ब्लॉग: रूस, चीन और भारत- तीन बड़े देशों के आपसी संबंधों की हिचक

By राजेश बादल | Published: April 12, 2023 07:27 AM2023-04-12T07:27:48+5:302023-04-12T07:27:48+5:30

आज के दौर में दुनिया में सौ फीसदी भरोसे वाली कोई स्थिति कूटनीति में नहीं बन सकती. इसलिए चीन पर भी रूस पूरी तरह यकीन नहीं करेगा. वह भारत पर भरोसा कर सकता है, लेकिन चीन पर नहीं. इतिहास भी इसका गवाह है.

Russia, China and India - the reluctance of relations between the three big countries | ब्लॉग: रूस, चीन और भारत- तीन बड़े देशों के आपसी संबंधों की हिचक

ब्लॉग: रूस, चीन और भारत- तीन बड़े देशों के आपसी संबंधों की हिचक

भारत, चीन और रूस. तीन बड़े एशियाई देश. साम्यवाद छोड़कर अधिनायकवादी रास्ते पर चल रहे चीन और रूस इन दिनों पश्चिम और यूरोप से कमोबेश सीधे-सीधे टकराव की मुद्रा में हैं. भारत वैसे तो यूक्रेन के साथ रूस की जंग में इन दोनों राष्ट्रों के साथ खड़ा नजर आता है लेकिन उसकी अपनी कुछ सीमाएं भी हैं इसलिए एशिया की यह तीन बड़ी ताकतें एक मंच पर एकसाथ अपनी-अपनी हिचक या द्वंद्व के साथ उपस्थित हैं. इस हिचक के कारण ऐतिहासिक हैं और अफसोस है कि उन कारणों पर तीनों मुल्क गंभीरता से विचार नहीं करना चाहते. 

इसका असर रूस और चीन की सेहत पर अधिक नहीं पड़ रहा है, पर भारत के लिए यह चिंता में डालने वाली वजह हो सकती है. एक तो भारत का लोकतांत्रिक स्वरूप और दूसरा विकास की धीमी रफ्तार. कोई नहीं कह सकता कि हिंदुस्तान में वह समय कब आएगा जब वह रूस और चीन के साथ विकास तथा तकनीक में कंधे से कंधा मिलाकर साथ चल सकेगा?

जहां तक भारत और चीन की बात है तो उसमें कुछ भी रहस्यमय नहीं है. अंग्रजों की ओर से निर्धारित सीमा संबंधी मैकमोहन लाइन के बाद 1959 से जो विवाद शुरू हुआ है, वह अभी तक जारी है. चीन उसे मानने के लिए तैयार नहीं है. अपने पक्ष में हरदम उसने बहाने ही बनाए हैं. चाहे तिब्बत या अरुणाचल का मामला हो अथवा भूटान, म्यांमार या नेपाल से सटी सीमा पर तनाव की स्थिति हो. असल में सन बासठ में हुई जंग ने अविश्वास के इतने गहरे बीज बो दिए हैं कि वे सदियों तक बने रहेंगे और भारत को दुःख पहुंचाते रहेंगे. 

चीन की विस्तारवादी नीति शांति के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा है. इसके अलावा भारत पर तीन बार युद्ध थोपने वाले पाकिस्तान को उसका खुला समर्थन है. पाकिस्तान ने अवैध कब्जे वाले कश्मीर का एक बड़ा इलाका चीन को उपहार में सौंप दिया था. चीन भारत के साथ सीमा विवाद सुलझाना नहीं चाहता, वह इस पर कोई उदार रवैया भी नहीं अपनाना चाहता. इन कारणों के अलावा भी भारत की रूस-यूक्रेन जंग में चीन के साथ खड़े होने की अपनी हिचक है. रूस 1971 में भारत और पाकिस्तान के युद्ध में खुलकर भारत के साथ आया था. चीन तब पाकिस्तान के पाले में था. 

