पुलवामा हमले का राजनीति पर असर

By अभय कुमार दुबे | Published: February 20, 2019 07:48 PM2019-02-20T19:48:27+5:302019-02-20T19:48:27+5:30

जैसे-जैसे बीतते वक्त के साथ पुलवामा में सीआरपीएफ पर हुए आत्मघाती हमले का सदमा कम होगा, वैसे-वैसे राजनीतिक दल (सत्तारूढ़ और विपक्षी) यह आकलन करने की तरफ बढ़ेंगे

Pulwama attack impact on politics | पुलवामा हमले का राजनीति पर असर

पुलवामा हमले का राजनीति पर असर

जैसे-जैसे बीतते वक्त के साथ पुलवामा में सीआरपीएफ पर हुए आत्मघाती हमले का सदमा कम होगा, वैसे-वैसे राजनीतिक दल (सत्तारूढ़ और विपक्षी) यह आकलन करने की तरफ बढ़ेंगे कि इस भीषण आतंकवादी कार्रवाई की राजनीतिक कीमत क्या होगी और उसे कौन कितना चुकाएगा? शायद यह आकलन भीतर ही भीतर किया भी जा रहा होगा, क्योंकि इंतजार करने का समय किसी के पास नहीं है. पंद्रह-बीस दिन के भीतर-भीतर चुनाव आयोग अगले आम चुनाव की कार्यवाही शुरू कर सकता है. सत्ता के लिए होने वाली चरम होड़ पर पुलवामा की घटना लाजिमी तौर पर अपना असर डालेगी. वोटर इसकी जिम्मेदारी किसके सिर पर डालेंगे? अगर दस दिन के भीतर-भीतर पाकिस्तान के खिलाफ कोई जवाबी फौजी कार्रवाई होती है (किसी आतंकी ठिकाने पर कोई हवाई हमला या एक और सजिर्कल स्ट्राइक या कोई और एक्शन) तो क्या उसका श्रेय मौजूदा सरकार को इस तर्ज पर जा सकता है कि उसने पुलवामा में हुए राष्ट्रीय अपमान का बदला ले लिया है? निश्चित रूप से सरकार यह दावा करेगी, और प्रधानमंत्री को इसका श्रेय दिया जाएगा. जैसे ही ऐसा होगा, विपक्ष भी अपनी उन आलोचनाओं के साथ निकल कर सामने आ जाएगा जो उसने फिलहाल संयमित ढंग से रोक रखी हैं. नतीजतन बेहद प्रशंसनीय प्रतीत हो रही वह राजनीतिक आम सहमति भंग हो जाएगी, जो इस समय दिखाई दे रही है. 

कहना न होगा कि विपक्ष के पास कई बातें कहने के लिए हैं. अगर यही घटना कोई दस महीने पहले हुई होती तो जिस तरह की राजनीति अभी हुई है, वैसी कतई नहीं होती. दोनों पक्षों के पास दूरगामी परिप्रेक्ष्य के साथ कहने और करने के लिए समय होता. अगर मौजूदा आम सहमति अल्पजीवी साबित हुई तो विपक्ष सरकार से कुछ खरे-खरे सवाल पूछ सकता है. मसलन, सवाल उठाया जा सकता है कि सरकार इस तरह की या किसी और तरह की संभावित आतंकवादी कार्रवाई के लिए दूरंदेशी के साथ कोई पेशबंदी करने में नाकाम क्यों रही? भले ही यह कार्रवाई जैश-ए-मोहम्मद ने की हो, पर ऐसा भी तो हो सकता था कि सीरिया में आईएस के पराजित हो कर बिखरने और अफगानिस्तान में तालिबान द्वारा शांतिवार्ता के प्रति सकारात्मक रुझान दिखाने के कारण बेरोजगार हुए पेशेवर आतंकवादियों की टोली भी तो कश्मीर जैसे आतंकवाद के सक्रिय थिएटर की तरफ आकर्षित हो जाती. क्या भारत सरकार की खुफिया एजेंसियों के पास यह समझदारी और नजर थी?

