National Education Policy: समतामूलक शिक्षा हो राष्ट्रीय विकास का आधार
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: November 11, 2024 14:55 IST2024-11-11T14:54:37+5:302024-11-11T14:55:34+5:30
National Education Policy: 1100 से अधिक विश्वविद्यालयों, 40000 महाविद्यालयों और 11000 एकल विशेषज्ञता के उच्च शिक्षण संस्थानों के साथ 2035 तक भी हम उच्च शिक्षा के नामांकन में केवल आधी आबादी को ही ले जा पाने में समर्थ होंगे.

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डॉ. संजय शर्मा
यह संयोग ही है कि ‘शिक्षा को अधिक समावेशी, नवाचारी और बाल-केंद्रित बना कर ही हम शिक्षा के मौजूदा विमर्श को बदल सकते हैं’ इस ध्येय वाक्य के साथ आजाद भारत इस वर्ष का राष्ट्रीय शिक्षा दिवस एक वैचारिक संकल्प के साथ मना रहा है. गौरतलब है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति की मूल प्रस्तावना लोकतांत्रिक, समतामूलक और ज्ञान-आधारित समाज की निर्मित में सबके लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की अनिवार्यता को नैसर्गिक और अपरिहार्य मानती है. किंतु भारतीय उच्च शिक्षा की मौजूदा स्थिति और प्रगति यह बताती है कि 1100 से अधिक विश्वविद्यालयों, 40000 महाविद्यालयों और 11000 एकल विशेषज्ञता के उच्च शिक्षण संस्थानों के साथ 2035 तक भी हम उच्च शिक्षा के नामांकन में केवल आधी आबादी को ही ले जा पाने में समर्थ होंगे.
भारतीय उच्च शिक्षातंत्र दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा शिक्षातंत्र है, जिसमें चार करोड़ से अधिक विद्यार्थी जुड़े हैं और 15.03 लाख शिक्षक कार्यरत हैं. चिंताजनक बात है कि ‘बिग डाटा, मशीन लर्निंग और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ की ‘ज्ञानमीमांसीय त्रयी’ से संदर्भित 21वीं सदी के संधान के लिए ‘अर्जुन’ बिना ‘गुरु’ के तैयार हो रहे हैं.
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान जैसे प्रमुख उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षकों के एक तिहाई से अधिक पद खाली हैं. वहीं नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में 40-47% पदों पर शिक्षक नहीं हैं. केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के लगभग 6000 पद रिक्त हैं. राज्य विश्वविद्यालयों में यह स्थिति और भी निराशाजनक है. विद्यालयीन शिक्षा भी ऐसे ही हालात से गुजर रही है.
संसदीय प्रतिवेदन (2021-22) के आंकड़े बताते हैं कि देश में 1,17,285 विद्यालय ‘एकल शिक्षक पाठशाला’ के रूप में संचालित हैं. ऐसे में कक्षाओं के भीतर समावेशी, नवाचारी एवं बालकेंद्रित शिक्षण प्रक्रियाओं के माध्यम से ‘शिक्षा को बदलने की कवायद’ अपने आप में ही एक सवाल खड़ा कर देती है.
वर्तमान में निजी और सरकारी शिक्षा तंत्र के बीच गहराता अंतर चिंताजनक स्तर पर है. यू-डायस की रिपोर्ट (2021-22) के हवाले से अंग्रेजी माध्यम के मध्यमवर्गीय ‘पब्लिक’ स्कूलों की संख्या 3.35 लाख (22.4%) है, निजी या ट्रस्ट-प्रबंधित ‘कुलीन’ बोर्डिंग स्कूल 2500 एवं काॅन्वेंट स्कूल लगभग 30000 है, जो अत्याधुनिक पाठ्यक्रम, तकनीकी, योग्य शिक्षकों एवं सुविधाओं से लगभग 8.24 करोड़ विद्यार्थियों को 21वीं सदी की अपेक्षाओं के अनुरूप तैयार कर रहे हैं. मौजूदा शिक्षातंत्र का स्याह पहलू यह भी है कि देश में बुनियादी सुविधाओं के अभाव से जूझते हुए विद्यालयों का एक बड़ा तंत्र मौजूद है, जहां पढ़ रहे बच्चों से हम 21वीं सदी में वैश्विक नेतृत्व प्रदान करने की अपेक्षा कर रहे हैं!
हाल ही में उत्तरप्रदेश शासन ने नामांकन की न्यूनता के कारण लगभग 27000 प्राथमिक विद्यालयों को बंद करने का प्रस्ताव तैयार किया है, यही हाल मध्यप्रदेश का है जहां पिछले साल लगभग 5000 पाठशालाएं आदिवासी क्षेत्रों में बंद कर दी गईं. राष्ट्रीय शिक्षा दिवस हमें पुनर्विवेचन के लिए एक अवकाश देता है जहां हम शिक्षा और उसके लिए की जा रही कवायद को जनधर्मिता और समतामूलक भागीदारी के संदर्भ में उद्घाटित कर सकें. ऐसा करके ही हम शिक्षा के प्रति सार्वजनिक स्वीकार्यता, अपेक्षा एवं आकांक्षा को अक्षुण्ण रख सकेंगे.