ब्लॉग: संसद की सर्वोच्चता को प्राथमिकता देने से ही संवैधानिक लोकतंत्र की परंपराओं को मिलेगी मजबूती

By राजेश बादल | Published: July 19, 2022 10:19 AM2022-07-19T10:19:01+5:302022-07-19T10:20:01+5:30

सर्वोच्च न्यायालय ने भी साफ-साफ कहा है कि संसदीय समितियों की रिपोर्ट की वैधता पर न तो सवाल उठाया जा सकता है और न ही अदालतों में उसे चुनौती दी जा सकती है.

Only by giving priority to the supremacy of Parliament, the traditions of constitutional democracy will be strengthened | ब्लॉग: संसद की सर्वोच्चता को प्राथमिकता देने से ही संवैधानिक लोकतंत्र की परंपराओं को मिलेगी मजबूती

ब्लॉग: संसद की सर्वोच्चता को प्राथमिकता देने से ही संवैधानिक लोकतंत्र की परंपराओं को मिलेगी मजबूती

संसद का मानसून सत्र प्रारंभ हो गया. यह सत्र इस मायने में खास है कि भारत के नए राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति इसी मानसून सत्र के दरम्यान देश को मिल जाएंगे. इसके अलावा अगले लोकसभा चुनाव से पहले अब सिर्फ अगले साल का मानसून सत्र होगा. कोई नहीं कह सकता कि वह सत्र मुल्क के चुनावी माहौल को गरमाये हुए होगा और कितनी गुणवत्ता बरकरार रख पाएगा. 

इसलिए वर्तमान मानसून सत्र में ही हम संवैधानिक लोकतंत्र की परंपराओं को मजबूत करने वाले संसदीय वातावरण की अपेक्षा कर सकते हैं. अलबत्ता पिछले आम निर्वाचन के बाद आयोजित संसद के सत्रों का गहराई से विवेचन करें तो निराशा ही हाथ लगती है. मौजूदा सरकार के काम संभालने के तुरंत बाद का सत्र इस प्रसंग में सबसे बेहतर माना जा सकता है. उसमें न शोरगुल हुआ और न ही काम रुका. जितना काम उस सत्र के दौरान हुआ, उतना बाद के वर्षों में नहीं हुआ.

आम तौर पर कोई विधेयक बिना चर्चा के पारित होना अच्छा नहीं माना जाता. बहस और सारे पहलुओं पर चर्चा होने से विधेयक की अनेक खामियों और कमजोरियों का पता चलता है. उससे असहमति में भी अंततः राष्ट्र की भलाई की मंशा ही निहित होती है. इसलिए तो सदन में विधेयक रखते समय कहा जाता है कि वह सदन के विचार के लिए रखा जा रहा है. 

अगर लोकतंत्र पचहत्तर साल से इसका पालन (अपवाद छोड़कर) करता आ रहा है तो जाहिर है कि अचानक इस परंपरा से देश के सामने कोई संकट नहीं खड़ा हुआ है. पिछले साल मानसून सत्र का अनुभव इस मामले में निराश करने वाला था. उस समय किसान आंदोलन चल रहा था, पेगासस प्रसंग गरमाया हुआ था, कोरोना के बाद उपजी परिस्थितियां सामने थीं, बेरोजगारी, आर्थिक नीति और महंगाई भी चर्चाओं के केंद्रबिंदु थे. 

प्रतिपक्ष ने काम रोको प्रस्ताव पेश किया और चर्चा की मांग की. उसका कहना था कि उस वक़्त प्रधानमंत्री और गृह मंत्री भी सदन में होने चाहिए. पर, ऐसा नहीं हो सका. पहले दिन तो शून्यकाल और प्रश्नकाल ही नहीं हो सके. करीब 200 प्राइवेट मेंबर्स बिल सूचीबद्ध थे. वे पेश नहीं हो सके. पहले सप्ताह केवल दस फीसदी काम लोकसभा में हुआ और 26 प्रतिशत काम राज्यसभा में संपन्न हुआ. सात विधेयक तो बिना चर्चा के ही पास हो गए थे. कोई भी संसदीय जानकार इसे पसंद नहीं करेगा.

