राजेश बादल का ब्लॉग: एलोपैथिक सहित आयुर्वेदिक, होम्योपैथिक या दूसरी चिकित्सा प्रणालियों में श्रेष्ठता की होड़ अनुचित

By राजेश बादल | Published: May 26, 2021 01:06 PM2021-05-26T13:06:24+5:302021-05-26T13:06:24+5:30

कोरोना संकट के इस दौर में विभिन्न चिकित्सा प्रणालियों में श्रेष्ठता को लेकर बहस चल पड़ी है. संकट के इस दौर में ऐसी बहसों से भ्रम भी फैलता है और ऐसा हो भी रहा है।

Rajesh Badal Blog: Competition among Medical different Systems Unreasonable | राजेश बादल का ब्लॉग: एलोपैथिक सहित आयुर्वेदिक, होम्योपैथिक या दूसरी चिकित्सा प्रणालियों में श्रेष्ठता की होड़ अनुचित

चिकित्सा प्रणालियों में श्रेष्ठता की होड़ अनुचित (फाइल फोटो)

कोरोना के इस खौफनाक सिलसिले के दरम्यान पीड़ित मानवता की सेवा करने वाली इलाज पद्धतियों के बारे में इन दिनों नए सिरे से बहस चल पड़ी है. इसे कहने में हिचक नहीं है कि सामाजिक और व्यापक राष्ट्रीय हितों के मद्देनजर बहस करने वालों ने गलत समय चुन लिया है. 

सामान्य स्थितियों में किसी भी बौद्धिक विमर्श का स्वागत किया जाना चाहिए. लेकिन जब समूची मानवता अस्तित्व के लिए जूझ रही हो तो ऐसे विवाद न केवल निर्थक और बेमानी होते हैं, बल्कि उनसे भ्रम भी फैलता है. 

संविधान में 71 साल पहले संकल्प लिया गया था कि अवाम के बीच आधुनिक और वैज्ञानिक सोच विकसित की जाएगी. संविधान निर्माताओं की भावना का आदर करते हुए ही हम आज अंतरिक्ष में कुलांचे भर रहे हैं और चिकित्सा विज्ञान में दक्ष भारतीय डॉक्टर दुनिया भर में ज्ञान का डंका बजा रहे हैं. 

जापान के चीन पर हमले के दौरान महाराष्ट्र के डॉक्टर कोटनिस की अगुआई में पांच चिकित्सकों ने चीन में पीड़ित मानवता की सेवा कर मिसाल कायम की थी. तब से लेकर आज डॉक्टर अशोक हेमल तक का नाम भारतीय चिकित्सा अध्ययन की शान बढ़ा रहा है. 

हिंदुस्तान ने जब अमेरिका समेत कई देशों को कोविड-19 के टीके तथा अन्य दवाएं मुहैया कराईं तो किसी ने नहीं पूछा कि वे किस चिकित्सा प्रणाली से निकले थे. हमने राहत की सांस ली, जब अनगिनत लोगों की जान भारतीय टीके ने बचाई थी.  

एलोपैथिक, आयुर्वेदिक, होम्योपैथिक में श्रेष्ठता की जंग क्यों?

सवाल यह है कि एलोपैथिक, आयुर्वेदिक, होम्योपैथिक और प्राकृतिक चिकित्सा प्रणालियों को विश्व ने जब स्वीकार कर लिया है तो आपस में श्रेष्ठता की जंग क्यों? मानव शरीर क्रि या विज्ञान यह मानता है कि कोई दवा हर इंसान पर समान असर नहीं कर सकती. 

प्रत्येक मनुष्य के शरीर का अपना मिजाज होता है. एक देह पर एक प्रणाली की दवा असर कर सकती है तो दूसरी प्रणाली की दवा उसी देह पर काम नहीं भी कर सकती. ऐसे में उसे अन्य प्रणाली की शरण में क्यों नहीं जाना चाहिए. हम पाते हैं कि कुछ लोगों को होम्योपैथी की छोटी-छोटी सफेद गोलियां चमत्कारिक लाभ पहुंचाती हैं और बहुत से लोगों को कोई लाभ नहीं होता. 

किसी की एलर्जी आयुर्वेदिक काढ़े से ठीक होती है तो किसी अन्य को एलोपैथिक गोली फायदा देती है. ऐसे में कोई भी सभ्य समाज किसी एक प्रणाली को खारिज नहीं करेगा. भारत जैसे विविधताओं भरे देश में किसी एक चिकित्सा पद्धति का लाभ समाज के अंतिम छोर पर खड़े इंसान तक ले जाना आसान काम नहीं है. 

