ब्लॉग: कितने सुरक्षित हैं अल्पसंख्यकों के अधिकार?

By फिरदौस मिर्जा | Published: December 18, 2021 09:11 AM2021-12-18T09:11:19+5:302021-12-18T09:15:35+5:30

इतिहास गवाह है कि इस तरह की पक्षपातपूर्ण सोच अपनानेवाले देश तबाह हो गए. नाजी जर्मनी और हाल में म्यांमार तथा पाकिस्तान की घटनाएं इसका जीवंत उदाहरण हैं.

minority rights un resolution indian constitution | ब्लॉग: कितने सुरक्षित हैं अल्पसंख्यकों के अधिकार?

ब्लॉग: कितने सुरक्षित हैं अल्पसंख्यकों के अधिकार?

Highlightsहर वर्ष 18 दिसंबर को अंतरराष्ट्रीय अल्पसंख्यक अधिकार दिवस मनाया जाता है.इतिहास गवाह है कि पक्षपातपूर्ण सोच अपनानेवाले देश तबाह हो गए.नाजी जर्मनी और हाल में म्यांमार तथा पाकिस्तान की घटनाएं इसका जीवंत उदाहरण हैं.

संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र के 42 वर्ष पहले ही हमारे संविधान में समानता का अधिकार दे दिया गया था. जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, तब न्यायमूर्ति एम.एन. वेंकटचेलैया की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय आयोग संविधान के कामकाज की समीक्षा करने के लिए गठित किया गया था. 

न्यायमूर्ति बी.पी. जीवन रेड्डी, पी.ए. संगमा, सोली सोराबजी जैसे कई दिग्गज इस आयोग के सदस्य थे. 31 मार्च 2002 को आयोग ने अपनी रिपोर्ट पेश की.

हर वर्ष 18 दिसंबर को अंतरराष्ट्रीय अल्पसंख्यक अधिकार दिवस मनाया जाता है. सन् 1992 में इसी दिन संयुक्त राष्ट्र महासभा ने राष्ट्रीय या नस्लीय, धार्मिक तथा भाषाई अल्पसंख्यकों के लोगों के अधिकारों पर घोषणापत्र स्वीकार किया था. इसीलिए 18 दिसंबर को अंतरराष्ट्रीय अल्पसंख्यक दिवस के रूप में मनाया जाता है.

घोषणापत्र में कहा गया है कि राज्यों को अल्पसंख्यकों की राष्ट्रीय या नस्लीय, सांस्कृतिक, धार्मिक तथा भाषाई अस्तित्व की रक्षा करनी होगी और उनकी पहचान को बढ़ावा देने योग्य माहौल को प्रोत्साहन देना होगा.

अल्पसंख्यकों को अपनी संस्कृति और अपने धर्म एवं भाषा के निजी व सार्वजनिक रूप में पालन का अधिकार होगा. इसमें किसी प्रकार का हस्तक्षेप या भेदभाव नहीं किया जाएगा. 

संयुक्त राष्ट्र द्वारा यह घोषणापत्र अपनाने के बहुत पहले 14 अगस्त, 1947 को भारत में संविधान सभा की ओर से उसके अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने औपचारिक रूप से वचन दिया था कि ‘‘भारत में रहनेवाले सभी अल्पसंख्यकों को हम आश्वासन देते हैं कि उनके साथ निष्पक्ष एवं न्यायपूर्ण व्यवहार किया जाएगा. उनके प्रति किसी भी किस्म का भेदभाव नहीं होगा. उनका धर्म, संस्कृति और भाषा पूर्णत: सुरक्षित है और वे बतौर नागरिक अपने सभी अधिकारों एवं विशेषाधिकारों का उपयोग कर सकेंगे. इसके बदले में उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे देश जहां वह रहते हैं और संविधान के प्रति निष्ठावान रहेंगे.’’

इस वचन को पूरा करने के लिए संविधान में कानून के सामने समानता, धर्म, नस्ल, जाति, लिंग, जन्मस्थल के आधार पर भेदभाव पर प्रतिबंध, सार्वजनिक रोजगार में समान अवसर, संगठन की आजादी, अंतरात्मा की आवाज की स्वतंत्रता, व्यवसाय चुनने की आजादी, धर्म के पालन, प्रचार एवं धार्मिक मामलों के प्रबंधन की आजादी को शामिल किया गया और सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें बुनियादी अधिकार का हिस्सा घोषित किया. 

