#MeToo पर एनके सिंह का ब्लॉगः अनैतिक आचरण और आपराधिक दोष

By लोकमत न्यूज़ ब्यूरो | Updated: October 20, 2018 21:20 IST2018-10-20T21:20:54+5:302018-10-20T21:20:54+5:30

संपादकों की संस्था ने तो न कभी व्यावहारिक मानदंड तय किया न ही कभी संपादकों की लम्पटता इनके राडार पर रही है। वर्तमान में संसद इस खतरे के खिलाफ कार्यालयों में ‘बॉस’ द्वारा महिला मातहतों पर की जा रही हिंसक कामुकता के खिलाफ एक नया कानून ला सकती है जिसमें अपने को ‘निदरेष सिद्ध करने की जिम्मेदारी’ (बर्डन ऑफ प्रूफ) आरोपी पर हो न कि आरोप लगाने वाली महिला सहकर्मी पर। 

NK Singh's blog on #MeToo: Unethical conduct and criminal faults | #MeToo पर एनके सिंह का ब्लॉगः अनैतिक आचरण और आपराधिक दोष

सांकेतिक तस्वीर

- एन के सिंह 

प्रश्न यह नहीं है कि केंद्रीय मंत्री और पूर्व के ‘प्रतिमान’ संपादक एमजे अकबर ने इस्तीफा दिया या ‘दिलवाया गया’ लेकिन यह सिद्ध हो गया कि इसे तत्काल स्वीकार करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संविधान की रक्षा की, सामूहिक नेतृत्व के सिद्धांत को मजबूती दी और अपनी गरिमा में इजाफा किया।

अपराध की दो किस्में हैं - एक, नैतिक अनाचरण और दूसरा आपराधिक दोष। हो सकता है किसी महिला को उसके शरीर की खास जगह पर घूरना तत्कालीन सामाजिक मानदंडों के पैमाने पर या महिलाओं की लोकलाज के कारण आगे न आने की मजबूरी से आपराध-दोष न बना हो (आज के कानून में है) लेकिन हिंसक कामुकता व्यावहारिक- नैतिक पतन की श्रेणी में तो आता ही है और 200 या 2000 साल पहले भी था। फिर 20-30 साल में समाज बदला, मान्यताएं बदलीं, महिलाएं घर की चौखट तक महदूद नहीं रहीं बल्कि सीईओ बनने लगीं। टेक्नोलॉजी बदली। संवाद को वैश्विक विस्तार देते हुए ‘मी टू’ संभव हुआ जिसे राजा ने भी देखा और    रंक ने भी।

कांशिएन्स की परिभाषा ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार है ‘किसी व्यक्ति का सही या गलत समझने का ऐसा नैतिक अंतज्र्ञान जो उसके व्यवहार को निर्दिष्ट करता है’। इस परिभाषा से स्पष्ट है कि शुद्ध अंत:करण दिक्, स्थिति या काल-सापेक्ष नहीं होता। अत: वह आमतौर पर शाश्वत होता है। 

मंत्री के इस्तीफा न देने के पक्ष में दो तर्क लाए गए। पहला, 20-30 साल पहले के किसी आरोप के लिए आज सजा देना गलत है और दूसरा किसी व्यक्ति के संपादक के रूप में किए गए कार्य के लिए वर्तमान में किसी राजनीतिक दल या सरकार पर जिम्मेदारी नहीं लाई जा सकती है? ये दोनों तर्क दरअसल कुतर्क, तथ्यों की जानकारी के अभाव और तर्क-शास्त्र के पैमानों की अज्ञानता के कारण हैं। अपराध न्याय की प्रक्रि या काल बाधित नहीं होती। अगर किसी ने 20 साल पहले हत्या की है या ऐसा आरोप है तो न्याय अपनी प्रक्रिया उसी शिद्दत से शुरू करेगा जिस शिद्दत से नए अपराध को लेकर। दूसरा, द्वंद्वात्मक प्रजातंत्र में नैतिक आचरण को लेकर जन-अभिमत शासन की रीढ़ होता है।

सन 2014 में मनमोहन सरकार इसलिए नहीं गई कि प्रधानमंत्री दागदार थे या ए राजा पर 2जी का फैसला आ गया था बल्कि इसलिए कि जन-अभिमत खिलाफ हो गया था। लिहाजा अपराध कानून के मुताबिक मंत्री तो इन 20 आरोपों के बाद भी बना रह सकता है लेकिन मोदी सरकार की गरिमा संदेह के घेरे में आ सकती थी क्योंकि अंत:करण तो व्यक्तिगत, नैतिकता पर आधारित और शाश्वत है लेकिन संविधान ने सामूहिक जिम्मेदारी की बाध्यता रखी है। कानूनन तो लालू यादव इसी आधार पर तत्कालीन मंत्री बने रहे कि फैसला नहीं हुआ लेकिन व्यापक जन-अभिमत प्रजातंत्र और संवैधानिक व्यवस्था की क्षमता पर शक जरूर करता रहा।

लेकिन अब तस्वीर का दूसरा पहलू देखें। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अन्य मौलिक अधिकारों से ऊपर रखा गया है। यानी जनहित में राज्य को तमाम अन्य मौलिक अधिकारों जैसे पेशे की आजादी को बाधित करने का अधिकार है लेकिन इस अधिकार को नहीं। संपादक इस अधिकार का अपनी संस्था में अभिभावक होता है। वह शराब पी कर या कमरे में महिला अधिकारी को बुला कर कुछ कहता है तो वह संन्यासी भाव का द्योतक होना चाहिए न कि हिंसक कामुकता का। हो सकता है ये आरोप गलत हों लेकिन अगर 20 महिला सहकर्मियों ने लगाए हैं और वह भी कई दशकों बाद जब वे परिवार वाली, अधेड़ हो चुकी हैं और इस आरोप की भारतीय परिवेश में सामाजिक कीमत जानती हैं तो उस समय की संपादकों की संस्थाएं क्या कर रही थीं? क्या कर रहा था एडिटर्स गिल्ड ऑफइंडिया?

संपादकों की संस्था ने तो न कभी व्यावहारिक मानदंड तय किया न ही कभी संपादकों की लम्पटता इनके राडार पर रही है। वर्तमान में संसद इस खतरे के खिलाफ कार्यालयों में ‘बॉस’ द्वारा महिला मातहतों पर की जा रही हिंसक कामुकता के खिलाफ एक नया कानून ला सकती है जिसमें अपने को ‘निदरेष सिद्ध करने की जिम्मेदारी’ (बर्डन ऑफ प्रूफ) आरोपी पर हो न कि आरोप लगाने वाली महिला सहकर्मी पर। 

इस बात की भी जरूरत है कि इस ‘मी टू’ अभियान को हिंदी में भी शुरू किया जाए ताकि गांव व कस्बों की महिलाएं भी शारीरिक शोषण के खिलाफ बाहर निकलें और समाज में ‘लम्पट बॉस’ महिलाओं का   शोषण तो छोड़िए साये से भी परहेज करें।

इसके गलत इस्तेमाल के डर से सख्त कानून न बने, यह एक और कुतर्क होगा
(एन के सिंह स्तंभकार हैं।)

Web Title: NK Singh's blog on #MeToo: Unethical conduct and criminal faults

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