खासतौर पर उस हाल में, जबकि हम निजी अस्पतालों पर निर्भरता बढ़ाते जा रहे हैं. बताने की जरूरत नहीं कि निजी क्षेत्न के हावी होने से चिकित्सा जैसा सेवा का काम भी बाजार में बिकने लगता है. इसलिए किसी को भी यह इजाजत नहीं देनी चाहिए कि वह एक ही प्रणाली के गीत गाए और दूसरी पद्धतियों पर निशाना साधे.

हकीकत तो यह है कि इलाज के नाम पर पाखंड और अंधविश्वास बांटने वालों की खबर लेने का समय आ गया है. भारत में अभी भी करोड़ों लोग परंपरा और अपने अर्धसत्य के आधार पर नकली इलाज का शिकार बन रहे हैं. एक इलाके में झाड़-फूंक से इलाज होते आप देख सकते हैं तो दूसरे में जादू-टोने या तंत्र-मंत्र के नाम पर दुकानें खुली हैं. कहीं धार्मिक आस्थाओं से खिलवाड़ हो रहा है तो कहीं आध्यात्मिकता की आड़ ली  जा रही है. 

अंधविश्वास से जंग लड़ने की जरूरत

असल जंग तो इससे होनी चाहिए. बीते दिनों एक तेजतर्रार महिला सांसद ने सार्वजनिक रूप से कहा कि वे अब तक कोरोना से बची हैं तो उसका कारण गौमूत्न सेवन है. गौमूत्न पीने से कोविड-19 महामारी नहीं होती. बयान की निंदा हुई और जाने-माने चिकित्सा विशेषज्ञों ने गहरी हताशा जताई. सांसद की तो छोड़िए. क्या आज कोई आयुर्वेदिक डॉक्टर गारंटी ले सकता है कि वह गौमूत्र से किसी कोविड पॉजीटिव को ठीक कर सकता है? 

जाहिर है कि कोई ऐसा दावा नहीं कर सकता. चंद रोज पहले एक अंतरराष्ट्रीय चैनल ने भारत की एक खबर दिखाई थी. इसमें दिखाया गया था कि गोबर शरीर पर मलने से कोरोना नहीं होता. 

रिपोर्ट में कुछ लोग सामूहिक रूप से बदन पर गोबर का लेप कर रहे थे. उनका प्रवक्ता दावा कर रहा था कि गोबर से कोरोना दूर भागता है. इसी रिपोर्ट में एक डॉक्टर और इंडियन मेडिकल कौंसिल ने इस दावे को खारिज कर दिया. सरकारी प्रवक्ता ने कहा था कि गोबर से कोरोना संक्रमण दूर होने के सबूत नहीं हैं.

सवाल पूछा जा सकता है कि क्या गोबर-लेप या गौ मूत्न सेवन के लिए वे अपने परिवार के सदस्यों को भी राजी कर सकते हैं ? जाहिर है कि उत्तर नहीं में होगा. ऐसे बेबुनियाद कथनों से हिंदुस्तान की प्रतिष्ठा पर आंच आती है. पश्चिम और यूरोप के लोग यकीनन पूछना चाहेंगे कि अगर भारत के पास कोरोना से मुक्ति के लिए गोबर और गौमूत्र जैसी अचूक दवाएं प्रचुर मात्रा में हैं तो फिर तमाम देशों से दवाएं, रॉ मटेरियल, इंजेक्शन और ऑक्सीजन की भीख हम क्यों मांग रहे हैं. 

यदि एलोपैथिक प्रणाली कारगर नहीं है तो केंद्र सरकार हर प्रांत में ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज क्यों खोल रही है? जहां भी एम्स काम कर रहे हैं, उनमें भर्ती के लिए मरीजों को पूरी ताकत क्यों लगानी पड़ती है. संसद हर साल एक चिकित्सा पद्धति से डॉक्टर तैयार करने पर अरबों रुपए क्यों खर्च कर रही है.

हमें याद है कि एक सिद्धांतवादी प्रधानमंत्री प्रतिदिन स्वमूत्र पान करते थे. उन्होंने लंबी उमर पाई, पर कभी आस्था का ढिंढोरा नहीं पीटा और न अन्य चिकित्सा प्रणालियों को खारिज किया. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी स्वयं प्राकृतिक और देसी इलाज में भरोसा करते थे, पर उन्होंने अन्य पद्धतियों को कभी नहीं दुत्कारा.

Web Title: Rajesh Badal Blog: Competition among Medical different Systems Unreasonable

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