इसके अलावा एशिया की दोनों बड़ी ताकतों से बैर करके वह नहीं चल पाएगा. अमेरिका व्यापारी देश है. बीते सत्तर साल में उसने भारत की कभी खुलकर मदद नहीं की है. जहां उसका स्वार्थ आड़े आया है ,वहीं वह भारत के साथ दिखाई दिया है. भारत यह अपेक्षा तो कर ही सकता है कि भविष्य में यदि चीन के साथ किसी बड़े युद्ध की स्थिति बनती है तो रूस बीच-बचाव के लिए आगे आ सकता है. मौजूदा जंग में भारत यदि रूस के पक्ष में संग खड़ा नजर आया है तो उसके पीछे विशुद्ध भारतीय हित हैं, न कि लोकतंत्र की नैतिकता.

चीन की भी भारत और रूस के साथ अपनी हिचक है. भारत के अमेरिका के साथ मौजूदा रिश्ते उतने तनावपूर्ण नहीं हैं, जितने चीन के हैं. यह बात चीन को खलती है लेकिन एशिया में वह भारत की उपेक्षा करके भी नहीं चल सकता. वह भारत के साथ रिश्तों में ईमानदार नहीं है, लेकिन चाहता है कि भारत उसके साथ एकतरफा व्यापार करता रहे. आज भी भारत में उसके निर्यात का आकार, आयात से कई गुना बड़ा है. उसके वित्तीय हित सधते हैं क्योंकि लगभग डेढ़ सौ करोड़ की आबादी वाले देश का बाजार वह यूं ही नहीं छोड़ सकता इसलिए पाकिस्तान का साथ देकर वह भारत को सिर्फ असहज तथा परेशान रखना चाहता है. 

इसी तरह वह रूस का भी सौ फीसदी खरा दोस्त नहीं है. भले ही एक जमाने में रूस ने उसे साम्यवाद की परिभाषा सिखाई हो और जापान के हमले के समय अपनी वायुसेना मदद के लिए भेजी हो. वह रूस से जमीन के लिए जंग भी लड़ चुका है. वर्तमान में वह अमेरिका और उसके समर्थक देशों के खिलाफ तो रूस के साथ आ सकता है, मगर रूस एशिया का चौधरी बन बैठे, यह वह कभी नहीं चाहेगा. यह चीन की बड़ी दुविधा है. 

एक तर्क यह भी है कि दो अधिनायक आम तौर पर एक मंच पर तभी साथ आते हैं, जबकि परदे के पीछे कुछ सौदेबाजी हो चुकी हो. दूसरा, दुश्मन का दुश्मन दोस्त वाली कहावत भी यहां लागू होती है. कह सकते हैं कि जंग के कारण चीन और रूस एक अस्थायी अनुबंध में बंधे नजर आते हैं. जंग समाप्त होने के बाद यह नजदीकी बनी रहेगी, नहीं कहा जा सकता. एशिया में चौधराहट की होड़ नहीं शुरू हो जाएगी, इसकी क्या गारंटी है? इसके अलावा रूस चीन के हाथों आधी सदी पहले हुए युद्ध को कैसे भूल सकता है, जिसमें उसे अपनी काफी जमीन गंवानी पड़ी थी. 

इस हिसाब से भारत और रूस दोनों ही चीन की विस्तारवादी नीति से पीड़ित हैं. संदर्भ के तौर पर बता दूं कि चीन से बेहद तनाव के चलते ही रूस ने भारत से उस दौर में एक रक्षा संधि भी की थी. अनुभव तो यह भी कहता है कि रूस और अमेरिका शाश्वत प्रतिद्वंद्वी हैं. वे शायद ही कभी एक साथ एक मंच पर गलबहियां डाले दिखाई दिए होंगे. मगर चीन और अमेरिका के बीच ऐसा नहीं है. समय- समय पर दोनों देश एक-दूसरे से पींगें बढ़ाते रहे हैं. दोनों ही चतुर व्यापारी हैं. 

वैसे तो आज के विश्व में सौ फीसदी भरोसे वाली कोई स्थिति कूटनीति में नहीं बनती इसलिए चीन पर भी रूस यकीन नहीं करेगा. वह भारत पर भरोसा कर सकता है, लेकिन चीन पर नहीं. यह भी रूस की एक हिचक मानी जा सकती है. अपने-अपने संदेहों को जिंदा रखकर भरोसे के मंच पर तीनों देश कैसे एक साथ खड़े हो सकते हैं?

Web Title: Russia, China and India - the reluctance of relations between the three big countries

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