ब्लॉग: 2024 की तैयारी...स्थानीय नहीं राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर जोर देगी भाजपा, विपक्षी एकता बस एक मृगतृष्णा!

By अभय कुमार दुबे | Published: December 23, 2022 09:01 AM2022-12-23T09:01:34+5:302022-12-23T09:02:24+5:30

Preparation for 2024, BJP will emphasize on national-international issues | ब्लॉग: 2024 की तैयारी...स्थानीय नहीं राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर जोर देगी भाजपा, विपक्षी एकता बस एक मृगतृष्णा!

राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर जोर देगी भाजपा

भाजपा की निगाह विपक्ष के मुकाबले कहीं अधिक और कहीं पहले से 2024 के लोकसभा चुनावों पर टिक चुकी है. वह मतदाताओं को संदेश देना चाहती है कि वे स्थानीय समस्याओं से परे जाकर राष्ट्रीय और एक हद तक अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दें. आखिरकार उन्हें साल भर बाद ही एक बार फिर राष्ट्र का भविष्य तय करना है. 

इस चुनावी पेशबंदी में भाजपा को सफलता मिलने की संभावना अधिक है. कारण यह है कि चुनावी हालात पर ‘स्प्लिट वोटिंग’ या विभाजित मतदान की परिघटना हावी हो चुकी है. वोट डालते समय मतदाता पंचायत, नगरपालिका, विधानसभा और लोकसभा में अलग-अलग तरीके से सोचता है. जिस पार्टी को वह विधानसभा में हराता है, उसी को लोकसभा में उतने ही जोश से जिता देता है.  ऐसा कई राज्यों में हो चुका है. 

भाजपा इसी स्प्लिट वोट का लाभ उठा कर 2024 का समां बांधना चाहती है.जिस समय राजनीतिक समीक्षकों का दिमाग हिमाचल और गुजरात के चुनावों में फंसा हुआ था, उसी समय नरेंद्र मोदी और उनका प्रचार-तंत्र अपने किसी और इरादे को जमीन पर उतारने में लगा हुआ था. 

एक दिसंबर को जी-20 (बीस देशों का समूह) की अध्यक्षता भारत को मिलने के प्रकरण का जिस तरह से प्रचार किया गया, उसका मतलब यह निकाला जा सकता है कि भाजपा ने अघोषित रूप से 2024 के चुनाव की मुहिम का आगाज कर दिया है. पूरे 2023 के दौरान मोदीजी इस ग्रुप की अध्यक्षता करेंगे. 
सत्तारूढ़ दल इसका पूरा चुनावी दोहन करने के मूड में है. वह दिखाएगा कि किस तरह भारत एक विश्व-शक्ति के रूप में उभर रहा है. इस क्षण के महत्व का एहसास दिलाने के लिए सारे देश में मोबाइल-धारकों को संदेश भेजे गए. जितने राष्ट्रीय स्मारक हैं, उन पर होलोग्राम प्रक्षेपित किए गए. 

क्या यह बात किसी से छिपी रह सकती है कि जी-20 का लोगो भी कमल का फूल है, और भाजपा का चुनाव निशान भी कमल का फूल है. वैसे तो यह केवल एक संयोग है, क्योंकि यह लोगो सऊदी अरब के डिजाइनरों ने तैयार किया है. लेकिन, अब यह चुनाव लड़ने में माहिर भाजपा के हाथों लग गया है. वह सुनिश्चित करना चाहती है कि जी-20 की अध्यक्षता से वोटों की बारिश होनी चाहिए.

अगला साल (2023) नौ विधानसभा चुनावों का है. मार्च के महीने में मेघालय, नगालैंड और त्रिपुरा के चुनाव होंगे. कर्नाटक के चुनाव मई में होने हैं. छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना और मिजोरम के चुनाव साल के अंत में संपन्न कराए जाएंगे. यानी, एक बार फिर लोकसभा से पहले दक्षिण से उत्तर-पूर्व तक मतदाता भाजपा और विपक्ष द्वारा पेश किए गए मुद्दों का मूल्यांकन करने वाले हैं.

एक हद तक यकीन से कहा जा सकता है कि भाजपा इन चुनावों में अपनी राष्ट्रीय उपलब्धियों को भुनाने की कोशिश करेगी. वह कश्मीर, राम मंदिर, तीन तलाक, नागरिकता कानून और समान नागरिक संहिता से जुड़ी बातों पर जोर देना पसंद करेगी. इसके साथ-साथ वह निचले स्तर की आमदनी में फंसी देश की बहुसंख्यक जनता के साथ जोड़ने वाली केंद्र सरकार की स्कीमों को और मजबूती के साथ लागू करने की कोशिश करेगी. 

भाजपा से ज्यादा और कौन जानता है कि अर्थव्यवस्था की सामान्य गतिविधियों से न तो लोगों को रोजगार मिलने वाले हैं, न ही उनकी आमदनी बढ़ने वाली है. अगर लोगों को आर्थिक राहत नहीं दी जाएगी तो वे सरकार के खिलाफ हो जाएंगे. इस तरह स्थानीय मुद्दों की हवा निकालने के लिए राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों का इस्तेमाल करते हुए लाभार्थियों के संसार को पनपा कर भाजपा 2024 का रण जीतना चाहती है.

यह तो रही भाजपा की बात. भाजपा विरोधी विपक्ष क्या करेगा? उसकी रणनीति क्या है? इस संदर्भ में बार-बार एक बात कही जाती है कि विपक्षी एकता होनी चाहिए. कभी चंद्रशेखर राव इस तरह के संदेश देते हुए दिखते हैं, कभी नीतीश कुमार. लेकिन क्या विपक्षी एकता व्यावहारिक रूप से संभव है? 
2014 से अभी तक का तजुर्बा बताता है कि विपक्षी एकता दरअसल एक मृगतृष्णा के अलावा कुछ नहीं है. 

साठ के दशक में जिस गैर-कांग्रेसवाद का जन्म हुआ था, उसकी सफलताओं को गैर-भाजपावाद के रूप में दोहराने का स्वप्न साकार होने की संभावनाएं नगण्य ही हैं. कारण यह है कि राजनीति बदल चुकी है, विमर्श बदल चुका है, मतदाता बदल चुके हैं, चुनाव लड़ने का तरीका बदल चुका है. 

अब न सेक्युलरवाद का फिकरा चलता है, न सामाजिक न्याय की बातें असरदार रह गई हैं. मुसलमान वोटों की भाजपा विरोधी प्रभावकारिता खत्म हो गई है. पिछड़ों की एकता को भाजपा ने स्थायी रूप से खंडित कर दिया है. 

बिहार के अपवाद को छोड़कर वह अब ब्राह्मण-बनिया पार्टी नहीं रह गई है, और उसे दलित-आदिवासी भी वोट देने लगे हैं. इंदिरा गांधी ने अपनी करिश्माई हस्ती का लाभ उठाकर जिस लोकलुभावन राजनीति की शुरुआत की थी, वह नरेंद्र मोदी के करिश्मे के तहत मात्रा और आकार में कहीं विशाल, व्यापक और प्रभावी हो चुकी है.

Web Title: Preparation for 2024, BJP will emphasize on national-international issues

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