भारतीय संसद के लिए स्थायी समितियां एक तरह से प्राणवायु का काम करती हैं. समय-समय पर इन समितियों ने अपनी उपयोगिता सिद्ध की है. इनके सदस्यों ने दलगत राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्रीय हित में अपनी अनुशंसाएं की हैं. भारत को उनका लाभ भी मिला है. पर, हाल के वर्षों में इन समितियों की रपटों पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया जा रहा है. 

पिछले मानसून सत्र का एक उदाहरण काफी होगा. 28 जुलाई को सूचना तकनीक (इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी) की स्थायी समिति की बैठक थी. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस क्षेत्र में विशेषज्ञता और दक्षता के लिए भारत की आज दुनिया भर में सराहना होती है. लेकिन इसमें जिन अधिकारियों को जाना चाहिए था, वे ही नहीं गए. संसदीय इतिहास में संभवतया यह पहला अवसर था, जब अधिकारियों ने एक समिति की उपेक्षा की थी. 

इतना ही नहीं, अनेक सांसदों ने तो समिति की सिफारिशों पर हस्ताक्षर करने से ही इनकार कर दिया, जबकि उन्हीं की सहमति से यह रपट तैयार की गई थी. यह संसदीय गरिमा की रक्षा करने वाला कदम नहीं कहा जा सकता. यदि सांसद और अधिकारी भारतीय हितों के बारे में अगंभीर हो सकते हैं तो उनके परिणामों पर भी ध्यान देना आवश्यक है. 

संसदीय समितियों की ताकत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय ने साफ-साफ कहा है कि संसदीय समितियों की रिपोर्ट की वैधता पर न तो सवाल उठाया जा सकता है और न ही अदालतों में उसे चुनौती दी जा सकती है. यहां तक कि उनकी रिपोर्ट पर न्यायालय संज्ञान ले सकते हैं. संसदीय समितियों के सदस्यों के विचारों और निष्कर्षों को भी अदालतों में चुनौती नहीं दी जा सकती. 

इसी कारण इन समितियों को लघु संसद भी कहा जाता है. साल भर में उनकी 400 से अधिक बैठकें आयोजित होती रही हैं. इन समितियों की अवहेलना बेहद गंभीर मसला है.  

कई बार संसद की सियासी प्राथमिकताओं के चलते भी संवेदनशील मामलों की भी उपेक्षा हो जाती है. इसका निचले स्तर पर उल्टा असर भी पड़ता है. अधिकारी लापरवाह हो जाते हैं. वे सोचते हैं जब जनप्रतिनिधियों को ही चिंता नहीं है तो वे सिरदर्द क्यों मोल लें.
न्यायमूर्ति श्रीकृष्ण समिति ने डाटा प्रोटेक्शन एक्ट का प्रारूप बना कर दिया. 

इसका उद्देश्य आम नागरिकों के बारे में जानकारी सुरक्षित रखने से संबंधित था. इसमें डाटा प्रोटेक्शन अथॉरिटी की स्थापना का भी प्रस्ताव है. यह अथॉरिटी भारतीयों की जानकारी का दुरुपयोग रोकने को भी सुनिश्चित कर सकती है. इसमें यह भी प्रस्ताव है कि नागरिकों की व्यक्तिगत संवेदनशील जानकारी बिना उनकी स्पष्ट सहमति के विदेश नहीं भेजी जा सकेगी. विदेश जाने वाली हर व्यक्तिगत जानकारी की प्रति भारत में भी सुरक्षित रखी जाएगी. 

विधेयक में प्रावधानों का उल्लंघन होने पर भारी-भरकम जुर्माने और जेल की सजा तक का प्रावधान है. लेकिन कमेटी की 66 बैठकें हो चुकी हैं. रिपोर्ट पर अमल होना बाकी है. यह रिपोर्ट भारतीय मतदाताओं की निजता से जुड़ी हुई है. इसलिए इसका महत्व बढ़ जाता है. इन दिनों भारत राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनेक चुनौतियों का सामना कर रहा है. संसद के सर्वदलीय मंच पर इनके बारे में चर्चा हो और समाधान खोजा जाए तो बेहतर है.

Web Title: Only by giving priority to the supremacy of Parliament, the traditions of constitutional democracy will be strengthened

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