One Nation One Election Bill: ‘एक देश, एक चुनाव’ में लोकतांत्रिक पेंच भी हैं?, कम खर्च में लोकतांत्रिक अनुष्ठान को संपन्न
By राजेश बादल | Updated: December 18, 2024 05:25 IST2024-12-18T05:25:01+5:302024-12-18T05:25:01+5:30
One Nation One Election Bill: राजनीतिक दलों ने इसी मकसद से अपने निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के लिए सदन में मंगलवार को उपस्थित रहने के लिए व्हिप जारी किया था.

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One Nation One Election Bill: इन दिनों भारतीय लोकतंत्र एक महत्वपूर्ण दोराहे पर खड़ा है कि सभी प्रदेशों के विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एक साथ कराए जाएं अथवा जैसा अभी चल रहा है, वैसा ही चलने दिया जाए. ‘एक देश, एक चुनाव’ के समर्थन में सबसे महत्वपूर्ण तर्क यह दिया जा रहा है कि हिंदुस्तान जैसे विराट विकासशील देश के लिए कम खर्च में इस लोकतांत्रिक अनुष्ठान को संपन्न कराया जा सकता है. दो बार चुनाव कराने में होने वाले अतिरिक्त व्यय को नियंत्रित किया जा सकता है और संबंधित प्रदेश की नौकरशाही को विकास कार्यों के लिए अधिक वक्त मिल सकेगा.
संभवत: कोविंद समिति ने इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए अपनी अनुशंसा की है. इसी भावना के तहत अब संसद भी विचार करेगी. कुछ राजनीतिक दलों ने इसी मकसद से अपने निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के लिए सदन में मंगलवार को उपस्थित रहने के लिए व्हिप जारी किया था. समूचे राष्ट्र में एक बार चुनाव के पक्ष में यह बात भी कही जा रही है कि आजादी के बाद प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने 1952 से 1962 तक एक साथ लोकसभा और सभी विधानसभाओं के निर्वाचन संपन्न कराए थे, इसलिए आज भी यह प्रासंगिक है.
हालांकि उस समय तो स्वतंत्र भारत के लोकतंत्र की शुरुआत ही थी. सन् 1951 में चुनाव कानून बना और चुनाव आयोग अस्तित्व में आया था. पूरे मुल्क में सारे चुनाव एक साथ कराने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं था. इसलिए यह तर्क कि उन दिनों एक साथ जम्हूरियत का यज्ञ कराया जा सकता था तो आज भी हो सकता है- तनिक अटपटा लगता है.
क्योंकि उन दिनों आजादी के आंदोलन से निकले तपे-तपाए राजनेता थे और उनका नैतिक धरातल आज के सियासी माहौल से बहुत ऊपर था. हमारे तंत्र में धीरे-धीरे जो राजनीतिक बीमारियां घर बनाती गईं, उनके कारण अनेक सियासी सिद्धांत, मूल्य, व्यवहार और आदर्श हाशिए पर चले गए. एक साथ चुनाव की यह स्वस्थ परंपरा भी विलुप्त होती गई.
कराहता हुआ लोकतंत्र आगे बढ़ता रहा. संभव है कि आज के दौर में राजनीतिक नियंताओं के मन में फायदे की एक वजह यह भी हो कि अगर लोकसभा में किसी दल के पक्ष में मतदाता अपना वोट दे तो बहुत संभव है कि विधानसभा के लिए भी वह उसी पार्टी का चुनाव करे. इस तरह जो भी दल सत्ता में होगा, उसके दोनों हाथों में लड्डू होगा.
उसे केंद्र में तो बहुमत मिलेगा ही और राज्यों में भी उसकी सरकारें बन जाएं. इसके अलावा एक लाभ यह भी होगा कि केंद्र की छवि के आधार पर उसे प्रदेश में अपनी सरकार को बचाने का अवसर मिल जाए. वैसे यह नैतिक आधार पर उचित नहीं है क्योंकि उस दल की प्रदेश सरकार ने खराब प्रदर्शन किया हो तो अकर्मण्यता के बाद भी उसे पांच साल का जनादेश मिल जाएगा.
