SCO Summit in Islamabad: रिश्तों की बर्फ का जमना और पिघलना?
By विजय दर्डा | Updated: October 21, 2024 03:14 IST2024-10-21T03:12:25+5:302024-10-21T03:14:24+5:30
SCO Summit in Islamabad: पिछले साल गोवा में हुई एससीओ की बैठक याद आ रही थी जिसमें बिलावल भुट्टो भाग लेने आए थे और भयंकर तनातनी की स्थिति थी.

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SCO Summit in Islamabad: पाकिस्तानी हुक्मरान यह मानकर चल रहे थे कि एससीओ यानी शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन की बैठक में भारत अपने नुमाइंदे तो भेजेगा लेकिन यह उम्मीद किसी को नहीं थी कि वहां भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर खुद भाग लेने पहुंचेंगे. यही कारण है कि पाकिस्तान की पूर्व विदेश मंत्री हिना रब्बानी खान ने तत्काल कहा- ‘स्मार्ट मूव!’ भारतीय विदेश मंत्री के स्वागत में पाकिस्तान ने कोई कोर- कसर बाकी नहीं रखी. मुझे पिछले साल गोवा में हुई एससीओ की बैठक याद आ रही थी जिसमें बिलावल भुट्टो भाग लेने आए थे और भयंकर तनातनी की स्थिति थी.
उसकी शुरुआत भी भुट्टो ने ही की थी. लेकिन जयशंकर की बात बिल्कुल अलग है. वे मंजे हुए कूटनीतिज्ञ और प्रभावी विदेश मंत्री हैं. उन्होंने इस्लामाबाद में अपनी बात तो बहुत प्रमुखता से रखी लेकिन पाकिस्तान पर कोई प्रहार नहीं किया. पाक के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ का सुर भी बेहद नरम था. उन्होंने ऐसी कोई बात नहीं की जिससे भारत आहत होता.
यहां तक कि राग कश्मीर भी नहीं छेड़ा. कुल मिलाकर माहौल बिल्कुल सद्भावनापूर्ण रहा. सामान्य तौर पर किसी देश के प्रधानमंत्री दूसरे देश के अपने समकक्ष से ही मिलते हैं या स्वागत करते हैं लेकिन शहबाज तो जयशंकर से आगे बढ़कर मिले भी और उनका स्वागत भी किया. यही कारण है कि भारत लौटने के बाद जयशंकर ने खुद की खातिरदारी के लिए शहबाज को सोशल मीडिया पर शुक्रिया कहा.
शहबाज ने भी उन्हें पाकिस्तान आने के लिए शुक्रिया कहा. बैठक के अलावा सामान्य शिष्टाचार की जो तस्वीरें मैंने देखी हैं, उनसे भी माहौल के बेहतर होने के संकेत मिलते हैं. लंच के दौरान पाकिस्तान के विदेश मंत्री उनके साथ बैठे थे और दोनों के बीच खुशनुमा माहौल में बातचीत भी हो रही थी. लंच के मौके पर शहबाज से भी जयशंकर की बात हुई.
आपको याद दिला दें कि हाल ही में संयुक्त राष्ट्र महासभा की न्यूयॉर्क में हुई बैठक में जयशंकर और शहबाज एक-दूसरे पर खूब गरजे थे. तो व्यवहार में इस बदलाव को क्या बेहतर संकेत माना जा सकता है? मुझे लगता है कि दुश्मनी चाहे कितनी भी लंबी चले, वह स्थायी नहीं होती. दो पड़ोसी यदि मिलकर रहें तो दोनों को ही फायदा होता है.
आर्थिक कठिनाइयों के लंबे दौर से गुजर रहे पाकिस्तान को भी अपनी स्थिति का अंदाजा है. उसका फायदा इसी में है कि वह हकीकत को स्वीकार करे और अपने लोगों की जिंदगी को बेहतर बनाने की कोशिश करे. हम भारतीय या आम पाकिस्तानी अवाम तो बेहतर रिश्तों के लिए लालायित हैं लेकिन असली समस्या आईएसआई और वहां की सेना है जिसकी बुनियाद ही भारत विरोध पर टिकी है.
