एन. के. सिंह का ब्लॉग: गरीबी मिटाने के प्रयासों का नहीं दिख रहा असर

By एनके सिंह | Published: February 29, 2020 06:07 AM2020-02-29T06:07:39+5:302020-02-29T06:07:39+5:30

संयुक्त राष्ट्र के विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनिसेफ और लांसेट की रिपोर्ट, जिसे दुनिया के 40 से ज्यादा स्वास्थ्य व किशोर विशेषज्ञों ने तैयार किया है, के अनुसार भारत अपने बच्चों की खुशहाली और स्वास्थ्य के पैमाने पर दुनिया के 180 देशों में 131 वें स्थान पर है.

N. K. Singh's blog: Efforts to eradicate poverty have no visible impact | एन. के. सिंह का ब्लॉग: गरीबी मिटाने के प्रयासों का नहीं दिख रहा असर

एन. के. सिंह का ब्लॉग: गरीबी मिटाने के प्रयासों का नहीं दिख रहा असर

मात्र 36 घंटों के दौरे पर आए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने भारत को विकास का प्रमाण-पत्न यह कहते हुए दे दिया कि ‘पिछले दस सालों में यहां 2.70 करोड़ लोग गरीबी की गर्त से निकाले गए यानी हर मिनट 12 लोग.’ उनकी पत्नी मेलानिया दिल्ली के एक स्कूल के ‘हैप्पीनेस क्लास’ में जाकर बेहद प्रभावित हुईं और उन्होंने खुशहाली पाठ्यक्रम को दुनिया के शिक्षकों के लिए अनुकरणीय बताया. लेकिन वे अमेरिका से चलने से पहले अपनी ही सरकार की और संयुक्त राष्ट्र की भारत की स्थिति के बारे में उसी दिन की रिपोर्ट पढ़ लेते तो शायद यह प्रमाण-पत्न न देते.

ट्रम्प को शायद यह भी ज्ञात न हो कि भारत में ‘गरीबी की परिभाषा’ को लेकर भी अभी लगातार विवाद चल रहा है और भले ही सरकार तेंदुलकर समिति की परिभाषा को अपने अनुरूप मानते हुए (इस समय मात्न 21.9 फीसदी लोग ही इस परिभाषा के मुताबिक गरीब हैं) हर पांच सेकेंड में एक गरीब को इस ‘छलावा’ रेखा से बाहर लाती हो, प्रतिष्ठित वैश्विक संस्थाएं भारत की हालत को लेकर काफी चिंतित हैं. बहुआयामी गरीबी के सूचकांक पर वैसे भी भारत में 27.9 फीसदी गरीब हैं जिसमें ग्रामीण भारत में 36.8 प्रतिशत और शहरों में 9.2 प्रतिशत हैं.

बहरहाल संयुक्त राष्ट्र के विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनिसेफ और लांसेट की रिपोर्ट, जिसे दुनिया के 40 से ज्यादा स्वास्थ्य व किशोर विशेषज्ञों ने तैयार किया है, के अनुसार भारत अपने बच्चों की खुशहाली और स्वास्थ्य के पैमाने पर दुनिया के 180 देशों में 131 वें स्थान पर है. रिपोर्ट का मानना है कि बच्चों की खुशहाली और स्वास्थ्य को लेकर अधिकांश देश गंभीर नहीं हैं. तथाकथित ‘ग्रोथ’ और गरीबी हटाने के दिखावटी उपायों से पांच साल से कम उम्र के करोड़ों बच्चों के विकास को भारी खतरा है.

इसी तरह अमेरिका की अंतर्राष्ट्रीय विकास एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार भारत के स्कूलों में बच्चे तो बढ़े हैं (मध्याह्न् भोजन की योजना के कारण) लेकिन वे शिक्षार्जन शायद ही कर पा रहे हैं. रिपोर्ट कहती है कि यहां के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में चार में से तीन बच्चे ब्लैकबोर्ड पर लिखे दो - संयुक्त मात्न - शून्य अक्षरों को मौखिक रूप से पढ़ नहीं सकते. 

