा उनके मामलों में टांग अड़ाए. लेकिन अब यही देश चुप्पी ओढ़े हुए हैं.
इसी तरह अंतर्राष्ट्रीय स्तर की एक और शिखर संस्था फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स है. करीब साढ़े तीन दशक पुरानी इस संस्था में 37 देश हैं. मुख्यालय पेरिस में है. इसका गठन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनीलॉन्ड्रिंग और आतंकवाद का वित्त पोषण करने वालों पर लगाम लगाना है. भारत भी इसमें है. पाकिस्तान नहीं है. अनेक दशक से पाकिस्तान आतंकवाद को संरक्षण दे रहा है. एफएटीएफ ने दस बरस में इसके सबूत जुटाए हैं. इस कारण 2012 से 2015 के बीच पाकिस्तान को ग्रे लिस्ट में डाल दिया गया.
इसके बाद 2018 से फिर ग्रे सूची में रखा गया. कई चेतावनियों के बाद भी उसके रवैये में सुधार नहीं आया. हालांकि इस नीति से उसकी आर्थिक शक्ल बदरंग हो चुकी है. पर वह नीति छोड़ने के लिए तैयार नहीं है. इसके बावजूद पाकिस्तान को 2022 में ग्रे सूची से बाहर कर दिया गया. यानी अब आतंकवाद को पालने-पोसने वाले मुल्क वैश्विक शिखर संस्थाओं के लिए कोई मतलब नहीं रखते. ऐसे में इस संस्था से भी कौन उम्मीद करे? इस तरह टास्क फोर्स की गाड़ी भी पटरी से उतरी हुई है.
पाकिस्तान को ब्लैकलिस्ट करने के लिए भारत एड़ी-चोटी का जोर लगा चुका है, पर कोई उपाय काम नहीं आया. पहलगाम हमले के बाद भी वह ग्रे सूची से बाहर है. बीते दिनों इस संगठन का मुखिया चीन था. उसने पाकिस्तान का खुला समर्थन किया और बचाया. अब भी इस मंच का दुरूपयोग वह अपने देश की विदेश नीति के आधार पर कर रहा है. मलेशिया और तुर्की जैसे देश तक इस मामले में चीन के साथ हैं.
उनके इस रुख की एशिया पैसिफिक ग्रुप ने आलोचना की थी और पाकिस्तान को ब्लैकलिस्ट करने का समर्थन किया था. लेकिन नतीजा नहीं निकला. चीन की अध्यक्षता समाप्त होने के बाद सिंगापुर और अब मैक्सिको नए अध्यक्ष के रूप में सामने हैं. लेकिन उससे भी कोई उम्मीद बेकार है.
कमोबेश यही हाल अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का है. दिवालिया होने के कगार पर पाकिस्तान खड़ा है. नियमानुसार वह कोष से कर्ज हासिल करने का पात्र नहीं है. लेकिन पहलगाम में पर्यटकों पर आतंकी हमले के बाद भी मुद्रा कोष उस पर मेहरबान है. भारतीय विरोध को दरकिनार करते हुए उसने बीती 9 मई को पाकिस्तान को अतिरिक्त एक अरब डॉलर कर्ज की मंजूरी दी है. मुद्रा कोष ने कहा कि वह संतुष्ट है कि पाकिस्तान ने कर्ज प्राप्त करने के सभी नियमों का पालन किया है. मुद्रा कोष ने भारत के विरोध पर ध्यान नहीं दिया कि पाकिस्तान इस कर्ज से हथियार खरीदेगा और उसके खिलाफ इस्तेमाल करेगा.