Rangeya Raghav: हिंदी-साहित्य का राजहंस, 23 साल की उम्र में उपन्यास 'घरौंदा', जानें कौन थे रांगेय राघव?

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: September 12, 2024 13:44 IST2024-09-12T13:43:42+5:302024-09-12T13:44:51+5:30

Rangeya Raghav: मात्र 39 वर्ष की अल्पायु में ही हिन्दी-साहित्य-जगत को 150 से अधिक पुस्तकों का सृजन कर आश्चर्य चकित कर दिया। 

Rangeya Raghav punyatithi 12 sep 1962 Flamingo of Hindi Literature jayanti 17 jan 1948 | Rangeya Raghav: हिंदी-साहित्य का राजहंस, 23 साल की उम्र में उपन्यास 'घरौंदा', जानें कौन थे रांगेय राघव?

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Highlights17 जनवरी सन 1923 ई. को राजस्थान के भरतपुर जिलान्तर्गत कस्बा वैर में रांगेय राघव का जन्म हुआ। सन 1943 में एमए हिन्दी तथा सन 1948 में "गोरखनाथ और इनका युग" विषय पर पीएचडी की। नाटक, रिपोर्ताज़ आदि का लेखन किया किन्तु लेखन का प्रारम्भ एक कवि के रूप में ही किया।

डॉ. धर्मराज सिंह

हिन्दी साहित्य के दिव्य धरातल पर जिसकी आभा के आगे बड़े से बड़े धूमकेतु व ध्रुव जैसे नक्षत्रों का प्रकाश बेदम व बेहद कमजोर नजर आता है, जिसके हाथ की तर्जनी में फंस कलम की स्याही अपने सूखने का इंतजार करे, जिसके प्रवाह के आगे नदियों का बहाव ठहरा-सा प्रतीत हो, जिसकी सांस-सांस साहित्य को समर्पित हो, ऐसे सहज, सरल व सहृदयी व्यक्तित्व का नाम है- तिरुमल्ले निबाक्कम वीर राघव वाताचार्य अर्थात डॉ रांगेय राघव, जिन्होंने मात्र 39 वर्ष की अल्पायु में ही हिन्दी-साहित्य-जगत को 150 से अधिक पुस्तकों का सृजन कर आश्चर्य चकित कर दिया। 

17 जनवरी सन 1923 ई. को राजस्थान के भरतपुर जिलान्तर्गत कस्बा वैर में रांगेय राघव का जन्म हुआ। आगरा के सेण्ट जॉन्स कॉलेज से दर्शनशास्त्र तथा अर्थशास्त्र में स्नातक किया, सन 1943 में एमए हिन्दी तथा सन 1948 में "गोरखनाथ और इनका युग" विषय पर पीएचडी की। डॉ रांगेय राघव हिन्दी साहित्य के उन लब्ध-प्रतिष्ठित व बहुमुखी प्रतिभाशाली रचनाकारों में गिने जाते हैं, जो कम समय में ही साहित्य-जगत को विपुल साहित्य देकर गए, उन्होंने उपन्यास, कविता, कहानी, निबन्ध, आलोचना, नाटक, रिपोर्ताज़ आदि का लेखन किया किन्तु लेखन का प्रारम्भ एक कवि के रूप में ही किया।

ग्रामीण तथा कस्बाई परिवेश की परछाइयों ने उनकी रचना-कर्म में नये-नये प्रतिमानों व उपमानों को समाहित कर दिया। उनकी सृजन-शक्ति हिंन्दी-साहित्य-जगत में जब धरातल तलाश कर रही थी, तब देश स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत था तथा अनेक साहित्यकार अपनी लेखनी से प्रभावित कर रहे थे, ऐसे वातावरण में प्रगतिशीलता का अनुगमन करते हुए स्वतंत्रता का संकल्प कविताओं के माध्यम से आमजन तक डॉ रांगेय राघव ने पहुँचाया लेकिन उन्हें प्रतिष्ठा गद्य साहित्य में मिली।

उपन्यास, कहानी, कविता रिपोर्ताज सहित अनेक विधाओं पर समान अधिकार से लिखने वाले रांगेय राघव में न केवल अपने समय व समाज की गहरी समझ थी अपितु भविष्य के प्रति सजगता, सहजता व समदृष्टि, उनके लिखे साहित्य में देखने को मिलती है। मात्र 23 वर्ष की आयु में उनका, पहला उपन्यास 'घरौंदा' प्रकाशित हुआ।

