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निरंकार सिंह का ब्लॉग: लॉकडाउन के बाद हमें अपने अर्थशास्त्र को बदलना होगा

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: May 9, 2020 07:42 IST

गांधीजी का विचार था कि पृथ्वी सभी मनुष्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम है लेकिन किसी  के लालच की पूर्ति नहीं हो सकती है. यह बात किसी भी तर्क से नहीं समझाई जा सकती कि मानव समाज की लगातार बढ़ती आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन की स्थिति बरकरार रहते हुए भी हम आसन्न पर्यावरणीय महाविनाश को रोक पाने में सक्षम हो सकेंगे.

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कोरोना महामारी से पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था के सामने गंभीर संकट पैदा हो गया है. भारत को भी इस संकट के दौर से निकलने का नया रास्ता खोजना होगा. हम अपनी स्थिति को समझ सकते हैं. साथ ही दूसरे के संकटों को देखकर हम यह भी अंदाजा लगा सकते हैं कि हमारा भविष्य कैसा होने वाला है़.

यह भी हो सकता है कि आपसी सहयोग पर आधारित एक बड़े समाज के तौर पर परिवर्तन दिखाई दे. कोरोना वायरस हमारी आर्थिक संरचना की ही एक आंशिक समस्या है. हालांकि, दोनों पर्यावरण या प्राकृतिक समस्याएं प्रतीत होती हैं, लेकिन ये सामाजिक रूप पर आधारित हैं. कोरोना वायरस महामारी और जलवायु परिवर्तन से निपटना तब कहीं ज्यादा आसान हो जाएगा जब हम गैर-जरूरी आर्थिक गतिविधियों को कम कर देंगे. यदि हम  सामाजिक तौर पर न्यायोचित और एक बेहतर पर्यावरण वाला भविष्य चाहते हैं तो हमें अपने अर्थशास्त्र को बदलना होगा.

इसका रास्ता हमें महात्मा गांधी ने बताया है. जलवायु परिवर्तन के मामले में अगर आप उत्पादन कम करेंगे तो आप कम ऊर्जा का इस्तेमाल करेंगे और इस तरह से कम ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होगा. कोरोना की महामारी ने हमारी मौजूदा व्यवस्था की खामियों को उजागर कर दिया है़. इसके लिए एक तीव्र सामाजिक बदलाव की जरूरत होगी. इसके लिए हमें कहीं ज्यादा मानवीय तंत्र का निर्माण करना होगा जो कि हमें भविष्य की महामारियों और जलवायु संकट जैसे दूसरे आसन्न खतरों से लड़ने के लिए ज्यादा दृढ़ और टिकाऊ  बनाएगा़.

सामाजिक बदलाव कई जगहों से और कई प्रभावों से आ सकता है. हमारे लिए एक अहम काम यह है कि हम यह मांग करें कि उभरते हुए सामाजिक रूप, देखभाल, जीवन और लोकतंत्र जैसी चीजों को अहमियत देने वाली व्यवस्था नैतिक सिद्धांतों से पैदा हो. संकट के इस वक्त में राजनीति का मुख्य काम इन मूल्यों के इर्दगिर्द चीजों को खड़ा करने का है़. इसके लिए सभी दलों को रचनात्मक राजनीति की भूमिका भी निभानी होगी. यह उनके भविष्य के लिए भी बेहतर होगा.

यह नई अर्थव्यवस्था युद्घ के दौरान वाली नहीं होगी, जिसमें बड़े पैमाने पर उत्पादन होता है. अगर हम भविष्य की महामारियों के सामने टिके रहने की ताकत चाहते हैं तो हमें एक ऐसी व्यवस्था बनाना होगा जो कि उत्पादन को इस तरह से कम करने में समर्थ हो जिसमें लोगों की आजीविकाओं पर बुरा असर नहीं पड़े. ऐसे में हमें एक अलग तरह की आर्थिक सोच की जरूरत है. इस संकट को महात्मा गांधी ने बहुत पहले ही भांप लिया था. इसका रास्ता भी हमें महात्मा गांधी ने ही बताया है. अब यदि कोरोना की महामारी और ग्लोबल वार्मिंग से उपजे जलवायु संकट के कहर से देश को बचाना है तो गांधीवादी विकल्प के अलावा अब शायद कोई दूसरा रास्ता नहीं है. परमाणु युद्ध नहीं हुआ तो भी जलवायु परिवर्तन पूरी दुनिया की तबाही का कारण बन जाएगा.

गांधीजी का विचार था कि पृथ्वी सभी मनुष्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम है लेकिन किसी  के लालच की पूर्ति नहीं हो सकती है. यह बात किसी भी तर्क से नहीं समझाई जा सकती कि मानव समाज की लगातार बढ़ती आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन की स्थिति बरकरार रहते हुए भी हम आसन्न पर्यावरणीय महाविनाश को रोक पाने में सक्षम हो सकेंगे. यह उचित ही है कि मोदी सरकार ने छोटे और मंझोले उद्योगों की ओर ध्यान दिया है.

देश का बेहतर कृषि परिदृश्य और देश के बुनियादी आर्थिक घटक, वे ठोस और सबसे प्रमुख आधार हैं, जिनके बल पर कोरोना संकट से चरमराई विश्व अर्थव्यवस्था के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था को कुछ कम क्षति होते हुए दिखाई दे रही है. इसी कारण अंतर्राष्टÑीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने 15 अप्रैल को अपनी रिपोर्ट में कहा है कि भारत की विकास दर 2020 में 1.9 प्रतिशत रहते हुए दुनिया की सर्वाधिक विकास दर हो सकती है. जबकि चीन की विकास दर 1़ 2 प्रतिशत रह सकती है. 

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