पंकज चतुर्वेदी का ब्लॉग: जलवायु परिवर्तन से बुरी तरह प्रभावित हो सकता है कृषि क्षेत्र
By पंकज चतुर्वेदी | Published: October 9, 2020 02:28 PM2020-10-09T14:28:59+5:302020-10-09T14:28:59+5:30
भारत मौसम, भूमि-उपयोग, वनस्पति, जीव के मामले में व्यापक विविधता वाला देश है और यहां जलवायु परिवर्तन का प्रभाव भी कुछ सौ किलोमीटर की दूरी पर अलग किस्म से हो रहा है.
खेती-किसानी को लाभ का काम बनाने के इरादे से संसद में पास हुए तीन बिल के बाद पूरे देश में किसान आंदोलन खड़ा हो रहा है.
हकीकत यह है कि खेती के बढ़ते खर्चे, फसल का माकूल दाम न मिलने, किसान-उपभोक्ता के बीच कई-कई बिचौलियों की मौजूदगी, फसल को सुरक्षित रखने के लिए गोडाउन व कोल्ड स्टोरेज और प्रस्तावित कारखाने लगाने और उसमें काम करने वालों के आवास के लिए जमीन की जरूरत पूरा करने के वास्ते अन्न उगाने वाले खेतों को उजाड़ने जैसे विषयों पर तो बहुत चर्चा हो रही है, लेकिन भारत में खेती के समक्ष सबसे खतरनाक चुनौती - जलवायु परिवर्तन और खेती के घटता रकबे पर कम ही विमर्श है.
अब बहुत देर नहीं है जब किसान के सामने बदलते मौसम के कुप्रभाव उसकी मेहनत और प्रतिफल के बीच खलनायक की तरह खड़े दिखेंगे. हालांकि बीते कुछ वर्षो में मौसम का चरम होना- खासकर अचानक ही बहुत सारी बरसात एक साथ हो जाने से खड़ी फसल की बर्बादी किसान को कमजोर करती रही है.
कृषि मंत्रलय के भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का एक ताजा शोध बताता है कि सन 2030 तक धरती के तापमान में 0.5 से 1.2 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि अवश्यंभावी है. साल-दर-साल बढ़ते तापमान का प्रभाव सन 2050 में 0.80 से 3.16 और सन 2080 तक 1.56 से 5.44 डिग्री हो सकता है. जान लें कि तापमान में एक डिग्री बढ़ोत्तरी का अर्थ है कि खेत में 360 किलो फसल प्रति हेक्टेयर की कमी आ जाना.
इस तरह जलवायु परिवर्तन के चलते खेती के लिहाज से 310 जिलों को संवेदनशील माना गया है. इनमें से 109 जिले बेहद संवेदनशील हैं जहां आने वाले एक दशक में ही उपज घटने, पशु धन से लेकर मुर्गी पालन व मछली उत्पाद तक कमी आने की आशंका है. तापमान बढ़ने से बरसात के चक्र में बदलाव, बेमौसम व असामान्य बारिश, तीखी गर्मी व लू, बाढ़ व सूखे की सीधी मार किसान पर पड़नी है.
देश की अर्थव्यवस्था का मूल आधार कृषि है और कोरोना वायरस संकट में गांव-खेती-किसानी ही अर्थव्यवस्था की उम्मीद बची है. आजादी के तत्काल बाद देश के सकल घरेलू उत्पाद में खेती की भूमिका 51.7 प्रतिशत थी जबकि आज यह घट कर 13.7 प्रतिशत हो गई है.
कृषि प्रधान कहे जाने वाले देश में किसान ही कम हो रहे हैं. सन 2001 से 2011 के बीच के दस वर्षो में किसानों की संख्या 85 लाख कम हो गई. वर्ष-2001 की जनगणना के अनुसार देश में किसानों की कुल संख्या 12 करोड़ 73 लाख थी जो 2011 में घटकर 11 करोड़ 88 लाख हो गई.
भारत मौसम, भूमि-उपयोग, वनस्पति, जीव के मामले में व्यापक विविधता वाला देश है और यहां जलवायु परिवर्तन का प्रभाव भी कुछ सौ किलोमीटर की दूरी पर अलग किस्म से हो रहा है. लेकिन पानी बचाने और कुपोषण व भूख से निपटने की चिंता पूरे देश में एक समान है. हमारे देश में उपलब्ध ताजे पानी का 75 फीसदी अभी भी खेती में खर्च हो रहा है.
तापमान बढ़ने से जल-निधियों पर मंडरा रहे खतरे तो हमारा समाज गत दो दशकों से ङोल ही रहा है. प्रोसिडिंग्स ऑफ नेशनल अकादमी ऑफ साइंस नामक जर्नल के नवीनतम अंक में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार भारत को जलवायु परिवर्तन के कृषि पर प्रभावों को कम करते हुए यदि पोषण के स्तर को कायम रखना है तब रागी, बाजरा और जई जैसी फसलों का उत्पादन बढ़ाना होगा.
इस अध्ययन को कोलंबिया यूनिवर्सिटी के डाटा साइंस इंस्टीट्यूट ने किया है. कोलंबिया यूनिवर्सिटी के डाटा साइंस इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक डॉ. कैले डेविस ने भारत में जलवायु परिवर्तन के कृषि पर प्रभावों, पोषण स्तर, पानी की कमी, घटती कृषि उत्पादकता और कृषि विस्तार के लिए भूमि के अभाव पर गहन अध्ययन किया है.
इस संदर्भ में उनके अनुसार भारत में तापमान वृद्धि के कारण कृषि में उत्पादकता घट रही है और साथ ही पोषक तत्व भी कम होते जा रहे हैं. भारत को यदि तापमान वृद्धि के बाद भी भविष्य के लिए पानी बचाना है और साथ ही पोषण स्तर भी बढ़ाना है तो गेहूं और चावल पर निर्भरता कम करनी होगी.
इन दोनों फसलों को पानी की बहुत अधिक आवश्यकता होती है और इनसे पूरा पोषण भी नहीं मिलता. चावल और गेहूं पर अत्यधिक निर्भरता इसलिए भी कम करनी पड़ेगी क्योंकि भारत उन देशों में शुमार है जहां तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक असर पड़ने की आशंका है और ऐसी स्थिति में इनकी उत्पादकता और पोषक तत्व दोनों पर प्रभाव पड़ेगा.
इसरो द्वारा इसी साल प्रस्तुत ‘मरुभूमि विस्तार और भूमि क्षति एटलस’ की चर्चा भी प्रासंगिक है. इसके मुताबिक एक ओर भारत की कुल कृषि भूमि का 30 प्रतिशत हिस्सा पानी की कमी के चलते बंजर होने के कगार पर है, तो वहीं दूसरी ओर चौथाई हिस्सा अंधाधुंध वन कटान ङोल रहा है. वर्ष 2003-05 से 2011-13 के बीच मरुभूमि में तब्दील होने की दर और कृषि योग्य भूमि में कमी का स्तर काफी बढ़ा हुआ साफ दिखाई दिया.