भारत से रिश्ते सुधारने की कोशिश करने वाले इमरान खान की हालत इस बात की गवाह है. इसलिए मुझे रिश्तों की बर्फ पिघलने की उम्मीद की किरणें फिलहाल बहुत उत्साहित नहीं कर रही हैं. दोनों मुल्कों को और गर्मजोशी पैदा करनी होगी.
अब चलिए चर्चा करते हैं कनाडा-भारत के रिश्तों में जमी नई बर्फ के सख्त होते जाने की. कनाडा हमारा पड़ोसी तो नहीं है लेकिन उसे मैं पड़ोसी से कम नहीं मानता क्योंकि भारतीय मूल के 18 लाख लोग वहां के नागरिक हैं. 10 लाख भारतीय वहां रह रहे हैं और सवा दो लाख से ज्यादा भारतीय विद्यार्थी वहां पढ़ रहे हैं.
ऐसे देश के साथ रिश्ते खराब होना दोनों के लिए ही गंभीर परिणाम पैदा करने वाला है लेकिन दुर्भाग्य यह है कि वहां के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो को अपनी राजनीति के चक्कर में यह बात समझ में नहीं आ रही है. भारत के प्रति ट्रूडो के जहरीले रवैये को लेकर अपने इस कॉलम में मैंने उस वक्त भी लिखा था जब खालिस्तानी आतंकवादी निज्जर को किसी ने कनाडा में मार डाला था.
ट्रूडो ने भारत सरकार पर आरोप मढ़ दिया था. ट्रूडो अपने पिता पियरे ट्रूडो की राह पर चल रहे हैं. 1985 में कनिष्क विमान धमाके में 329 लोगों का हत्यारा खालिस्तानी आतंकी तलविंदर सिंह परमार कनाडा में छिपा था. भारत ने तलविंदर सिंह को उसके हवाले करने की मांग की लेकिन पियरे ट्रूडो ने टका सा जवाब दे दिया. तब से कनाडा खालिस्तान का सपना देखने वाले आतंकवादियों का गढ़ बन चुका है.
खालिस्तानी आतंकी वहां खुलेआम अपनी गतिविधियां चलाते हैं. भारत के खिलाफ षड्यंत्र रचते हैं और ट्रूडो इसमें सहभागी हैं. भारत के खिलाफ षड्यंत्र रचने वाला यदि कोई आतंकी मारा जाता है तो मारा जाए लेकिन यह मैं जरूर कहना चाहूंगा कि हम भारतीयों की नीति किसी की संप्रभुता को चोट पहुंचाने वाली नहीं होती है. ट्रूडो का आरोप पूरी तरह बेबुनियाद है.
भारतीय राजनयिक पर उंगली उठाकर उन्होंने कूटनीतिक नियमों का उल्लंघन किया है. ऐसे में भारत को अपने राजनयिकों को वापस बुलाना पड़ा. जैसे को तैसा वाले व्यवहार के तहत हमने भी उनके 6 राजनयिक निकाल दिए. यह कोई सामान्य घटना नहीं है. मेरे मन में यह सवाल भी पैदा हो रहा है कि कनाडा जो व्यवहार कर रहा है,
वह अगले साल होने वाले चुनाव के लिए कर रहा है या बगल से कुछ इशारे आ रहे हैं जिसकी भाषा ट्रूडो बोल रहे हैं? यह सवाल इसलिए क्योंकि कनाडा के लोग ही ट्रूडो के रवैये की आलोचना भी कर रहे हैं. सवाल यह भी है कि खालिस्तानी आतंकी गुरपतवंत सिंह पन्नू की हत्या की साजिश में भारत पर अमेरिका उंगली क्यों उठा रहा है? क्या भारत को दबाव में लाने की साजिश है यह?
बहरहाल, कनाडा से रिश्तों में भीषण दरार का असर व्यापार और व्यवसाय पर कितना होगा, यह कहना जल्दबाजी होगी लेकिन इतना तय है कि रिश्ते जितने खराब होंगे, भारतीय माता-पिता पढ़ाई के लिए अपने बच्चों को कनाडा भेजने में उतनी ही सतर्कता बरतेंगे. मेरा मानना है कि रिश्तों में जमी इस बर्फ से ज्यादा कंपकंपी कनाडा को ही होनी है.