पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉग: आर्थिक सुधार के किस रास्ते पर चलेगी सरकार!
By पुण्य प्रसून बाजपेयी | Published: September 3, 2019 09:36 AM2019-09-03T09:36:50+5:302019-09-03T09:36:50+5:30
चंद्रशेखर फरवरी 1991 में देश का बजट तक नहीं रख पाए थे. विश्व बैंक और आईएमएफ ने हर सुविधा-मदद खींच ली थी. तब महंगाई दर 8.4 फीसदी पर आ गई थी. उसी के बाद 1991 में पी.वी. नरसिंह राव के प्रधानमंत्नी बनते ही देश में आर्थिक सुधार के कदम उठाए गए.
याद कीजिए जब चंद्रशेखर प्रधानमंत्नी थे तब खस्ता आर्थिक हालात में रिजर्व बैंक में जमा सोने को गिरवी रखा गया था. तब यह सवाल उठा था कि क्या भारत की अर्थव्यवस्था पूरी तरह खोखली हो चुकी है क्योंकि चंद्रशेखर फरवरी 1991 में देश का बजट तक नहीं रख पाए थे. विश्व बैंक और आईएमएफ ने हर सुविधा-मदद खींच ली थी. तब महंगाई दर 8.4 फीसदी पर आ गई थी. उसी के बाद 1991 में पी.वी. नरसिंह राव के प्रधानमंत्नी बनते ही देश में आर्थिक सुधार के कदम उठाए गए.
आर्थिक सुधार के इस पहले फेज को ही बाद की सरकार ने भी जारी रखा और 1991 से शुरू हुए आर्थिक विकास की रफ्तार को भारत में परखें तो 1991 से 2010 तक विकास दर दुनिया के अन्य देशों से एक तरफ बहुत ज्यादा बेहतर रही, वहीं आर्थिक विकास के इस ढांचे ने भारत के उस तबके में भी जान फूंक दी जो टैक्स के दायरे में नहीं था.
फिर अटल बिहारी वाजपेयी के दौर (1998-2004) को याद कीजिए. आंकड़ों के लिहाज से देश में 10 करोड़ के मध्यम वर्ग का दायरा 15 करोड़ तक जा पहुंचा. और संगठित या असंगठित क्षेत्न में काम न मिलने के तनाव से मुक्ति मिली, जिसका प्रभाव बैंकों पर भी पड़ा. बचत खातों में 17 फीसदी की वृद्धि वाजपेयी काल में दर्ज की गई. और सच यही है कि राव-मनमोहन की जोड़ी के उदारवादी अर्थव्यवस्था के चेहरे को ही वाजपेयी सरकार ने अपनाया. उसे आर्थिक सुधार का ट्रैक-टू नाम दिया गया. मनमोहन सरकार ने उसे जारी रखा.
2014 में मनमोहन सिंह की हार के बाद मोदी सत्ता को सार्वजनिक क्षेत्न की कंपनियां घाटे में नहीं मिलीं और 2014 में निजी या सार्वजनिक क्षेत्न कोई बहुत फायदे में नहीं था तो घाटे में भी नहीं था. यहीं से यह सवाल पैदा हुआ कि मोदी सत्ता आर्थिक सुधार के ट्रैक 3 या 4 (जनरेशन 3 या 4 ) को अपनाती है या फिर संघ के स्वदेशी को. और ध्यान दीजिए तो स्वदेशी का राग मोदी सत्ता ने बिल्कुल नहीं गाया. चले आ रहे आर्थिक सुधार को भ्रष्टाचार के नजरिये से ही परखा. लेकिन सबसे व्यापक असर पड़ा नोटबंदी और जीएसटी से.
नोटबंदी ने उस असंगठित क्षेत्न की कमर तोड़ दी जो समानांतर अर्थव्यवस्था को बरकरार रखे था. जीएसटी ने आर्थिक सुधार के नजरियों को ताबूत बनाकर कील ठोंक दी क्योंकि झटके में इनफॉर्मल सेक्टर न सिर्फ सरकार की निगाह में आया, बल्कि सरकार वसूली करती दिखी. ग्रामीण भारत को नोटबंदी ने रुलाया तो जीएसटी ने शहरी भारत को.
अब सवाल यही है कि क्या मोदी सत्ता अपने किए ऐलान को वापस लेकर आर्थिक सुधार के रास्ते को पकड़ना चाहेगी या फिर अर्थव्यवस्था का राजनीतिक उपाय करेगी. क्योंकि बिगड़ी अर्थव्यवस्था ने संकेत साफ दे दिए हैं. पॉलिटिकल इकोनॉमी के जरिए कॉर्पोरेट को संभालना, जांच संस्थाओं के जरिए राजनीति को साधना व आसमान छूती बेरोजगारी के जरिए राजनीतिक राष्ट्रवाद को जगाना ही नए भारत की सोच है.