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ओबीसी के लिए जाति आधारित जनगणना जरूरी, फिरदौस मिर्जा का ब्लॉग

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: March 31, 2021 13:27 IST

उच्चतम न्यायालय ने कहा कि महाराष्ट्र में संबंधित स्थानीय निकायों में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं ओबीसी के लिए आरक्षित कुल सीटों के 50 फीसदी से अधिक नहीं हो सकता.

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ठळक मुद्देराज्य चुनाव आयोग द्वारा वर्ष 2018 और 2020 में जारी अधिसूचनाओं को रद्द कर दिया.1961 अधिनियम के भाग 12 (2)(सी) की वैधता को दी गई चुनौती नकारात्मक है.आरक्षण की सीमा एससी, एसटी एवं ओबीसी को दी जाने वाली कुल आरक्षित सीटों के 50 फीसदी से अधिक नहीं हो.

पिछले दिनों 4 मार्च, 2021 को सुनाए गए एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने 5 जिला परिषदों के 86 सदस्यों के चुनावों को अमान्य कर वहां सीटों को रिक्त घोषित किया और कहा कि उन्हें जनरल/ओपन वर्ग से भरने के लिए तत्काल चुनाव कराए जाएं.

अगर राज्यों द्वारा कोई सक्रिय कदम नहीं उठाया गया तो यह निर्णय सभी स्थानीय निकायों यानी ग्राम पंचायत से जिला परिषद और नगर पंचायत से नगर निगम तक ओबीसी आरक्षण को हटाने की शुरुआत साबित हो सकता है. अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षण की मांग नई नहीं है, लेकिन एससी और एसटी के तहत जिस तरह से जातियों और जनजातियों की पहचान की गई थी, उस तरह से उन वर्गों के बारे में कोई अध्ययन नहीं किया गया था, जिन्हें पिछड़ा वर्ग कहा जा सके.

इसलिए काका कालेलकर आयोग को नियुक्त किया गया था, जिसने 1955 में एक रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें 2399 जातियों की पिछड़ा वर्ग के रूप में पहचान की गई थी, लेकिन यह रिपोर्ट केंद्र सरकार द्वारा स्वीकार नहीं की गई. इसके बाद 1 जनवरी 1979 को बी. पी. मंडल आयोग नियुक्त किया गया जिसने 31 दिसंबर 1980 को एक रिपोर्ट प्रस्तुत की. अध्ययन 1961 की भारत की जनगणना पर आधारित था और इसमें 3743 जातियों की पिछड़े वर्ग के रूप में पहचान की गई. इस रिपोर्ट को केंद्र सरकार ने स्वीकार कर लिया और 7 अगस्त 1990 से शिक्षा और सेवाओं में 27 प्रतिशत आरक्षण दिया गया.

मंडल आयोग की रिपोर्ट मंजूर किए जाने के बाद इसका देशव्यापी विरोध हुआ और कई याचिकाएं दायर की गईं. अंत में, 9 जजों वाली सुप्रीम कोर्ट की एक बड़ी बेंच ने ओबीसी को आरक्षण देने के पक्ष में नीति की वैधता को सही ठहराया. यह निर्णय इंद्रा साहनी के मामले में दिया गया, जिसे लोकप्रिय तौर पर मंडल फैसले के रूप में जाना जाता है.

73 वें संशोधन द्वारा, 1992 में भारत के संविधान ने ओबीसी के लिए स्थानीय निकायों में सीटों के आरक्षण के लिए कोई प्रावधान करने के लिए राज्य विधानमंडलों को सशक्त बनाया. तदनुसार महाराष्ट्र सहित विभिन्न राज्यों ने 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया. इन कानूनों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई और 11 मई 2010 को 5 जजों की बेंच ने कुछ प्रतिबंधों के साथ ओबीसी आरक्षण की नीति को मंजूरी दे दी कि (1) कुल आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए. (2) आरक्षण नीति की समय-समय पर समीक्षा की जानी चाहिए और (3) इस उद्देश्य के लिए पिछड़े वर्गो की विशिष्ट पहचान बनाई जाए.

