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एन. के. सिंह का ब्लॉग: कमजोर राज्यपाल, स्पीकर और दल-बदल कानून

By एनके सिंह | Updated: March 18, 2020 06:32 IST

संसदीय प्रणाली में यह माना जाता था कि जिस दिन से कोई सांसद या विधायक स्पीकर के पद की शपथ लेगा उसी दिन से वह अपनी पार्टी के प्रति प्रतिबद्धता को तिलांजलि देकर निष्पक्ष भाव से काम करेगा. लेकिन पिछले 70 साल में यह भाव न तो किसी राज्यपाल में दिखा न ही स्पीकरों में.

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भारत की संविधान-सभा की पहली बैठक में ही पदेन सभापति सच्चिदानंद सिन्हा ने दुनिया के मशहूर न्यायविद जस्टिस जोसेफ स्टोरी  का यह  कथन उद्धृत किया था ‘संविधान की भव्य इमारत मात्न एक घंटे में ढह सकती है अगर इसके रखवाले गैर-जिम्मेदार, भ्रष्ट या मूर्ख हों’. संसदीय प्रणाली में यह माना जाता था कि जिस दिन से कोई सांसद या विधायक स्पीकर के पद की शपथ लेगा उसी दिन से वह अपनी पार्टी के प्रति प्रतिबद्धता को तिलांजलि देकर निष्पक्ष भाव से काम करेगा. लेकिन पिछले 70 साल में यह भाव न तो किसी राज्यपाल में दिखा न ही स्पीकरों में.

मध्य प्रदेश में अगले 26 मार्च तक कोरोना ने कमलनाथ की सरकार बचा ली और ‘कमल’ खिलते-खिलते रह गया. उधर राज्यपाल की समस्या यह थी कि जिस सरकार को मात्न 12 घंटे पहले वह सदन पटल पर बहुमत साबित करने का संदेश दे चुके हैं उसी सरकार द्वारा लिखे गए अभिभाषण को जिसमें परंपरागत रूप से बार-बार ‘हमारी सरकार’ का जुमला आता है, कैसे बोलें. इसी वजह से उन्होंने मात्न चंद शब्दों में जो ‘संदेशात्मक’ ज्यादा थे, कहा और चले गए. उनके जाते ही स्पीकर ने कोरोना के खतरे के नाम पर सदन की कार्यवाही दस दिन के लिए टाल दी.

लेकिन हाल में एक नया ट्रेंड देखने में आ रहा है. विधायक दल-बदल के पहले सदस्यता से इस्तीफा दे रहे हैं. मध्य प्रदेश में कांग्रेस के सदस्यों ने ऐसा किया है जबकि कर्नाटक में कांग्रेस से इस्तीफे के बाद वे भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़े और सभी 11 में से दस तत्काल मंत्नी बनाए गए. अरुणाचल में भी ऐसा ही हुआ. ताजा घटनाक्र म में गुजरात में भी कांग्रेस के विधायक ठीक राज्यसभा चुनाव के पहले पाला बदलने के लिए इस्तीफा दे रहे हैं. जाहिर है नई पार्टी उन्हें ‘पदों’ के ‘ऑफर’ से नवाज रही होगी वर्ना विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता ‘रातों-रात’ बदलना और वह भी चुनाव के वक्त समझ में नहीं आता.

कुछ ही समय पहले मणिपुर के एक कांग्रेस विधायक ने दल-बदल कर भाजपा ज्वाइन की और उसे तत्काल ही मंत्नी बना दिया गया जबकि उसने दल-बदल कानून का उल्लंघन किया था और स्पीकर को उसकी सदस्यता खत्म करनी थी. लेकिन स्पीकर ने इस मुद्दे पर कोई फैसला नहीं दिया और वह विधायक मंत्नी बना रहा.  

भारत के संविधान-निर्माताओं ने शायद नहीं सोचा होगा कि सात दशक बाद भारत में राजनीतिक वर्ग की नैतिक स्थिति कहां तक गिर चुकी होगी और कैसे चुने हुए ‘माननीयों’ को ‘सुरक्षित अपनी पार्टी की सरकारों वाले राज्यों के महंगे रिसोर्टो (व पांच सितारा होटलों) में ‘छिपा दिया जाएगा’ मात्न इस डर से कि दूसरी पार्टी किसी हिंसक पशु की तरह ‘पैसे की थैली या पद’ देकर उसका ‘शिकार’ न करे.  संविधान का अनुच्छेद 175(2) स्पष्ट तौर पर कहता है कि राज्यपाल के संदेश पर सदन ‘सुविधानुसार शीघ्रता से’ विचार करेगा. अब यह स्पीकर पर है कि ‘सुविधानुसार’ में कोरोना का संकट मानता है कि नहीं और ‘शीघ्रता’ की उसकी अपनी परिभाषा क्या है.

मध्य प्रदेश के राजनीतिक संकट को इस परिप्रेक्ष्य में देखना होगा. संविधान के अनुच्छेद 192 के तहत किसी सदस्य को योग्य घोषित करने का अधिकार राज्यपाल का होता है लेकिन वहीं दसवीं अनुसूची (दल-बदल कानून) के अनुसार यह अधिकार स्पीकर का है. इस खामी को किहोतो होलोहान केस में 1992 में जस्टिस जे.एस. वर्मा ने अल्पमत के फैसले में इंगित भी किया था.

ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का राज्यों में ऐसे विवादों के लिए कोर्ट के अवकाशप्राप्त जज या हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक न्यायाधिकरण बनाना ही समस्या का समाधान है. 

टॅग्स :मध्य प्रदेशकांग्रेसभारतीय जनता पार्टी (बीजेपी)कमलनाथलोकमत हिंदी समाचार
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