इस उपन्यास की विषयवस्तु कॉलेज के इर्द-गिर्द की है, जहाँ गाँव का एक मेघावी छात्र भगवती शहर के एक इण्टर कॉलेज में प्रवेश लेता है और वहाँ की स्थिति से सामना करता है। गाँव व शहर के बीच के द्वंद्वों को उन्होंने अपनी रचनाओं में बड़ी संजीदगी के साथ सफल रूप से उकेरा है। इसके स्रौत भी इस उपन्यास में देखने को मिलते हैं।

एक सन्दर्भ में वे लिखते हैं, शहर में रूप होता है, साम्राज्यों का, वैभव उनकी उच्च अट्टालिकाओं में छिपा होता है लेकिन नीचे तीव्र अन्धकार कोनों में गुर्रया करता है। वृद्ध अपने जीवन से बेजार हो जाते हैं, औरतों की छाती नाज करने से पहले ही ढल जाती है और बच्चे गन्दे, घिनोनी-सी राह पर कुत्तों के साथ खैला करते हैं।

सुगठित कथावस्तु, प्रभावपूर्ण भाषा, सत्तावर्ग के प्रति तीक्ष्ण आलौचना, स्त्रीपात्र के प्रति सहानुभूति तथा निर्बल-वर्ग के प्रति स्पष्ट पक्षधरता के कारण उनके उपन्यास आज भी प्रासंगिक हैं । उनके सबसे चर्चित उपन्यास 'कब तक पुकारूँ' व कहानी 'गदल' के कथानक सामाजिक विसं॑गतियों व विद्रपताओं को रेखांकित करते हुए लैंगिक असमानता व वर्ण-व्यवस्था पर तीखे प्रहार करते हुए दिखते हैं।

आदिम जनजाति की जीवन शैली, जीवन-मूल्य, सामाजिक उत्पीड़न तथा बदलते सामाजिक व राजनीतिक परिवेश के रांगेय राघव बड़ी शिद्दत से चित्रित किया है। एक और चर्चित उपन्यास 'धरती मेरा घर' में गड़िया लोहारों की घुमन्तू विवशता व संवेदनाओं को इतनी संजीदगी से उकेरा है कि उपन्यास में पात्र बोलते हुए से लगते हैं, साथ ही उनके स्त्री पात्र आधुनिक स्त्री की स्वतंत्रता के उद्घोष से मेल खाते हैं, वे अन्तरजातीय विवाह के पक्षधर थे इसलिए प्रेम-विवाह के सन्दर्भ में स्पष्ट लिखते हैं, “यह बुराई नहीं है, यह जात-पात सब आदमी के बनाए बन्धन हैं।”

उपन्यास 'पतझर' में डॉ रांगेय राघव एक मनोविश्लैषक की तरह प्रश्न खड़े करते हैं और यांत्रिक तरीके से समाधान खोजने के स्थान पर समाजशास्त्रीय रूप में गहन विवेचना करते हुए अन्तरज़ातीय विवाह के पक्ष में अपना पक्ष रखते हैं। डॉ रांगेय राघव ने अंग्रेजी भाषा के प्रख्यात साहित्यकार शेक्सपीयर के नाटकों का हिन्दी में अनुवाद करके हिन्दी-साहित्य-जगत को समृद्ध किया।

शेक्सप्रीयर के दुखांत नाटक हेमलेट, ऑथोलो और मेकबेथ का ज़िस खूबी के साथ अनुवाद किया है, लगता ही नहीं अनुवाद है अपितु लेखक की मूल कृति-सी प्रतीत होती है, यही कारण है कि उन्हें हिन्दी साहित्य का शेक्सपीयर भी कहा जाता है। एक रचनाकार के रूप में उनकी बहु-आयामिकता और विषय के विवेचन की अदभुत क्षमता के पीछे उनका विराट अध्ययन था।

