मुफ्त की आदत लगा देने से देश का नुकसान ही होगा

By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Updated: February 13, 2025 12:56 IST2025-02-13T12:50:16+5:302025-02-13T12:56:12+5:30

जनता के कल्याण के लिए कदम उठाना गलत नहीं है लेकिन वादे ऐसे किए जाएं, योजना ऐसी चलाई जाएं जिससे राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया मजबूत हो, मानव संसाधन का सदुपयोग हो तथा भारत एक आलसी नहीं, मेहनतकश राष्ट्र बने.

question arises over freebies | मुफ्त की आदत लगा देने से देश का नुकसान ही होगा

मुफ्त की आदत लगा देने से देश का नुकसान ही होगा

कोई भी सुविधा आसानी से और मुफ्त में मिलने लगती है तो आदमी मेहनत करने की जरूरत नहीं समझता. वह आलसी हो जाता है और विकास की मुख्यधारा से कट जाता है. इससे अंतत: देश का विकास बुरी तरह से प्रभावित होता है. शुरू में तो लगता है कि देश की गरीब तथा निम्न मध्यमवर्गीय  जनता के कल्याण के लिए कितना कुछ किया जा रहा है. 

आंरभ में यह भी लगता है कि सबकुछ मुफ्त में उपलब्ध करवा देने से लोग सुखी हो जाएंगे तथा उनका जीवन स्तर ऊंचा उठेगा लेकिन उसके दुष्परिणाम जल्दी ही सामने आने लगते हैं. हाल के वर्षों में मतदाताओं को लुभाने के लिए तमाम सत्तारूढ़ राजनीतिक दल मुफ्त में अनाज, जीवनोपयोगी सामग्रियां बांटने के अलावा विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के तहत मतदाता के खाते में प्रति माह हजारों रुपए नगद हस्तांतरित करवा रहे हैं. 

इससे गरीबों का घर आसानी से चल जाता है तथा पेट भरने के लिए उन्हें मेहनत करने की जरूरत नहीं पड़ती. इससे ये लोग काम करने से कतराने लगे हैं और राष्ट्रनिर्माण में उनका योगदान निरंतर कम होता जा रहा है. मंगलवार को प्रसिद्ध उद्योग समूह लार्सन एंड ट्रूब्रो के मुखिया एस.एन. सुब्रमण्यन ने ‘मुफ्त की रेवड़ी’ बांटने की प्रवृत्ति पर चिंता जताते हुए कहा था कि कल्याणकारी योजनाओं के नाम पर लोगों को मुफ्त सुविधाएं देने के अलावा नगदी हस्तांतरित करने से मेहनतकश वर्ग काम करने के लिए अपने गांव और कस्बों से बाहर नहीं निकल रहा है. 

इससे बुनियादी ढांचा तथा कृषि समेत विकास से जुड़े सभी क्षेत्रों में काम करवाने के लिए मजदूर नहीं मिल पा रहे हैं. उनका कहना था कि जनधन खाते, प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण, गरीब कल्याण योजना जैसे कदमों से श्रमिक काम करने के लिए अपने घरों से बाहर निकलना नहीं चाहते. घर चलाने या पेट भरने के लिए उनकी न्यूनतम जरूरतें घर बैठे ही जब पूरी होने लगती हैं तो वे काम क्यों करेंगे. इसी विचार को सुप्रीम कोर्ट पहले से व्यक्त करता आ रहा है और बुधवार को भी उसने मुफ्त में सबकुछ उपलब्ध करवाने की प्रवृत्ति पर गहरी नाराजगी जताई है. 

सुप्रीम कोर्ट पिछले कई वर्षों से ‘मुफ्त बांटने की संस्कृति’ से असहमति जताता रहा है. मगर इसके बावजूद कोई भी राजनीतिक दल सुनने को तैयार ही नहीं है. पिछले कुछ वर्षों में जितने भी विधानसभा चुनाव हुए हैं, उनमें सत्ता पाने के लिए सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने मुफ्त में अनाज, मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी के साथ-साथ विभिन्न योजनाओं के तहत मतदाताओं के खातों में नगदी हस्तांतरण के वादे किए और संबंधित प्रदेश की आर्थिक सेहत की चिंता किए बिना उन्हें लागू करने का प्रयास भी किया. 

