ब्लॉगः संसद की साल-दर-साल सिकुड़ रही भूमिका

By राजेश बादल | Published: August 23, 2023 09:02 AM2023-08-23T09:02:34+5:302023-08-23T09:03:03+5:30

राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदुस्तान की प्राथमिकताएं कई गुना विराट आकार में प्रस्तुत हैं, साक्षरता का प्रतिशत बढ़ा है तथा मुल्क की आवाज दुनिया भर में गंभीरता से सुनी जाने लगी है। ऐसे में देश के भीतर अपनी पंचायत में संवाद और चर्चा का अभाव खटकने वाला है।

the shrinking role of Parliament year after year | ब्लॉगः संसद की साल-दर-साल सिकुड़ रही भूमिका

ब्लॉगः संसद की साल-दर-साल सिकुड़ रही भूमिका

लोकतंत्र की सर्वोच्च पंचायत में काम के घंटे घटते जा रहे हैं। लगातार अवरोध के चलते गंभीर विषयों पर चर्चा नहीं हो पा रही है। मानसून सत्र में सार्वजनिक महत्व के बीस विधेयकों को चुटकियों में पारित कर दिया गया। साठ-सत्तर साल पहले देश की इस प्रमुख संवैधानिक संस्था के लिए कम-से-कम सौ दिन काम करना जरूरी माना गया था। बाकायदा एक संसदीय समिति ने इसकी सिफारिश की थी। उसके बाद अनेक वर्षों तक उन सिफारिशों पर अमल हुआ। उस दौर के कई प्रधानमंत्रियों ने यह सुनिश्चित किया कि साल में तीन सत्र तो अनिवार्य रूप से हों और उनमें काम का शतक लगाया जाए। ध्यान देने की बात यह है कि उस दौर में देश की आबादी कम थी और चुनौतियां भी आज की तरह नहीं थीं। पर आज हालात बदले हुए हैं। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदुस्तान की प्राथमिकताएं कई गुना विराट आकार में प्रस्तुत हैं, साक्षरता का प्रतिशत बढ़ा है तथा मुल्क की आवाज दुनिया भर में गंभीरता से सुनी जाने लगी है। ऐसे में देश के भीतर अपनी पंचायत में संवाद और चर्चा का अभाव खटकने वाला है। प्रसंग के तौर पर याद करना उचित होगा कि पचास के दशक में, जब संसद में लोकतांत्रिक विरोध और अवरोध बढ़ने लगा तो सभी दलों को यह भी चिंता हुई कि यदि संसद में गंभीर कामकाज नहीं हुआ तो यह देश का नुकसान है। आम नागरिक की गाढ़ी कमाई से प्राप्त पैसे का दुरुपयोग है। इसके बाद संसद की सामान्य कामकाज समिति से इस बारे में अपने सुझाव देने के लिए अनुरोध किया गया।

 इस समिति ने 1955 में पेश अपनी सिफारिशों में कहा कि संसद के तीन सत्र तो अनिवार्य हैं ही, आवश्यकता पड़े तो इनकी संख्या बढ़ाई जानी चाहिए। इसके अलावा सारे राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि साल में कम-से-कम सौ दिन संसद में पूर्णकालिक काम हो। इन सिफारिशों को पक्ष और प्रतिपक्ष ने सिर झुकाकर माना। शीघ्र ही सुधार दिखाई दिया और तीन सत्र तथा सौ दिन काम का रिकॉर्ड बन गया। पहली संसद ने जब कार्यकाल पूरा किया तो लोकसभा ने 677 और राज्यसभा ने 565 बैठकें कीं। इंदिरा गांधी को इस देश में कुछ लोग अधिनेत्री के रूप में देखते हैं। मगर क्या देश यह जानता है कि उनके कार्यकाल में 1971 से 1977 के बीच संसद ने रिकॉर्ड काम किया था। लोकसभा ने 613 बैठकें की थीं, यह आज भी एक रिकॉर्ड है। लेकिन उसमें भी उन्हें विपक्ष का सहयोग मिला था। इस नजरिये से 2017 का साल शर्मनाक रहा। उस साल केवल 57 बैठकें हुईं। इससे पहले यानी 2016 में अलबत्ता 70 दिन ही काम हो सका था। पिछले दशक का औसत 63 दिनों से भी कम का है।

तात्पर्य यह कि लोकतंत्र की सर्वोच्च पंचायत की गरिमा बनाए रखने के लिए सदन की सभी बेंचों से प्रयास किए गए तभी संसद शान से काम कर पाई। याद दिला दूं कि संसद की एक दिन की कार्रवाई पर लगभग 15 करोड़ रुपए खर्च होते हैं और खेद है कि उसी संसद से 45 लाख करोड़ रुपए का सालाना बजट बिना किसी चर्चा के पास कर दिया जाता है। ध्यान देने की खास बात यह है कि सरकार सरकारी खजाने की मालिक नहीं है। सरकारी कोष की मालकिन संसद है और वही सरकार को इजाजत देती है कि वह धन को कैसे खर्च करे। इसलिए भी संसद का सम्मान जनप्रतिनिधियों की ओर से बेहद जरूरी है। एक जानकारी के मुताबिक एक संसद सदस्य पर करीब पांच कर्मचारी काम करते हैं। जबकि दुनिया का औसत केवल 3।76 कर्मचारियों का है।

लोकतांत्रिक सुधारों की दिशा में काम करने वाली संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने हाल ही में अपनी रिपोर्ट जारी की। संस्था का मानना है कि लगभग एक दशक से संसद की भूमिका सिकुड़ती जा रही है। वह एक तरह से विधेयकों पर मुहर लगाने वाली संस्था बन कर रह गई है। अब तो संसद में पास होने वाले विधेयकों पर चर्चा भी नहीं होती। सांसदों की दिलचस्पी विधेयकों को पढ़ने में नहीं दिखाई देती।

ऐसे में सदन के पटल पर प्रस्तुत करते ही चंद मिनटों में विधेयक पास कर दिए जाते हैं। सत्ता पक्ष से लेकर प्रतिपक्षी सांसदों को भी जानकारी नहीं होती कि वास्तव में उन विधेयकों में क्या कहा गया है। एक और अजीब सी प्रवृत्ति हालिया दौर में विकसित हुई है। बिना किसी ठोस संसदीय आधार के सांसदों को निलंबित किया जाने लगा है। संसद में अपनी आवाज को रखने के लिए मतदाता जन प्रतिनिधि को चुनते हैं और उस सांसद को समूचे सत्र के लिए निलंबित कर दिया जाए ,यह इस बात का भी प्रतीक है कि असहमति के सुरों को नहीं उठने दिया जाए।यही नहीं, मौजूदा जनप्रतिनिधि संसद के विराट पुस्तकालय का लाभ भी नहीं उठाते। संसार के तमाम देशों की शासन प्रणालियों से संबंधित दुर्लभ किताबें वहां हैं, लेकिन वर्षों से उनके पन्ने नहीं खुले।
 

संसद के सुचारु संचालन में सभी सियासी पार्टियों की भूमिका होती है। चूंकि सरकार उस पार्टी की होती है, जिसे मतदाताओं ने बहुमत से चुना होता है। इसलिए उसका दायित्व बढ़ जाता है। सत्ताधारी दल को दोनों सदनों में ऐसा वातावरण तैयार करना होता है, जिससे अवरोध का सिलसिला रुके और गुणवत्तापूर्ण चर्चाएं हो सकें।

Web Title: the shrinking role of Parliament year after year

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