वे न केवल हिन्दी, संस्कृत, तमिल, अंग्रेजी व बृज भाषा के प्रकाण्ड विद्वान थे अपितु इतिहास, दर्शनशास्त्र, राजीनीति, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र आदि के भी गहन अध्येता थे, उन्होंने मायकोवस्की, चौसर, होमर, यूरिपोडिज, राबर्ट लुई, स्टीवेंसन और लाओत्सु जैसे प्रकाण्ड, विद्वानों पर गजब का लिखा है लेकिन वे अप्रकाशित  ही रह गई, तो समाजशास्त्र, इतिहास, दर्शनशास्त्र जैसे विषयों पर भी- अधिकारपूर्वक लिखा। प्रसिद्ध उपन्यास “मुर्दों का टीला' मोहन जोदड़ो सभ्यता पर लिखा, जिसमें उस समय के .. जनजीवन व रहन-सहन के सम्बन्ध में नवीन प्रस्थापनाएं दीं।

इसके अलावा हिन्दी में रिपोर्ताज विधा में लेखन करने वाले वे पहले लेखक हैं, जिन्होंने 'तूफानों के बीच' लिखकर बंगाल के अकाल की सही तस्वीर' प्रस्तुत की। सन 1950 के उपरांत उन्होंने जीवन प्रधान उपन्यास लिखे, जिनमें 'भारती का सपूत', 'भारतेंदु हरिश्चंद्र', 'लखिमा की आंखें- विद्यापति', 'मेरी भव बाधा हरो-बिहारी', 'रत्ना की बात-तुलसी', 'लोई का ताना-कबीर', 'धूनी का धुआँ-गोरखनाथ', 'देवकी का बेटा-कृष्ण' आदि पर लिखकर अपनी समझ व सरोकारों से साहित्य-जगत को अवगत कराया।

साम्राज्य का वैभव, देवदासी, समुद्र के फेन, अधूरी मूरत, जीवन के दाने, अंगारे न बुझे, अय्यास मुर्दे, इंसान पैदा हुआ, पाँच गधे, आदि कहानियाँ आज भी हिन्दी साहित्य के विद्यार्थियों को ही नहीं अपितु जन मानस को भी प्रेरित करती हैं। डॉ रांगेय राघव को शिल्पी कहें या शिल्पकार, शब्द-चितेरे कहें या, शब्द-मशीन, सोचने को विवश करता है क्योंकि मात्र 39 वर्ष के जीवन में लगभग 23 वर्ष के साहित्यिक योगदान में उन्होंने 42 उपन्यास, 11 कहानी संग्रह, 2 आलोचनात्मक ग्रन्थ, 8 कविता-संग्रह, 4 एतिहासिक, 6 समाजशास्त्र विषयक, 5 नाटक, लगभग 50 अनुदित पुस्तकें तथा 30 से अधिक पुस्तकें प्रकाशन की प्रतीक्षा में थी, यह सिद्ध करता हैं। वो कहते भी थे कि कविता-संग्रह के लिए. 50-60 कविताएँ तो एक रात में ही लिखी जा सकती हैं।

उनके कविता संग्रहों में अज्ञेय, खण्डहर, पिघलते पत्थर, मेधावी, राह के दीपक, पांचाली, रूपछाया आदि प्रमुखता के साथ लिए जा सकते हैं। बम्बइया चकारचौंध से भी डॉ रांगेय राघव प्रभावित हुए और बम्बई चले गए, जहाँ उन्होंने सन 1953 में सीता मैया, लंका-दहन फिल्मों की कहानी लिखी। शादी को साहित्य लेखन में वे शायद अवरोध मानते थे, यही कारण है कि शादी के प्रति अनुराग देखने को नहीं मिलता लेकिन सौन्दर्य प्रेमी थे इसलिए सुलोचना के साथ उन्होंने सन 1956 में शादी कर ली। सन 1960 में उनके घर बेटी सीमान्तनी का जन्म हुआ।

डॉ साहब सिगरेट बहुत अधिक पीते थे, शायद यही उनकी मृत्यु का कारण बनीं और 12 सितम्बर 1962 को "साहित्य का यह राज़हंस" ब्लड कैंसर से पीड़ित हो, हमें अकेला छोड़कर चला गया। मरणोपरान्त उन्हें महात्मा गांधी पुरस्कार से नवाजा गया। जीवन के सन्दर्भ में उनका नजरिया स्पष्ट था, इसलिए प्रायः वे गुनगुनाया करते थे-

'उधर तो सैयाद की जिद है कि चमन में कोई कदम न रखे 
इधर हैं अपने वो ही इरादे बनाएंगे गुलंशन में ही आशियाना।”
 

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