पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉग: सत्ता की होड़ में हाशिये पर धकेले जाते नागरिक
By पुण्य प्रसून बाजपेयी | Published: October 27, 2018 05:56 AM2018-10-27T05:56:18+5:302018-10-27T05:56:18+5:30
व्यवसाय या रोजगार के दायरे में या फिर महिला या युवा होने का दर्द भी राजनीतिक सत्ता के लोकतंत्न तले क्या हो सकता है यह किसानों की खुदकुशी और मनरेगा से भी कम आय पाने वाले देश के 25 करोड़ किसान-मजदूरों को देख कर या फिर सरकारी आंकड़ों से ही जाना जा सकता है।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की राजनीति का सच तो यही है कि सत्ता पाने के लिए नागरिकों को वोटरों में तब्दील करना। फिर वोटरों को जातीय-धर्म-सोशल इंजीनियरिंग के जरिए अलग-अलग खांचे में बांटना। पारंपरिक तौर पर किसान-मजदूर, महिला, दलित, युवा और प्रोफेशनल्स व कॉर्पाेरेट तक को सपने और लुभावने वादों की पोटली दिखाना। सत्ता पाने के बाद समूचे सिस्टम को ही सत्ता बनाए रखने के लिए काम पर लगाते हुए जनता की चुनी हुई सरकार के नाम पर हर वह काम करना जो असंवैधानिक हो।
फिर इसके समानांतर में अपने पारंपरिक चुनिंदा वोटरों के लिए कल्याण योजनाओं का ऐलान करते रहना। यानी चाहे अनचाहे लोकतांत्रिक देश का राजनीतिक मिजाज ही लोकतंत्न को हड़प रहा है। खामोशी से वोटरों में बंटा समाज राजनीतिक दलों में अपनी सहूलियत अपनी मुश्किलों को देखकर हर पांच बरस में राजनीतिक लोकतंत्न को जीने का इतना अभ्यस्त हो चला है कि उसे इस बात का एहसास तक नहीं है कि उसके पड़ोस में रहने वाला शख्स कितना जिंदा है कितना मर चुका है।
इस दायरे की सबसे त्नासदीदायक परिस्थितियां मुस्लिम समाज के भीतर जमा होते उस मवाद की हैं जिसमें सवा चार करोड़ मुस्लिमों की जिंदगी प्रतिदिन 28 से 33 रुपए पर कटती है। 42 फीसदी बच्चे कुपोषित पैदा होते हैं। एक हजार बच्चों में से कोई एक बच्चा ही तकनीकी शिक्षा पाने की स्थिति में होता है। जो क्लर्क या प्रोफेशनल्स की नौकरी में हैं उनकी संख्या भी एक फीसदी से ज्यादा नहीं है। यानी किस तरह का समाज या देश गढ़ा जा रहा है जो सिर्फ राजनीतिक सत्ता ही देखता है।
देश में 6 करोड़ दलित 28 से 33 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से जीते हैं और करीब 48 फीसदी दलित बच्चे कुपोषित ही होते हैं। शिक्षा या उच्च शिक्षा या तकनीकी शिक्षा के मामले में इनका हाल मुस्लिमों को भी पछाड़ता है और वह भी उन आंकड़ों के साथ जिसका मुकाबला युगांडा या अफगानिस्तान से हो सकता हो। क्योंकि दो फीसदी से आगे के सामने किताब होती नहीं और दशमलव एक फीसदी उच्च शिक्षा के दायरे में पहुंच पाते हैं।
पर इनका संकट दोहरा है। इनके नाम पर सत्ता आंखें बंद नहीं करती बल्कि सुविधा देने के नाम पर हर सत्ता इन्हें अपने साथ जोड़ने की जो भी पहल करती है वह सिवाय भीख देने के आगे बढ़ नहीं पाती। यानी राजनीतिक लोकतंत्न के दायरे में इनकी पहचान सिवाय वोट देने के वक्त ईवीएम पर दबाए जाते एक बटन से ज्यादा नहीं होती। पर इसका यह मतलब कतई नहीं है कि दलित, मुस्लिम के अलावा देश में हर कोई नागरिक के हक को जी रहा है।
व्यवसाय या रोजगार के दायरे में या फिर महिला या युवा होने का दर्द भी राजनीतिक सत्ता के लोकतंत्न तले क्या हो सकता है यह किसानों की खुदकुशी और मनरेगा से भी कम आय पाने वाले देश के 25 करोड़ किसान-मजदूरों को देख कर या फिर सरकारी आंकड़ों से ही जाना जा सकता है। और इसी कतार में साढ़े चार करोड़ रजिस्टर्ड बेरोजगारों को खड़ा कर अंतर्राष्ट्रीय तौर पर जब आकलन कीजिएगा तो पता चलेगा भारत दुनिया का अव्वल देश हो चला है जहां सबसे ज्यादा बेरोजगार हैं।
सरकारी आंकड़े ही यह जानकारी देते हैं कि देश की दस फीसदी आबादी 80 फीसदी संसाधनों का उपभोग कर रही है और उसके दस फीसदी के भीतर एक फीसदी का वही समाज है जो राजनीति में लिप्त है। या फिर राजनीति के दायरे में खुद को लाकर धंधा करने में मशगूल है जिसे क्रोनी कैपिटलिज्म कहा जाता है। और इस एक फीसदी के पास देश का साठ फीसदी संसाधन है। राजनीतिक लोकतंत्न की बड़ी लकीर खींचनी है तो फिर आखिर में दो सच को निगलना आना चाहिए। पहला, यह व्यवस्था चलती रहे इसके लिए देश के संसाधनों से ही सत्ता की शह पर कमाई करने वाले कार्पोरेट एक हजार करोड़ से ज्यादा का चंदा सत्ता को दे देते हैं और दूसरा, जनता में ये एहसास बना रहे कि
उसकी भागीदारी जारी है तो कल्याण या दूसरे नामों से सेस लगाकर 2014 से 2017 तक चार लाख करोड़ रु। से ज्यादा जनता से ही वसूला जाता है जिसमें से सवा लाख करोड़ रुपए सरकार खुद डकार लेती है। यानी जनता के पैसे से जो सुविधा जनता को देनी है उस सुविधा को भी सत्ता हड़प लेती है।
और इस कड़ी में राजनीतिक लोकतंत्न का समूचा हंगामा इंतजार कर रहा है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में 1352 करोड़ रुपए सिर्फ प्रचार पर उड़ाने वाली राजनीति 2019 में कितने हजार करोड़ प्रचार में उड़ाएगी जिससे हर नागरिक के जहन में ये बस जाए कि लोकतंत्न का मतलब है राजनीति-सियासत - सत्ता पाने की होड़।