मौखिक रीडिंग प्रवाह (ओरल रीडिंग फ्लुएंसी-ओआरएफ) जानने के इस अध्ययन में बताया गया कि इसी कमजोरी के कारण ये बच्चे बड़े होने पर भी शिक्षा-ग्रहण करने की क्षमता का विकास नहीं कर पाते और दौड़ में पीछे रह जाते हैं. नतीजतन आगे की पढ़ाई बाधित हो जाती है. ग्रामीण भारत के बच्चे इसके सबसे ज्यादा शिकार होते हैं और आजीविका के लिए वे कृषि में ही ठहर जाते हैं या ऐसे काम में लग जाते हैं जिनसे दो वक्त की रोटी मयस्सर नहीं हो
पाती.

अमेरिकी सरकार की इस रिपोर्ट की तस्दीक करते हुए वल्र्ड बैंक की एक ताजा रिपोर्ट और साथ ही भारत सरकार की अपनी संस्था ‘प्रथम’ और स्वयंसेवी संस्था ‘असर’ ने भी बताया कि भारत में ‘लर्निग’ का संकट बेहद गंभीर होता जा रहा है और पांच साल स्कूल में बिताने के बाद भी ये बच्चे आधारभूत साक्षरता यानी शब्दों का ज्ञान और संख्यात्मक समझ नहीं हासिल कर पाते. जाहिर है कि भारत सरकार और राज्य की सरकारों खासकर बिहार का अपनी पीठ थपथपाकर यह बताना कि उनके यहां पंजीकरण/नामांकन 97 प्रतिशत हो गया है, कोई मायने नहीं रखता.

भारत में हर साल ढाई करोड़ बच्चे कक्षा एक में दाखिला लेते हैं. और इस रिपोर्ट के अनुसार देखा जाए तो इनमें से 1.80 करोड़ बच्चे स्कूल में पांच साल बिताने के बाद भी सामान्य व आधारभूत समझ, ताकि आगे की कक्षाओं में पढ़ सकें, नहीं विकसित कर पाते. बहरहाल देर से ही सही, केंद्र सरकार द्वारा इस बात का संज्ञान लेना कि प्रारंभिक शिक्षा के पहले बच्चों का मानसिक रूप से तैयार न होना आगे की कक्षाओं में ज्ञानार्जन में उन्हें कमजोर बनाता है, और इसके लिए नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे में व्यापक प्रावधान रखना एक क्रांतिकारी कदम है.

भारत में पिछले कई दशकों से आर्थिक असमानता भयंकर रूप से बढ़ी है. नीति आयोग ने हाल ही में बताया कि भारत में पिछले एक साल में लगभग सभी राज्यों में भूख, गरीबी और असमानता की स्थिति सन 2018 के मुकाबले और खराब हुई है. वर्ष 2019-20 के आर्थिक सर्वे के हिसाब से केवल भोजन व अन्य इसी तरह की सब्सिडी में कुल खर्च 3.50 लाख करोड़ रु. का था (जिसमें 1.80 लाख करोड़ केवल सार्वजनिक वितरण प्रणाली के मद में हैं) और इससे 12 करोड़ परिवार जुड़े हैं यानी प्रति परिवार खर्च करीब 2500 रु पए प्रतिमाह या 83 रुपया प्रतिदिन है. 

अगर इसमें बच्चों को दिया जाने वाला मध्याह्न् भोजन और अन्य योजनाएं भी जोड़ दी जाएं तो कुल राशि गरीबी सीमा रेखा के लिए 27 रुपए प्रतिदिन प्रति-व्यक्ति आय की परिभाषा को पार कर जाता है यानी भारत में कोई गरीब नहीं. कोई अल्प-बुद्धि का व्यक्ति भी कह सकता है कि अगर यह राशि सीधे उस परिवार को मिलती तो देश में कुपोषण से बच्चों के मरने की स्थिति में भारत बेहद नीचे न होता, न ही विश्व भुखमरी में हमारा नंबर 102वां होता. दरअसल यह लाभ गरीबों को नहीं मिलता है बल्कि भ्रष्ट सरकारी अमले में बंट जाता है.

Web Title: N. K. Singh's blog: Efforts to eradicate poverty have no visible impact

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