पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉग: धर्म सभा और धर्म संसद के बीच फंसी सियासत
By पुण्य प्रसून बाजपेयी | Published: November 28, 2018 05:21 AM2018-11-28T05:21:30+5:302018-11-28T05:21:30+5:30
अयोध्या हो या बनारस दोनों जगहों पर मुस्लिम फुसफुसाहट में ही सही पर ये कहने से नहीं चूक रहा है कि राम मंदिर बनाने से रोका किसने है.
इधर अयोध्या उधर बनारस. अयोध्या में विश्व हिंदू परिषद ने धर्म सभा लगाई तो बनारस में शारदा ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने धर्म संसद बैठा दी. अयोध्या में विहिप के नेता-कार्यकर्ता 28 बरस पहले का जुनून देखने को बेचैन लगे तो बनारस की हवा में 1992 के बरक्स धर्म सौहाद्र्र की नई हवा बहाने की कोशिश शुरू हुई.
अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का नारा लेकर विहिप, संघ और साधु-संतों की एक खास टोली ही नजर आई, तो बनारस में सनातनी परंपरा की दिशा तय करने के लिए उग्र हिंदुत्व को ठेंगा दिखाया गया और चार मठों के शंकराचार्यो के प्रतिनिधियों के साथ 13 अखाड़ों के संत भी पहुंचे. 108 धर्माचार्यो की कतार में 8 अन्य धर्म के लोग भी दिखाई दिए.
बनारस में गंगा की अविरलता और गौ रक्षा के साथ राम मंदिर निर्माण का भी सवाल उठा. अयोध्या की गलियों में मुस्लिम सिमटा दिखाई दिया. बनारस में मुस्लिमों को तरजीह दी गई. 1992 को याद बनारस में भी किया गया पर पहली बार राम मंदिर के नाम पर हालात और न बिगड़ने देने की खुली वकालत हुई.
और ये लकीर जब अयोध्या और बनारस के बीच साफ खिंची हुई दिखाई देने लगी तो राजनीतिक बिसात पर तीन सवाल उभरे. पहला, भाजपा के पक्ष में राम मंदिर के नाम पर जिस तरह समूचा संत समाज पहले एक साथ दिखाई देता था अब वह बंट चुका है. दूसरा, जब भाजपा की ही सत्ता है और प्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी के पास बहुमत का भंडार है तो फिर विहिप कोई भी नारा कैसे अपनी ही सत्ता के खिलाफ लगा सकती है.
तीसरा, राम मंदिर को लेकर कांग्रेस की सोच के साथ संत समाज खड़ा दिखाई देने लगा. यानी ये भी पहली बार हो रहा है कि ढाई दशक पहले के शब्दों को ही निगलने में स्वयंसेवकों की सत्ता को ही परेशानी हो रही है. और 1992 के हालात के बाद राम मंदिर बनाने के नाम पर सिर्फ हवा बनाने के खेल पर और कोई नहीं भाजपा के अपने सहयोगी ही उसे घेरने से नहीं चूक रहे हैं.
दरअसल अपने ही एजेंडे तले सामाजिक हार और अपनी ही सियासत तले राजनीतिक हार के दो फ्रंट एक साथ सत्ता को घेर रहे हैं. ढाई दशक में जब सब कुछ बदल चुका है तो फिर अयोध्या की गूंज का असर कितना होगा. और बनारस में अगर सर्वधर्म समभाव के साथ सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तहत ही तमाम धर्मो के साथ सहमति कर राम मंदिर का रास्ता खोजा जा रहा है तो फिर क्या ये संकेत 2019 की दिशा को तय कर रहे हैं.
क्योंकि अयोध्या हो या बनारस दोनों जगहों पर मुस्लिम फुसफुसाहट में ही सही पर ये कहने से नहीं चूक रहा है कि राम मंदिर बनाने से रोका किसने है. सत्ता आपकी, जनादेश आपके पास, तमाम संवैधानिक संस्थान आपके इशारे पर, तो फिर मंदिर को लेकर इतना हंगामा क्यों. और चाहे-अनचाहे अब तो हिंदू भी पूछ रहा है कि आंदोलन किसके खिलाफ है, जब शहर तुम्हारा, तुम्हीं मुद्दई, तुम्हीं मुंसिफ तो फिर मुस्लिम कसूरवार कैसे..