पर नैतिक आधारों के लिए हमारे समाज में अब जगह कहां बची है? एक बार गौर कीजिए कि 1970 तक देश में दलबदल की बुराई न्यून थी. आयाराम-गयाराम की कुप्रथा विकराल नहीं हुई थी. चुनाव में धनबल और बाहुबल का वैसा जोर नहीं था, जैसा आज है. यह देखने में कभी नहीं आता था कि समूचे प्रचार अभियान में जो दल आमने-सामने चुनाव लड़ते हों और वैचारिक आधार पर अलग-अलग ध्रुवों पर खड़े हों, वे चुनाव परिणाम आते ही सत्ता की मलाई खाने के लिए एक होकर सरकार बना लें. हरियाणा इसका ताजा उदाहरण है.
हम यह भी नहीं देखते कि चुनाव में सबसे बड़े दल के रूप में उभरा दल या बहुमत प्राप्त गठबंधन सरकार बनाने की तैयारी कर रहा हो और देखते ही देखते उसके विधायक खरीद लिए जाएं और वे पाला बदलकर पराजित पक्ष के साथ खड़े हो जाएं. सरकार उसकी बने, जिसको जनादेश ही नहीं मिला था. इन दोनों स्थितियों में चुनाव लड़ने वाली दोनों पार्टियां जीत जाती हैं.
मतदाता बेचारा हार जाता है. उसके वोट का मखौल उड़ता है. यह गणतंत्र का उपहास है इसलिए इन राजनीतिक महामारियों के चलते एक देश-एक चुनाव की अच्छी मंशा के बाद भी उस पर संकट के काले बादल नहीं मंडराएंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है. एक उदाहरण इसे समझने के लिए पर्याप्त होगा. मान लीजिए कि ‘एक देश, एक चुनाव’ प्रणाली के तहत भारत में चुनाव हो गए और जीतने वाले दल या दलों ने केंद्र तथा राज्यों में अपनी-अपनी सरकारें बना लीं तो वे निर्वाचित सत्ताएं अपने पांच साल पूरे करेंगी ही, यह कौन कह सकता है?
हालिया दशकों में भारतीय राजनीति की दशा और दिशा इस संदर्भ में आशा नहीं जगाती. सत्तारूढ़ पार्टियों के विधायकों का विपक्षी दलों ने शिकार किया और निर्वाचित सरकार गिरा दी गई. इसलिए चुनाव होने के बाद पांच साल का कार्यकाल पूरा होने से पहले ही धनबल से किसी प्रदेश की चलती हुई सरकार को अल्पमत में लाकर गिरा दिया जाए तो क्या यह लोकतंत्र की पराजय नहीं होगी?
दूसरी बात यह भी है कि यदि कोई राज्य सरकार पांच साल पूरे नहीं कर पाती और विधायकों की खरीद-फरोख्त से नई सरकार नहीं बन पाती तो राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ेगा. चुनाव के एक बरस बाद ही कोई सरकार अल्पमत में आ जाए तो क्या चार साल तक राष्ट्रपति शासन लगा रहेगा, क्योंकि अगले चुनाव तो लोकसभा के साथ ही होने हैं. रा
ष्ट्रपति शासन एक तरह से केंद्र सरकार की हुकूमत ही है. ऐसे में ‘एक देश, एक चुनाव’ की मंशा विकृत नहीं होगी? यकीनन लोकतांत्रिक भावना को भी ठेस पहुंचेगी क्योंकि प्रदेश का विकास निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के हाथों से ही हो सकता है. यही हमारा संविधान कहता है.
जब निर्वाचित सरकार नहीं होगी तो जाहिर है कि प्रतिपक्ष भी नहीं होगा और असहमति के सुर भी खामोश रहेंगे. उन्हें संरक्षण देने की बात तो बाद में आती है. अंतिम बात यह कि विधानसभा के निलंबित या भंग रहने की स्थिति में प्रदेश के स्थानीय मसलों का क्या होगा? लोकसभा में तो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर विमर्श के लिए ही समय नहीं निकल पाता.
साथ ही सांसद यह शिकायत करते हैं कि उनके संसदीय क्षेत्र के मामले सदन में पर्याप्त समय नहीं मिलने के कारण दम तोड़ देते हैं. फिर, एक विधायक के निर्वाचन क्षेत्र के मुद्दों का क्या होगा? कुल मिलाकर यह कोई स्वस्थ परंपरा नहीं होगी.