सबसे महत्वपूर्ण बात सुप्रीम कोर्ट ने यह कही  कि ‘‘सामाजिक और आर्थिक पिछड़ापन जरूरी नहीं कि राजनीतिक पिछड़ेपन के साथ मेल खाता हो. ऐसा इसलिए है क्योंकि राजनीतिक भागीदारी के लिए बाधाएं उसी तरह की नहीं हैं, जो बाधाएं शिक्षा और रोजगार तक पहुंच को सीमित करती हैं. यह स्थानीय स्वशासन में आरक्षण के संबंध में नई सोच और नीति निर्माण के लिए प्रेरित करता है.’’

सुप्रीम कोर्ट के शब्दों में, ‘‘लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण का उद्देश्य न केवल शासन को लोगों के करीब लाना है, बल्कि समाज के कमजोर वर्गो के लिए इसे अधिक भागीदारीयुक्त, समावेशी और जवाबदेह बनाना भी है. इस अर्थ में, स्थानीय स्वशासन में आरक्षण का उद्देश्य केवल चुने हुए प्रतिनिधियों के बजाय समुदाय को सीधे लाभ पहुंचाना है.’’

जिला परिषद और पंचायत समितियों के लिए आम चुनाव 2019-20 में महाराष्ट्र में जब ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण दिया गया था, तो इसे भी चुनौती दी गई थी क्योंकि कुल आरक्षण 50 प्रतिशत की सीमा से अधिक था. सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि 2010 के बाद से महाराष्ट्र ने राजनीतिक रूप से पिछड़े वर्गो के बारे में डाटा एकत्र करने के लिए कोई भी आयोग गठित नहीं किया है और इसलिए, ऐसे सभी चुनावों को अवैध घोषित कर दिया.

भारत एक लोकतांत्रिक देश है, जहां स्थानीय निकायों के लिए चुनाव एक सतत प्रक्रिया है. लेकिन हाल के फैसले के आलोक में ओबीसी के लिए आरक्षण देना बहुत मुश्किल होगा जब तक कि डाटा के संग्रह और राजनीतिक पिछड़ों की पहचान के बारे में फैसले का अनुपालन न हो.

सुनवाई के दौरान महाराष्ट्र राज्य ने एक हलफनामा दायर किया, जिसमें कहा गया कि पिछड़े वर्ग की श्रेणी के बारे में जनसंख्या का वर्गीकृत डाटा केवल केंद्र सरकार के पास उपलब्ध है, लेकिन सामाजिक-आर्थिक जनगणना 2007 के उक्त डाटा को राज्यों के साथ साझा नहीं किया गया है और जब तक ऐसा नहीं किया जाता है, राज्य कोई नीति नहीं बना सकते हैं. राज्य सरकार ने इस डाटा को साझा किए जाने का अनुरोध किया. खबरों के अनुसार हाल ही में गृह राज्य मंत्री ने संसद को बताया कि 2021 में जाति आधारित जनगणना नहीं होगी.

यह स्थिति हमें एक बहुत ही दिलचस्प बिंदु पर लाती है जिसमें न्यायालय राज्यों को यह अनुमति नहीं दे रहे हैं कि वे पिछड़ेपन के बारे में विशिष्ट आंकड़ों के अभाव में ओबीसी के पक्ष में आरक्षण का प्रावधान करें और दूसरी ओर केंद्र सरकार जाति आधारित जनगणना करवाकर इस डाटा को एकत्र करने के लिए तैयार नहीं है.

इसका अंतिम परिणाम पिछड़े वर्गों और पूरे पिछड़े समुदाय के लिए राजनीतिक आरक्षण खोने का अपूरणीय नुकसान है. अगर राज्य पिछड़े वर्गो को समान अवसर प्रदान करने के लिए गंभीर हैं और वास्तव में उन्हें स्थानीय निकायों में प्रतिनिधित्व देना चाहते हैं तो उन्हें जाति आधारित जनगणना की मांग को तेज करने और साथ ही राजनीतिक रूप से पिछड़े वर्गो की पहचान करने के लिए आयोग की नियुक्ति करने की जरूरत है.

टॅग्स :सुप्रीम कोर्टमहाराष्ट्रचुनाव आयोग
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