राजेश बादल का ब्लॉग: रिश्वत, ठेकों में कमीशन और जबरन उगाही अब व्यवस्था का जैसे स्थायी चरित्र ही बन गया है

By राजेश बादल | Updated: March 24, 2021 10:39 IST2021-03-24T10:33:22+5:302021-03-24T10:39:32+5:30

महाराष्ट्र में जिस तरह एक पुलिस अधिकारी ने राज्य के गृह मंत्री पर गंभीर आरोप लगाए हैं, उसने एक बार फिर हमारे सिस्टम में पैठ बना चुके भ्रष्टाचार की ओर इशारा किया है.

Rajesh Badal blog: Maharashtra bribery, commission and extortion in system | राजेश बादल का ब्लॉग: रिश्वत, ठेकों में कमीशन और जबरन उगाही अब व्यवस्था का जैसे स्थायी चरित्र ही बन गया है

सिस्टम में रिश्वत, उगाही की पैठ! (फाइल फोटो)

महाराष्ट्र के गृह मंत्री पर एक आला पुलिस अधिकारी का आरोप बेहद गंभीर है. यह सघन जांच की मांग करता है. लेकिन जिस तरह से राजनीतिक ड्रामा हुआ है, उससे दो बातें साफ हैं. एक तो यह कि मंत्री से उसकी अनबन है और वह उनकी छवि धूमिल करना चाहता है. 

दूसरा यह कि इन दिनों ब्यूरोक्रेसी सियासी खेमों में बंट गई है. हो सकता है कि उसका राजनीतिक इस्तेमाल किया जा रहा हो. इसी आधार पर इस मामले में निष्पक्ष बारीक अन्वेषण की जरूरत है. भारतीय पुलिस सेवा का एक वरिष्ठतम अफसर वसूली का मेल भेजकर खुलासा करता है तो यह साधारण घटना नहीं है. 

एक निर्वाचित जनप्रतिनिधि पर सौ करोड़ रुपए हर महीने एकत्रित करने का इल्जाम हल्के-फुल्के ढंग से नहीं लिया जा सकता. इससे यह भी संकेत मिलता है कि नीचे की मशीनरी हक से दो-ढाई सौ करोड़ की अवैध वसूली कर सकती है. उसमें से सौ करोड़ रु पए वह मंत्री को दे, बाकी आपस में बांट ले-जैसा कि हम लोग हिंदुस्तान के तमाम विभागों में देखते आए हैं. 

भारत में भ्रष्टाचार खत्म क्यों नहीं होता?

सवाल यह है कि स्वतंत्रता के 70 साल बाद भी हम गोरी हुकूमत का यह जुआ क्यों उतार कर नहीं फेंक सके? इसका उत्तर जानने के लिए हमें भारतीय समाज की मानसिकता को बारीकी से पढ़ना होगा. 

इन दिनों रिश्वत, ठेकों में कमीशन और जबरन उगाही व्यवस्था का स्थायी चरित्र बन गया है. पैसा देने और लेने वाले को महसूस ही नहीं होता कि वह कोई अनुचित और अनैतिक काम कर रहा है. जब समाज ही काली कमाई का कारोबार जायज मान ले तो अगली पीढ़ियां उसे गलत कैसे मानेंगी?

दरअसल सैकड़ों साल की गुलामी के कारण गरीबी और अभाव में जीना इस मुल्क की विवशता बन गई थी. अंग्रेजों ने इसका फायदा उठाया और समूचा तंत्र भ्रष्ट बना दिया. किसी काम को करने या कराने पर बख्शीश अथवा घूस अनिवार्य औपचारिकता बन गई. हम चंद रुपयों में बिकने लगे. 

दूसरी तरफ यह मानसिकता भी थी कि गोरे तो हिंदुस्तान का पैसा लूट-लूट कर परदेस ले जा रहे हैं. हम ठगे से देख रहे हैं इसलिए उस पैसे में सेंध लगाने में एक औसत भारतीय ने कुछ भी गलत नहीं समझा. 

भले ही वह क्रांतिकारियों का खुलकर साथ नहीं दे पा रहा था, मगर बरतानवी हुकूमत के पैसों में चोरी अथवा घूस लेने में उसने संभवत: पवित्र देशभक्ति का भाव भी देखा होगा. इस तरह दोनों पक्ष अपनी-अपनी जगह प्रसन्न थे. लेकिन तब भी एक वर्ग था, जो रिश्वत पसंद नहीं करता था. 

