एन. के. सिंह का ब्लॉग: कानून को अपने हाथ में लेता ‘भीड़तंत्र’

By एनके सिंह | Updated: July 26, 2019 04:57 IST2019-07-26T04:57:25+5:302019-07-26T04:57:25+5:30

कानून को हाथ में लेने वाली भीड़ को यह मालूम था इस (कु)कृत्य की कोई सजा नहीं होती अगर नेताजी साथ हैं या ऐसा कह कर सिस्टम को (जिसमें कानून प्रक्रिया भी है) डराया जा सकता है अर्थात ऐसा भरोसा कि कानून व्यवस्था को एक नेता पंगु बना सकता है.

Mob Lynching opinion piece Mob Taking the law into its own hands | एन. के. सिंह का ब्लॉग: कानून को अपने हाथ में लेता ‘भीड़तंत्र’

प्रतीकात्मक तस्वीर

‘भीड़ न्याय’ (मॉब लिंचिंग) की एक ताजा घटना उत्तर प्रदेश के बारांबकी जिले के एक गांव की है. इसकी प्रकृति डराने वाली है. सुजीत गौतम नामक एक व्यक्ति रात में साइकिल से अपनी ससुराल जा रहा था. कुछ दूर स्थित एक गांव के पास कुत्ताें ने उसे दौड़ाया. बचने के लिए साइकिल से गिर कर जब वह गांव में घुसा तो लोगों ने चोर समझ कर उसे आग लगा कर मार दिया.  

झारखंड के गुमला जिले के एक गांव में चार बुजुर्गो की लगभग डेढ़ दर्जन लोगों ने हत्या कर दी. उन पर जादू-टोना करके गांव को बर्बाद करने का शक था. हत्या का आदेश चार दिन पहले गांव की अनौपचारिक पंचायत में हुआ था जिसमें गांव के लोग मौजूद थे. राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार इस राज्य में हर पांच दिन में बिसाही (जादू-टोना) के शक में एक व्यक्ति मारा जाता है. जो हाथ बिसाही के आरोपी को मारते हैं वे ही मतदान करके देश या राज्य की सरकारें भी चुनते हैं. 

बिहार के छपरा जिले के बनियापुर थाना स्थित पिठौरी गांव में सदियों से भयंकर गरीबी है. जब ब्लॉक से सरकारी मदद या शिक्षा के मद में आए पैसे को भ्रष्ट सरकारी अमला हड़प लेता है तो यह भीड़ निरीह बन जाती है, लेकिन अगर अपने ही जैसा कोई गरीब दिखे तो उसे चोर बता कर पीट-पीट कर मार देने का जज्बा रहता है. भीड़ न्याय के अलमबरदार भी जानते हैं कि छपरा में मवेशी चोर बता कर मारना या वैशाली में चोर के नाम पर जान लेना इस नई स्व-विकसित संविधानेतर न्याय प्रणाली का हिस्सा है. 

भारत के 2014 के आम-चुनाव के एक साल पहले उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में हुए दंगों के, जिनमें 65 लोग मारे गए थे और बलात्कार की कई घटनाएं हुई थीं, 41 मामलों में से 40 में अभियुक्तों को ट्रायल कोर्ट ने बरी कर दिया. आरोप हत्या के अलावा आगजनी और बलात्कार का भी था. सभी आरोपी साक्ष्य के अभाव, कमजोर साक्ष्य, गवाहों यहां तक कि पुलिसवालों के मुकर जाने - के कारण छूट गए. बलात्कार के एक मामले में पीड़िता ने अदालत में बताया कि पुलिस ने तीन महीने बाद मेडिकल जांच कराया. अखिलेश यादव की सरकार का समय भी था और 2017 से भाजपा की योगी सरकार है. हमला करने वालों में अधिकांश आसपास के गांवों के  जाति-विशेष के लोग  थे. अखिलेश यादव ने इस जाति के नेता से 2017 के चुनाव में हाथ मिलाया था जबकि भाजपा ने भी इस वोट बैंक पर पूरी नजर रखी थी. अफसोस की बात यह है कि भारत की अपराध प्रक्रिया संहिता के सेक्शन 176 और 190 अदालत को अधिकार देते हैं कि वह पूरी जांच फिर से करा सके, लेकिन उसका उपयोग शायद ही होता हो.   

आज केवल न्यायपालिका ही जन-विश्वास के सहारे के रूप में बची है. यह सही है कि भारत में एक्युजिटोरियल न्याय व्यवस्था है जिसमें अभियोग पक्ष आरोप लगाता है, अभियोगपत्र दाखिल करता है गवाह खड़े करता है और दूसरी तरफ से अपने बचाव में अभियुक्त भी यही सब करता है. अदालत साक्ष्य के अभाव में बरी करती है, पुलिस साक्ष्य ले आए तो सजा देती है. यह नहीं सोचा जाता कि साक्ष्य कैसे बनाए या पलटाए जाते हैं या आखिर मुजफ्फरनगर दंगों में 65 लोग कैसे मर (या मारे) जाते हैं और कैसे दर्जनों घरों में आग लगा दी जाती है या कैसे गांव की महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया जाता है और फिर भी कोई अपराधी नहीं होता. कुछ देशों जैसे फ्रांस में इन्क्वीजिटोरियल सिस्टम है जिसमें अदालत सत्य जानने के प्रति आग्रह रखती है लिहाजा सत्य जानने के लिए जांच में भी भूमिका  निभाती है.  

कानून को हाथ में लेने वाली भीड़ को यह मालूम था इस (कु)कृत्य की कोई सजा नहीं होती अगर नेताजी साथ हैं या ऐसा कह कर सिस्टम को (जिसमें कानून प्रक्रिया भी है) डराया जा सकता है अर्थात ऐसा भरोसा कि कानून व्यवस्था को एक नेता पंगु बना सकता है. और यह भरोसा हो भी क्यों न, कुछ माह पहले उन्नाव के एक विधायक ने न केवल बलात्कार किया बल्कि शिकायत करने पर सरेआम लड़की के पिता को पीट-पीट कर मरवा दिया और पुलिस ने गिरफ्तार भी किया तो लड़की के परिजनों को.  

भारत एक आदिम सभ्यता में फिर वापस चला जाएगा जिससे निकलने में हजारों साल लगे. यह सब तब होता है जब कानून प्रत्यक्ष रूप से काम नहीं करता है, न्यायपालिका दशकों तक फैसले नहीं करती और फिर अगर करती भी है तो धमकी के कारण गवाह मुकर चुके होते हैं लिहाजा न्याय मूकदर्शक बन जाता है. पिछले हफ्ते सर्वोच्च न्यायलय ने ‘भीड़ न्याय’ के खिलाफ सख्त रुख दिखाया तो, लेकिन घटनाएं बढ़ गईं क्योंकि चेतावनी यह होनी चाहिए थी कि अगर ऐसी घटनाएं हुईं तो यह मान कर कि प्रशासन जिले में असफल रहा लिहाजा एस.पी. और डी. एम. को अगले दस साल तक प्रोन्नति नहीं मिलेगी. तब न तो नेताओं का जोर चलेगा न संविधानेतर दुष्प्रयास होंगे और न ही कानून व्यवस्था का ‘भीड़-न्याय’ रूपी खतरनाक विकल्प तैयार होगा.

Web Title: Mob Lynching opinion piece Mob Taking the law into its own hands

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