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ब्लॉग: प्रदूषण की मार से बिगड़ती जा रही है नदियों की सेहत

By पंकज चतुर्वेदी | Updated: December 23, 2021 15:04 IST

विश्व बैंक से इसके लिए कोई एक अरब डॉलर का कर्ज भी लिया गया, लेकिन न तो गंगा में पानी की मात्रा बढ़ी और न ही उसका प्रदूषण घटा। सनद रहे कि यह हाल केवल गंगा का ही नहीं है। देश की अधिकांश नदियों को स्वच्छ करने के अभियान कागज, नारों में व बजट को ठिकाने लगाने से ज्यादा नहीं रहे हैं।

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एक अनुमान है कि आजादी के बाद से अभी तक गंगा की सफाई के नाम पर कोई 20 हजार करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं। अप्रैल 2011 में गंगा सफाई की एक योजना सात हजार करोड़ की बनाई गई।

विश्व बैंक से इसके लिए कोई एक अरब डॉलर का कर्ज भी लिया गया, लेकिन न तो गंगा में पानी की मात्रा बढ़ी और न ही उसका प्रदूषण घटा। सनद रहे कि यह हाल केवल गंगा का ही नहीं है। देश की अधिकांश नदियों को स्वच्छ करने के अभियान कागज, नारों में व बजट को ठिकाने लगाने से ज्यादा नहीं रहे हैं।

लखनऊ में गोमती पर छह सौ करोड़ फूंके गए लेकिन हालत जस की तस है तो यमुना कई सौ करोड़ लगाने के बाद भी दिल्ली से आगे और मथुरा-आगरा तक नाले के मानिंद ही रहती है। यह सभी जानते हैं कि मानवता का अस्तित्व जल पर निर्भर है और आम इंसान के पीने-खेती-मवेशी के लिए अनिवार्य मीठे जल का सबसे बड़ा जरिया नदियां ही हैं।

जहां-जहां से नदियां निकलीं, वहां-वहां बस्तियां बसती गईं और इस तरह विविध संस्कृतियों, भाषाओं, जाति-धर्मो का भारत बसता चला गया। तभी नदियां पवित्र मानी जाने लगीं-केवल इसलिए नहीं कि इनसे जीवनदायी जल मिल रहा था, बल्कि इसलिए भी कि इन्हीं की छत्रछाया में मानव सभ्यता पुष्पित-पल्लवित होती रही।

गंगा और यमुना को भारत की अस्मिता का प्रतीक माना जाता रहा है, लेकिन विडंबना है कि विकास की बुलंदियों की ओर उछलते देश में अमृत बांटने वाली नदियां आज खुद जहर पीने को अभिशप्त हैं। इसके बावजूद देश की नदियों को प्रदूषण-मुक्त करने की नीतियां महज नारों से आगे नहीं बढ़ पा रही हैं। 

हमारी नदियां इन दिनों कई दिशाओं से हमले ङोल रही हैं- उनमें पानी कम हो रहा है, वे उथली हो रही हैं, उनसे रेत निकाल कर उनका मार्ग बदला जा रहा है, नदियों के किनारे पर हो रही खेती से बहकर आ रहे रासायनिक पदार्थ, कल-कारखानों और घरेलू गंदगी का नदी में सीधा मिलना इन कारणों में शामिल है।  हमारे देश में 13 बड़े, 45 मध्यम और 55 लघु जलग्रहण क्षेत्र हैं। जल ग्रहण क्षेत्र उस संपूर्ण इलाके को कहा जाता है, जहां से पानी बहकर नदियों में आता है। इसमें हिमखंड, सहायक नदियां, नाले आदि शामिल होते हैं।

जिन नदियों का जलग्रहण क्षेत्र 20 हजार वर्ग किलोमीटर से बड़ा होता है, उन्हें बड़ा-नदी जलग्रहण क्षेत्र कहते हैं। 20 हजार से दो हजार वर्ग किलोमीटर वाले को मध्यम, दो हजार से कम वाले को लघु जल ग्रहण क्षेत्र कहा जाता है। 

इस मापदंड के अनुसार गंगा, सिंधु, गोदावरी, कृष्णा, ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, तापी, कावेरी, पेन्नार, माही, ब्राह्मणी, महानदी और साबरमती बड़े जल ग्रहण क्षेत्र वाली नदियां हैं।

इनमें से तीन नदियां - गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र हिमालय के हिमखंडों के पिघलने से अवतरित होती हैं। इन सदानीरा नदियों को ‘हिमालयी नदी’ कहा जाता है। शेष दस को पठारी नदी कहते हैं, जो मूलत: वर्षा पर निर्भर होती हैं।

यह आंकड़ा वैसे बड़ा लुभावना लगता है कि देश का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 32.80 लाख वर्ग किलोमीटर है, जबकि सभी नदियों का सम्मिलित जलग्रहण क्षेत्र 30.50 लाख वर्ग किलोमीटर है।

भारतीय नदियों के मार्ग से हर साल 1645 घन किलोलीटर पानी बहता है जो सारी दुनिया की कुल नदियों का 4.445 प्रतिशत है। लेकिन चिंता का विषय यह है कि पूरे पानी का कोई 85 फीसदी बारिश के तीन महीनों में समुद्र की ओर बह जाता है और नदियां सूखी रह जाती हैं।

सन 2009 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने देश में कुल दूषित नदियों की संख्या 121 पाई थी जो अब 275 हो चुकी है। यही नहीं आठ साल पहले नदियों के कुल 150 हिस्सों में प्रदूषण पाया गया था जो अब 302 हो गया है। बोर्ड ने 29 राज्यों व छह केंद्रशासित प्रदेशों की कुल 445 नदियों पर अध्ययन किया, जिनमें से 225 का जल बेहद खराब हालत में मिला।

भारत में प्रदूषित नदियों के बहाव का इलाका 12363 किमी मापा गया है। इनमें से 1145 किमी का क्षेत्र पहले स्तर यानी बेहद दूषित श्रेणी का है। दिल्ली में यमुना इस पर शीर्ष पर है, इसके बाद महाराष्ट्र का नंबर आता है जहां 43 नदियां मरने के कगार पर हैं।

असम में 28, मध्यप्रदेश में 21, गुजरात में 17, कर्नाटक में 15, केरल में 13, बंगाल में 17, उप्र में 13, मणिपुर और ओडिशा में 12-12, मेघालय में दस और कश्मीर में नौ नदियां अपने अस्तित्व के लिए तड़प रही हैं।

ऐसी नदियों के कोई 50 किमी इलाके के खेतों की उत्पादन क्षमता लगभग पूरी तरह समाप्त हो गई है। इलाके की अधिकांश आबादी चर्मरोग, सांस की बीमारी और पेट के रोगों से बेहाल है।

भूजल विभाग का एक सर्वे गवाह है कि नदी के किनारे हैंडपंपों से निकल रहे पानी में क्षारीयता इतनी अधिक है कि यह न तो इंसान के लायक है, न ही खेती के सरकार के ही पर्यावरण और प्रदूषण विभाग बीते 20 सालों से चेताते रहते हैं लेकिन आधुनिकता का लोभ पूरे सिस्टम को लापरवाह बना रहा है।

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