गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: नेताओं के दांव-पेंच सब जनता देख रही है!
By गिरीश्वर मिश्र | Updated: May 11, 2024 07:14 IST2024-05-11T07:13:41+5:302024-05-11T07:14:52+5:30
तेज गर्मी और लू के मौसम में महीने भर से कुछ ज्यादा चलने वाले गणतंत्र के इस लोक-उत्सव में राजनैतिक पार्टियों को बीच-बीच में सांस लेने का अवसर मिल पा रहा है यह कुछ राहत की बात है.

प्रतीकात्मक तस्वीर
इस बार देश में चल रहा चुनावी महाभारत कुछ ज्यादा ही लंबा खिंच रहा है और कई महारथी पसोपेश में पड़ते दिख रहे हैं. सेनापतियों पर शामत आ रही है कि वे अपनी-अपनी सेना को कैसे संभालें? तेज गर्मी और लू के मौसम में महीने भर से कुछ ज्यादा चलने वाले गणतंत्र के इस लोक-उत्सव में राजनैतिक पार्टियों को बीच-बीच में सांस लेने का अवसर मिल पा रहा है यह कुछ राहत की बात है.
पर ‘स्टेमिना’ बनाए रखने के लिए जरूरी राजनैतिक दांवपेंच कम पड़ रहे हैं और कई दलों की तैयारी कुछ ढीली पड़ती नजर आ रही है. चूंकि बहुत से नेता ऊपर से थोपे हुए हैं, उनकी जन-रुचि बेहद सतही होती है और उनके खोखले हो रहे जन-लगाव की पोल जल्दी ही खुलती जाती है. ऐसे में नेताओं में थोड़ी देर के लिए ही सही, सार्थक प्रयोजन खोजने का दबाव और बेचैनी बढ़ती जा रही है.
इस प्रयास में वे तथ्यों को तोड़मोड़ कर और इतिहास की यथेच्छ प्रस्तुति और व्याख्या करने में जुट जाते हैं. अपने सामने वाले को पटखनी देने, कमजोर साबित करने और वोट काटने के लिए नए-नए पैंतरे ढूंढ़ते रहना उनके लिए मजबूरी हो गई है.
नेताओं के भाषण सुनने पर यह बात साफ हो जाती है कि राजनीति की भाषा अटपटी होती जा रही है. सामाजिक, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर सार्थक बहस की जगह नेता को जिताने और उसके एवज में कुछ लाभ देने तक सारी बातचीत चुक जाती है.
आपसी असहिष्णुता बढ़ रही है और एक-दूसरे के प्रति आदर और सम्मान की जगह अपमानजनक और चिढ़ाने वाली भाषा के उपयोग की ओर नेताओं का रुझान बढ़ रहा है. आए दिन चुनावी हिंसा की वारदात भी सुर्खियों में होती है. चुनाव के दौरान होने वाली घटनाओं के जरिये जो इतिहास बन रहा है वह भी अपना अतिरिक्त असर डाल रहा है. लोग एक पार्टी छोड़ दूसरी पार्टी का दामन पकड़ रहे हैं और टिकट बटोर रहे हैं.
जनता को नासमझ मान नेतागण अपनी ओर से सिखाने-पढ़ाने की हरसंभव कोशिश करते हैं. उनकी बेतुकी बातचीत और हरकतें आम आदमी को दुखी भी करती हैं. नेताओं के विचारों, नीतियों और आचरणों में आपसी संगति को खोजना मुश्किल हो रहा है. जैसे-जैसे राजनीतिक मंच पर लगा पर्दा सरक रहा है, एक-एक कर अजीबोगरीब दृश्य सामने आ रहे हैं. अब सीट कब्जाने का कोई सीधा गणित नहीं रहा.
जनतंत्र का जन तो जनता के पास है पर तंत्र राजनेताओं के पास जा चुका है. वे तंत्र का उपयोग कर जन पर वशीकरण मंत्र चलाने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं. जनता कभी चकित दिखती है तो कभी मुग्ध, पर शायद धोखे में पड़ना अब जनता की मजबूरी नहीं रहेगी. जनता सब कुछ गौर से देख रही है.