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प्रमोद भार्गव का ब्लॉग: किसान आंदोलन और मोदी सरकार की पहल

By प्रमोद भार्गव | Updated: December 11, 2020 15:49 IST

अब सरकार खेती-किसानी, डेयरी और मछली पालन से जुड़े लोगों के प्रति उदार दिखाई दे रही है, इससे लगता है कि भविष्य में किसानों को अपनी भूमि का किराया भी मिलने लग जाएगा. इन वृद्धियों से कृषि क्षेत्र की विकास दर में भी वृद्धि होने की उम्मीद बढ़ेगी.

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संविधान की सातवीं अनुसूची में खेती, भूमि, पानी, शिक्षा, पशु-पालन, कृषि-ऋण, राज्य-कर और भू-राजस्व जैसे सभी विषय राज्यों के अधीन हैं, अत: तीनों नए कृषि कानूनों के कोई भी प्रावधान राज्य सरकारों की इच्छा के विपरीत लागू नहीं किए जा सकते हैं. मसलन राज्य इन कानूनों को लागू करने या नहीं लागू करने के लिए स्वतंत्र हैं. 

1964 से पहले भारत में किसानों को खाद्य सुरक्षा नहीं मिलती थी. जय किसान, जय जवान का नारा देने वाले प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने अपने सचिव एल.के. झा के नेतृत्व में खाद्य अनाज मूल्य नीति समिति का गठन किया और किसान हित साधे. दरअसल, शास्त्री जी चाहते थे कि किसानों को फसल बेचकर इतनी धनराशि तो मिले की उनकी आजीविका सरलता से सालभर चल जाए.

इसी मकसद पूर्ति के लिए 1966 में गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय किया गया. तब से लेकर वर्तमान तक यह व्यवस्था लागू है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 23 फसलों पर एमएसपी सुनिश्चित किया हुआ है. लेकिन नए कानून में इस प्रावधान की गारंटी खत्म कर दी गई थी. संशोधन प्रस्ताव में इस व्यवस्था को बनाए रखने का लिखित भरोसा सरकार ने दे दिया है.

मसलन एमएसपी भविष्य में भी किसानों को मिलती रहेगी. किसानों को आशंका थी कि जब वह निजी मंडियों में फसल पहले से ही बेचने को स्वतंत्र थे, तब निजी मंडियों की व्यवस्था किसलिए ? इससे किसानों को आशंका थी कि वे निजी मंडियों के मालिकों के जाल में फंसते चले जाएंगे. ये मंडियां कर-मुक्त फसल की खरीद करेंगी, इसलिए सरकारी मंडियां बंद होती चली जाएंगी.

यह आशंका उचित है. सरकार ने अब संशोधन प्रस्ताव दिया है कि निजी मंडियों में राज्य सरकारें पंजीयन की व्यवस्था लागू कर सकती हैं और साथ ही सेस शुल्क भी लगा सकती हैं. हालांकि निजी मंडियां अस्तित्व में नहीं होने के बावजूद 65 फीसदी किसान स्थानीय निजी व्यापारियों को ही फसल बेचते हैं.

किसानों की जमीन पर उद्योगपतियों का कब्जा संविदा खेती के अनुबंध के बावजूद नहीं होगा. क्योंकि इस कानून में संशोधन किया गया है कि किसान की जमीन पर किसी भी प्रकार का ऋण अथवा मालिकाना हक व्यापारी को नहीं मिल सकता है और न ही किसान की जमीन बंधक रखी जा सकती है.

इन प्रावधानों के अलावा राज्य सरकारें किसानों के हित में कानून बनाने के लिए स्वतंत्र रहेंगी. यह प्रावधान तय करता है कि तीनों कानूनों में किसानों के हित ध्यान में रखते हुए बदलाव किए जा सकते हैं.  

नरेंद्र मोदी सरकार अस्तित्व में आने के बाद से ही खेती-किसानी के प्रति चिंतित रही है. इस नजरिए से उसने पहले कार्यकाल में न्यूनतम समर्थन मूल्य में भारी वृद्धि की थी, इसी क्रम में प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण नीति लाई गई थी. तब इस योजना को अमल में लाने के लिए अंतरिम बजट में 75,000 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया था. इसके तहत दो हेक्टेयर या पांच एकड़ से कम भूमि वाले किसानों को हर साल तीन किस्तों में कुल 6000 रुपए देने शुरू किए गए थे.

इसके दायरे में 14.5 करोड़ किसानों को लाभ मिल रहा है. जाहिर है, किसान की आमदनी दोगुनी करने का यह बेहतर उपाय है. यदि फसल बीमा का समय पर भुगतान, आसान कृषि ऋण और बिजली की उपलब्धता तय कर दी जाती है तो भविष्य में किसान की आमदनी दूनी होने में कोई संदेह नहीं रह जाएगा. खेती घाटे का सौदा न रहे इस दृष्टि से कृषि उपकरण, खाद, बीज और कीटनाशकों के मूल्य पर नियंत्रण भी जरूरी है.

बीते कुछ समय से पूरे देश में ग्रामों से मांग की कमी दर्ज की गई है. नि:संदेह गांव और कृषि क्षेत्र से जुड़ी जिन योजनाओं की श्रृंृंखला को जमीन पर उतारने के लिए 14.3 लाख करोड़ रुपए का बजट प्रावधान किया गया है, उसका उपयोग अब सार्थक रूप में होता है तो किसान की आय सही मायनों में 2022 तक दोगुनी हो पाएगी. दरअसल बीते कुछ सालों में कृषि निर्यात में सालाना करीब 10 अरब डॉलर की गिरावट दर्ज की गई है.

केंद्र सरकार फिलहाल एमएसपी तय करने के तरीके में ए-2 फॉर्मूला अपनाती है. यानी फसल उपजाने की लागत में केवल बीज, खाद, सिंचाई और परिवार के श्रम का मूल्य जोड़ा जाता है. इसके अनुसार जो लागत बैठती है, उसमें 50 फीसदी धनराशि जोड़कर समर्थन मूल्य तय कर दिया जाता है. जबकि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश है कि इस उत्पादन लागत में कृषि भूमि का किराया भी जोड़ा जाए.

इसके बाद सरकार द्वारा दी जाने वाली 50 प्रतिशत धनराशि जोड़कर समर्थन मूल्य सुनिश्चित किया जाना चाहिए. फसल का अंतरराष्ट्रीय भाव तय करने का मानक भी यही है. यदि भविष्य में ये मानक तय कर दिए जाते हैं तो किसान की खुशहाली और बढ़ जाएगी. 

अब सरकार खेती-किसानी, डेयरी और मछली पालन से जुड़े लोगों के प्रति उदार दिखाई दे रही है, इससे लगता है कि भविष्य में किसानों को अपनी भूमि का किराया भी मिलने लग जाएगा. इन वृद्धियों से कृषि क्षेत्र की विकास दर में भी वृद्धि होने की उम्मीद बढ़ेगी. वैसे भी यदि देश की सकल घरेलू उत्पाद दर को दहाई अंक में ले जाना है तो कृषि क्षेत्र की विकास दर 4 प्रतिशत होनी चाहिए.

खेती उन्नत होगी तो किसान संपन्न होगा और ग्रामीण अर्थव्यवस्था समृद्ध होगी. इसका लाभ देश की उद्योग आधारित अर्थव्यवस्था को भी मिलेगा

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