आखिरकार कश्मीर में चुनी हुई सरकार में भी भाजपा की भागीदारी थी और राज्यपाल शासन तो सीधे-सीधे केंद्र का ही शासन है. प्रेक्षकों का विचार है कि कश्मीर में पिछले कुछ वर्षो से आतंकवादी कार्रवाइयों की संरचना बदलाव की तरफ है. मारे जाने वाले आतंकवादियों में स्थानीय युवकों की संख्या बढ़ती जा रही है और विदेशी आतंकवादी कम होते जा रहे हैं. यह भी पूछा जा सकता है कि क्या सरकार के रणनीतिक मानस पर कश्मीरी आतंकवाद के ढांचे में हो रहा यह परिवर्तन दर्ज हुआ है, और अगर हुआ है तो उसकी काट करने के लिए सरकार ने अपनी युक्तियों में क्या परिवर्तन किए हैं?

2016 में उड़ी में हुए आतंकवादी हमले के बाद मोदी सरकार ने सजिर्कल स्ट्राइक करके जनमानस में पाकिस्तान से बदला लेने में सक्षम प्रधानमंत्री की छवि स्थापित करने का प्रयास किया था. इस साल पहली तारीख को दिए गए अपने साक्षात्कार में मोदी ने सजिर्कल स्ट्राइक में अपनी निजी भूमिका का विस्तार के साथ वर्णन भी किया था. इस सजिर्कल स्ट्राइक पर बनी बंबइया फिल्म को भाजपा की तरफ से अपने खर्चे पर राहुल गांधी के निर्वाचन क्षेत्र अमेठी में दिखाया तक गया है. इसके बाद प्रधानमंत्री ने थल सेना को एक नई तोप देते समय उसमें बैठ कर अपनी तस्वीर भी खिंचाई ताकि राष्ट्र के मुस्तैद रक्षक के तौर पर उनकी छवि और पुख्ता हो सके. छवि-निर्माण की इस प्रक्रिया को पुलवामा की घटना ने गड़बड़ा दिया है. इस बार जवाबी मिलिट्री एक्शन करने में कई बाधाएं हैं.

मसलन, इलाके में बहुत ज्यादा बर्फ जमी हुई है. इस समय पाकिस्तान का वास्तविक शासन पूरी तरह से वहां की फौज के हाथों में है जो सजिर्कल स्ट्राइक की परिघटना के बाद पहले से कहीं ज्यादा सतर्क होगी. उस समय वहां नवाज शरीफ की सरकार थी और सेना चीफ से उनकी अदावत चल रही थी. पाक के मौजूदा प्रधानमंत्री इमरान खान के बारे में समझा जाता है कि वे पूरी तरह से फौज की गोद में ही बैठे हुए हैं. ऊपर से पाकिस्तान के पास चीन का पूरा समर्थन है. वह मसूद अजहर को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर आतंकवादी घोषित भी नहीं करने दे रहा है. इसलिए खतरा यह है कि किसी फौजी दुस्साहस के नतीजे उल्टे भी हो सकते हैं.

कश्मीर की स्थानीय राजनीति में पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस के परस्पर नजदीक आने की संभावनाओं से एक नई हलचल पैदा हुई है. वहां विधानसभा चुनाव लोकसभा के साथ ही हो सकते हैं. जाहिर है कि पीडीपी और भाजपा के गठजोड़ का प्रयोग पूरी तरह से इतिहास के कूड़ेदान में जा चुका है. भाजपा वाले तो अब इसकी चर्चा भी करना पसंद नहीं करते. अगले दस दिन तक हम सबको दम साध कर बैठना होगा. देखना होगा कि हमारी फौज क्या करती है और हालात उसे किस हद तक कार्रवाई करने की इजाजत देते हैं. अगली लोकसभा का भविष्य इन सब घटनाओं पर निर्भर है. 

Web Title: Pulwama attack impact on politics

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