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गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: प्रकृति का कोई विकल्प नहीं है उसकी रक्षा करनी ही होगी

By गिरीश्वर मिश्र | Updated: June 23, 2019 06:30 IST

भारत के लगभग सभी महानगर पेयजल के अभाव के भीषण संकट से जूझ रहे हैं. जल प्रबंधन की कोई कारगर नीति नहीं अपनाई गई है. वर्षा का जल भी हम सुरक्षित नहीं कर पा रहे हैं.

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अंतर्राष्ट्रीय  स्तर पर सारी दुनिया में मार्च में जल दिवस, अप्रैल में पृथ्वी दिवस, मई में जैव विविधता दिवस और जून में पर्यावरण दिवस मनाया गया. जागरूक मीडिया द्वारा इन सभी अवसरों पर घोर चिंता प्रकट की गई. जनता को यथासंभव सचेत करने की कोशिश भी की गई. यह निरा संयोग नहीं है कि इन सब चेतना-संवर्धन के प्रयासों के केंद्र में प्रकृति के विभिन्न पक्षों को रखा गया है.

मनुष्य के हस्तक्षेप के फलस्वरूप प्रकृति का नैसर्गिक उपहार दांव पर लग रहा है. भारत तेजी से विकास कर रहा है, पर इसकी समस्याएं भी विकराल हो रही हैं. अनुमान है कि भारत की आबादी 2027 में चीन से आगे बढ़ जाएगी. ऐसे में संसाधनों के उपयोग पर दबाव बढ़ता जा रहा है और अब प्राकृतिक आपातकाल जैसी स्थिति पैदा हो रही है.

वस्तुत: जलवायु-परिवर्तन की भयावहता  आज विश्व भर में कई रूपों में अनुभव की जा रही है. विश्व के अलग-अलग क्षेत्नों में कहीं बाढ़, कहीं सुनामी तो कहीं प्रचंड गर्मी के रूप में जलवायु-परिवर्तन का असर देखने को मिल रहा है. बढ़ते तापमान के चलते हिंसा में वृद्धि होती है यह बात प्रयोगशाला के अध्ययनों में पहले पाई जा चुकी थी  और अब यह एक खतरनाक सच्चाई के रूप में भी सामने आ रही है.

वैज्ञानिक पत्रिका ‘नेचर’ के ताजा अंक  में जलवायु व्यवस्था और मानव समाज के बीच के अंर्तसबंधों की पड़ताल के लिए अर्थशास्त्रियों, राजनीतिविज्ञानियों, भूगोलविदों और पर्यावरण शास्त्रियों के 11 सदस्यीय अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ दल के विचार-विमर्श के निष्कर्षो का जिक्र है जिसमें जलवायु में हो रहे व्यापक परिवर्तनों से हिंसा और संघर्ष के खतरे का अंदेशा व्यक्त किया गया है. 

प्रकृति को एक संसाधन मान कर उसके अंध-दोहन की हमारी प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है. लोभी मनुष्य आज कुछ भी करने को तत्पर है. सच कहें तो प्रकृति को हानि पहुंचाना विकास का पर्यायवाची होता जा रहा है. प्रकृति के कोष को हम अपरिमित मान कर उसके साथ मनमानी करने लगे और विकास के बढ़ते दबाव तले प्रकृति के संसाधनों का आंख मूंद कर दोहन करने लगे. आज स्थिति यह हो रही है कि भारत की आधी आबादी आसन्न जल त्नासदी  के कगार पर पहुंचने वाली है.

भारत के लगभग सभी महानगर पेयजल के अभाव के भीषण संकट से जूझ रहे हैं. जल प्रबंधन की कोई कारगर नीति नहीं अपनाई गई है. वर्षा का जल भी हम सुरक्षित नहीं कर पा रहे हैं. ऐसे में हमें कई मोर्चो पर अविलंब कार्य शुरू करने की जरूरत है.  विकसित होने के क्र म में हम अधिकाधिक लोभी होते जा रहे हैं. इसके चलते वह प्रकृति जिससे जीवन संभव होता है, उसके साथ खिलवाड़ करते जा रहे हैं. हम भूल रहे हैं कि प्रकृति है तभी हम भी हैं. प्रकृति का कोई विकल्प नहीं है. उसकी रक्षा करनी ही होगी. 

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