दक्षिण भारत से मुफ्त में अनाज तथा अन्य सुविधाएं देने की चुनावी संस्कृति शुरू हुई. इसके लिए सिर्फ आम आदमी पार्टी को दोष देना ठीक नहीं है. वह तो महज 12 वर्ष पुरानी पार्टी है. तमिलनाडु में द्रमुक तथा अन्नाद्रमुक और अविभाजित आंध्र प्रदेश में अस्सी के दशक में तेलुगु फिल्मों के सुपर स्टार एवं तेलुगू-अस्मिता के नाम पर तेलुगू देशम पार्टी की स्थापना करने वाले एन.टी.रामाराव ने मुफ्त अनाज से शुरुआत की और चुनाव-दर-चुनाव मुफ्त साइकिल, मुफ्त बर्तन, मुफ्त टीवी और कालांतर में मुफ्त फ्रिज, मुफ्त स्मार्ट फोन तथा मुफ्त स्कूटी, लैपटॉप  व मुफ्त कम्प्यूटर देने के वायदे चुनाव घोषणा पत्र में होने लगे. 

मनरेगा एक कल्याणकारी योजना है. उसे मुफ्त की रेवड़ी नहीं कहा जा सकता. इसी तरह शालेय पोशाक योजना ने ग्रामीण  इलाकों तथा गरीब शहरी बच्चों के स्वास्थ्य को सुधारने में महत्वपूर्ण योगदान दिया. मगर चुनावों में सुविधाएं देने के नाम पर किए जाने वाले अधिकांश वादे अनुत्पादक एवं सरकारी धन की बर्बादी से ज्यादा कुछ नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ही नहीं देश का हित चाहनेवाला हर व्यक्ति इन अनुत्पादक योजनाओं के दुष्परिणामों से वाकिफ है और वह इनका खुलकर विरोध करता है. 

बुधवार को न्यायमूर्ति भूषण गवई तथा न्यायमूर्ति अगस्टीन जाॅर्ज मसीह की खंडपीठ ने शहरी क्षेत्रों में बेघरों के आश्रय से जुड़ी एक याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि मुफ्त योजनाओं के कारण लोग काम करने के इच्छुक नहीं हैं. लोगों को बिना काम किए मुफ्त अनाज तथा नगद राशि मिल रही है. हम बेघरों को छत देने की चिंता की तारीफ करते हैं मगर बेहतर होगा कि उन्हें समाज की मुख्यधारा का हिस्सा बनाया जाए और उन्हें देश के विकास में योगदान करने दिया जाए. 

मुफ्त में तमाम सुविधाएं देना और खाते में नगद राशि हस्तांतरित करने जैसे चुनावी वायदे लोकतंत्र की जड़ों को कमजोर करते हैं. इससे समूची चुनावी लोकतांत्रिक प्रक्रिया भी भ्रष्ट होती है क्योंकि योजनाओं की आड़ में एक तरह से मतदाताओं के वोट खरीदे जाने लगे. भारत का आम आदमी अपने लोकतांत्रिक अधिकारों को लेकर सजग तो होता जा रहा है लेकिन मुफ्त की रेवड़ी के चक्कर में वह संभवत: अपना विवेक खोकर देश का नुकसान कर बैठता है. 

लोकतंत्र की  पवित्रता को दूषित करने के लिए कोई एक दल  जिम्मेदार नहीं है. सभी दल इसके लिए समान रूप से दोषी हैं. जनता के कल्याण के लिए कदम उठाना गलत नहीं है लेकिन वादे ऐसे किए जाएं, योजना ऐसी चलाई जाएं जिससे राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया मजबूत हो, मानव संसाधन का सदुपयोग हो तथा भारत एक आलसी नहीं, मेहनतकश राष्ट्र बने. 

दुनिया में जितने भी राष्ट्र आज समृद्ध हैं, वे मानव संसाधनों के अधिकतम रचनात्मक उपयोग के कारण सफलता के शिखर तक पहुंचे हैं. हम आज सफलता तथा विकास के जिस मोड़ पर खड़े हैं, वह देशवासियों की मेहनत का नतीजा है. उसे व्यर्थ न जाने दें.  
 

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