मुंशी प्रेमचंद और वृंदावनलाल वर्मा के अनुभव

कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद घनघोर आर्थिक दबाव में जिंदगी जीते रहे. मगर एक दौर ऐसा भी आया था, जब जिले के आला शिक्षाधिकारी होने के नाते जहां भी जाते, नजराने के तौर पर सिक्के, कपड़े, बेशकीमती तोहफे, आभूषण और अनाज मिलता. 

प्रेमचंद को अटपटा लगा. उन्होंने सख्ती से इसे रोका. इसी तरह कोर्ट -कचहरियों में रिश्वत बाकायदा प्रचलन में थी. उपन्यासकार वृंदावनलाल वर्मा ने वकालत शुरू की तो सहायता के लिए 9 रुपए के वेतन पर मुंशी रख लिया. एक महीने बाद उन्होंने मुंशी को तनख्वाह देने के लिए बुलाया तो उसने उल्टे 27 रुपए उनके हाथ में ईमानदारी से रख दिए. 

पूछने पर बताया कि महीने भर की घूस है और उसने अपना हिस्सा काट लिया है. वर्माजी अगले दिन इस्तीफा देकर घर बैठ गए. उन दिनों वे घोर आर्थिक संकट में थे. इसके बाद उन्होंने वन विभाग में नौकरी की. दो घंटे में काम निपटा लेते. बाकी समय में उपन्यास लिखते. 

एक दिन बड़े बाबू ने टोका. कहा कि आप भ्रष्टाचारी हैं. छह घंटे बचाकर घर का काम करते हैं. सरकारी स्याही, कलम और कागज का इस्तेमाल करते हैं. बात सही थी. वर्माजी ने एक महीने आठ घंटे खड़े होकर काम किया और प्रायश्चित किया. क्या आज हम यह कल्पना भी कर सकते हैं? 

समूचे सिस्टम को ठीक करने की है आज जरूरत

जैसे ही भारत को आजाद हवा में सांस लेने का अवसर मिला तो इस कुप्रथा ने गहराई से जड़ें जमा लीं. आज कोई भी सरकारी महकमा पैसों के अनैतिक आदान-प्रदान से मुक्त नहीं है. राशन कार्ड से लेकर संपत्ति कर निर्धारण या नक्शा मंजूर कराने का काम बिना लिए-दिए नहीं होता. 

ठेकों में कमीशन, विधायक-सांसद निधि में हिस्सा लेने से जनप्रतिनिधि नहीं चूकते. यहां तक कि निर्वाचन क्षेत्र की आवाज उठाने और सवाल पूछने तक के लिए जब पैसा लिया गया हो तो अनुमान लगाया जा सकता है कि स्थिति कितनी बिगड़ चुकी है. क्या राज्यों की सीमाओं पर ट्रकों से अवैध वसूली किसी से छिपी है. 

एक ट्रक की रसीद कटती है. चार यूं ही निकाले जाते हैं. शराब की फैक्टरियों के दरवाजे पर एक ट्रक की एंट्री होती है और चार ट्रक गैरकानूनी तौर पर निकलते हैं. इसी शराब से अवैध कमाई का बड़ा हिस्सा सियासी चंदे में जाता है. पैंतालीस साल पहले मैं एक जिले में पत्रकार था. वहां मनचाहे थाने के लिए पुलिस अधिकारी पुलिस अधीक्षक को तय रकम देता था. 

यह एक तरह से थानों की नीलामी जैसी थी. मैंने एक दिन एसपी से पूछा तो दबंगई से उन्होंने कहा कि यह ब्रिटिश काल से चला आ रहा है. उसके बाद एक प्रदेश की राजधानी में काम करते हुए मैंने पाया कि जिलों की भी एक तरह से नीलामी होने लगी है. मलाईदार जिलों का कलेक्टर या एसपी बनने के लिए धन वर्षा होती है. जिस विभाग में ज्यादा धन होता है उनका मंत्नी बनने के लिए होड़ होती है.

समूचे सिस्टम में सड़ांध फैल चुकी हो तो मुंबई की घटना का जिक्र ही क्या. कौन सा राज्य है जहां अधिकारी हर महीने ऊपर तक एक निश्चित रकम नहीं पहुंचाते. अब यह नई बात नहीं रही. असल ध्यान तो इस पर होना चाहिए कि इसे काबू में कैसे करें. ऐसा न हो कि आने वाली नस्लें ईमानदारी शब्द का अर्थ शब्द कोष में खोजें.

Web Title: Rajesh Badal blog: Maharashtra bribery, commission and extortion in system

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