प्रमोद भार्गव का ब्लॉग: गरीबी रेखा के मापदंड को बदलने की कवायद!
By प्रमोद भार्गव | Published: October 28, 2020 02:26 PM2020-10-28T14:26:03+5:302020-10-28T14:26:03+5:30
गरीबी रेखा क्या हो, इस पर बहस लंबे समय से चली आ रही है. गरीबी तय करने की कवायद 1960 से निरंतर चल रही है. फिर भी अभी तक कोई खास सफलता नहीं मिली. कोई सरकार एक रेखा तय भी करती है तो विपक्ष उस पर यक्ष प्रश्न खड़े कर देता है.
केंद्र सरकार के केंद्रीय ग्राम पंचायत एवं विकास मंत्रालय ने नए सिरे से गरीबी रेखा तय करने के लिए वर्किग पेपर जारी किया है. अब इस पर्चे में गरीबी रेखा में मौजूद नागरिकों के घर, शिक्षा, वाहन, स्वच्छता आदि जानकारियों की प्रविष्टि की जाएगी. दरअसल विश्व-बैंक ने भारत को निम्न मध्यम आय श्रेणी में रखा है.
इस श्रेणी के लोगों का विश्व-बैंक के दिशा-निर्देशों के अनुसार प्रतिदिन औसत खर्च 75 रुपए होना चाहिए. चूंकि भारत में गरीबी रेखा के दायरे में आने वाले लोगों की आय 75 रुपए प्रतिदिन नहीं है इसलिए गरीबी रेखा के वर्तमान मानदंडों में नीतिगत बदलाव लाया जाना आवश्यक हो गया है.
गरीबों के लिए कोई निश्चित मानदंड निर्धारित नहीं
विडंबना है कि आजादी के 70 साल बाद भी गरीबों के लिए कोई निश्चित मानदंड निर्धारित नहीं हो पाए हैं. जबकि इस नजरिये से गरीबों की आमदनी तय करने की अनेक कोशिशें हो चुकी हैं, लेकिन गरीबी तय करने की कोई एक कसौटी नहीं बन पाई है.
इस यक्ष प्रश्न को सुलझाने की जवाबदेही जाने-माने अर्थशास्त्नी और नीति आयोग के उपाध्यक्ष रहे अरविंद पनगढ़िया को सौंपी गई थी. गरीबी रेखा तय करने के लिए 16 सदस्यीय टॉस्क फोर्स का भी गठन किया गया था.
चूंकि नीति आयोग देश के ढांचागत विकास और लोक-कल्याणकारी योजनाओं की भूमिका तैयार करता है इसीलिए उसके पास आधिकारिक सूचनाएं और आंकड़े भी होते हैं, गोया उम्मीद थी कि टॉस्क फोर्स सर्वमान्य फॉर्मूला सुझाएगा. लेकिन लंबी जद्दोजहद के बाद फोर्स ने गरीबी रेखा की कसौटी सुनिश्चित करने से मना कर दिया था.
एक फीसदी आबादी के पास देश का 53 प्रतिशत धन
गरीबी तय करने की कवायद 1960 से निरंतर चल रही है. कोई एक सरकार एक रेखा तय करती है तो विपक्ष उस पर यक्ष प्रश्न खड़े कर देता है, किंतु उसी विपक्ष पर जब कसौटी तय करने की जिम्मेदारी आती है तो बगलें झांकने लगता है. यही वजह है कि देश में गैर-बराबरी की खाई दिनोंदिन चौड़ी हो रही है.
ऑक्सफेम की रिपोर्ट के मुताबिक भारत के 63 अरबपतियों के पास केंद्रीय बजट से अधिक संपत्ति है. इसी तरह क्रेडिट सुइस एजेंसी के अनुसार वैश्विक धन के बंटवारे के बारे में जारी रिपोर्ट से खुलासा हआ है कि भारत में सबसे धनी एक फीसदी आबादी के पास देश का 53 प्रतिशत धन है.
इसके उलट 50 फीसदी गरीब जनता के पास देश की सिर्फ 4.1 प्रतिशत धन-संपत्ति है. साफ है कि सामाजिक, आर्थिक, स्वास्थ्य और शैक्षिक न्याय के सरकारों के तमाम दावों के बावजूद असमानता सुरसा-मुख की तरह बढ़ रही है. नतीजा है कि साल 2000 में देश के सबसे धनी 10 फीसदी लोगों के पास 36.8 प्रतिशत धन-संपदा थी, जो आज 65.9 फीसदी से ऊपर पहुंच चुकी है.
भारत में गैर-बराबरी अमेरिका से कहीं ज्यादा
भारत में लोक-कल्याणकारी नीतियां दलीय एजेंडों में शामिल रहती हैं, लेकिन जब दल सत्तारूढ़ होते हैं तो इन नीतियों को नजरअंदाज कर दिया जाता है. दरअसल भारत में गैर-बराबरी अमेरिका से कहीं ज्यादा है. भारत में जितना राष्ट्रीय धन पैदा हो रहा है, उसका बहुत बड़ा हिस्सा चंद पूंजीपतियों की तिजोरी में बंद हो रहा है.
क्रेडिट सुइस की रिपोर्ट के मुताबिक 2000-15 के बीच भारत में 2.284 खरब डॉलर धन पैदा हुआ, जिसका 61 प्रतिशत हिस्सा अधिकतम धनी महज एक प्रतिशत पूंजीपतियों के पास चला गया. 20 प्रतिशत धन अन्य 9 फीसदी पूंजीपतियों की जेब में गया. शेष बचा महज 19 प्रतिशत, जो देश की 90 फीसदी आबादी में बंटा.
देश की यही बड़ी आबादी फटेहाल है, बावजूद क्या यह मान लिया जाए कि कहीं गरीब का पेट ठीक से भरने न लग जाए इसलिए गरीबी रेखा बार-बार तय करने के उपाय किए जाते हैं? शायद इस हकीकत को अनुभव करने के बाद ही पूर्व राष्ट्रपति के.आर. नारायणन को कहना पड़ा था कि देश में बड़ी मात्ना में खाद्यान्न उपलब्ध है, इसके बावजूद कोई नागरिक भूखा सोता है तो इसका मतलब है कि उसके पास अनाज खरीदने के लिए पर्याप्त धन नहीं है.
यह स्थिति आज भी बरकरार है, क्योंकि 2019 की जो भूख सूचकांक रिपोर्ट आई है, उसमें भारत 94वें स्थान पर है. जबकि 2018 में 102वें स्थान पर था. देश में 14 प्रतिशत आबादी अभी भी कुपोषित है. संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि कोरोना प्रकोप के चलते आठ करोड़ अतिरिक्त लोग भारत में गरीब हो जाएंगे.