उपरोक्त अधिकारों के अलावा अल्पसंख्यकों के लिए अनुच्छेद 29 तथा 30 में विशिष्ट अधिकार जोड़े गए जिनमें विशिष्ट भाषा, लिपि या संस्कृतिवाले अल्पसंख्यक समुदायों के हितों की रक्षा का प्रावधान है. अल्पसंख्यकों के अपनी पसंद की शैक्षणिक संस्थाओं की स्थापना तथा उनके संचालन के अधिकार को भी मान्यता प्रदान की गई.

इतिहास बताता है कि अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के मामले में हमारा देश दुनिया के अन्य देशों की तुलना में बहुत आगे है क्योंकि उसने इन अधिकारों को संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र के 42 साल पहले ही अपने संविधान में शामिल कर लिया था. 

हालांकि ये सब अधिकार सिद्धांत रूप में हैं लेकिन क्या नागरिक अल्पसंख्यकों के प्रदत्त अधिकारों को मान्यता देते हैं और उनका सम्मान करते हैं. यह सबसे बड़ा सवाल है जिसे हमें अंतरराष्ट्रीय अल्पसंख्यक अधिकार दिवस पर अपने आप से पूछना चाहिए.

संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र के अनुच्छेद-4 में यह प्रावधान है कि सभी देश, अल्पसंख्यकों के इतिहास, परंपरा, भाषा तथा संस्कृति के ज्ञान को बढ़ावा देने के लिए शैक्षणिक क्षेत्र में हरसंभव कदम उठाएंगे. 

हाल के वर्षो में हम देख रहे हैं कि संस्थानों, शहरों, रेलवे स्टेशनों, सड़कों आदि के नाम बदलने की प्रवृत्ति पनप रही है. ये सब स्थल हमारे इतिहास और अल्पसंख्यकों की संस्कृति का हिस्सा हैं. यह प्रवृत्ति संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र तथा संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन और अल्पसंख्यकों के अधिकारों के प्रति हमारे नजरिए में बदलाव की परिचायक है.

जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, तब न्यायमूर्ति एम.एन. वेंकटचेलैया की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय आयोग संविधान के कामकाज की समीक्षा करने के लिए गठित किया गया था. न्यायमूर्ति बी.पी. जीवन रेड्डी, पी.ए. संगमा, सोली सोराबजी जैसे कई दिग्गज इस आयोग के सदस्य थे. 

31 मार्च 2002 को आयोग ने अपनी रिपोर्ट पेश की. आयोग ने सिफारिश की थी कि अल्पसंख्यकों के शैक्षणिक स्तर को सुधारने के लिए कदम उठाए जाने की जरूरत है. अल्पसंख्यकों के शैक्षणिक, व्यावसायिक, व्यापारिक तथा सामाजिक राजनीतिक उत्थान के लिए विशेष कार्यक्रम बनाकर उदारता से आर्थिक समर्थन दिया जाए.

आयोग ने सिफारिश की थी कि अल्पसंख्यकों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व भी बढ़ाया जाए और विशेष रूप से राज्यों में पुलिस बलों, अर्ध सैनिक तथा सैन्य बलों में उनकी भर्ती के लिए विशेष अभियान चलाया जाए. 

लोकतंत्र में वोट हासिल करने के लिए बहुसंख्यकवाद को प्रोत्साहन दिया जाता है और अल्पसंख्यकों को अलग स्तर के नागरिकों की तरह पेश किया जाता है. 

इतिहास गवाह है कि इस तरह की पक्षपातपूर्ण सोच अपनानेवाले देश तबाह हो गए. नाजी जर्मनी और हाल में म्यांमार तथा पाकिस्तान की घटनाएं इसका जीवंत उदाहरण हैं.

हमारे देश में न्याय, आजादी, समानता तथा भाईचारे के सिद्धांतों पर आधारित संविधान लागू है. अत: हमसे यह उम्मीद नहीं की जाती कि हम बहुसंख्यकवाद और तबाही के रास्ते को अपनाएं. हमें संविधान तथा उसके निर्माताओं द्वारा बताए हुए मार्ग पर वापस लौटना है. अल्पसंख्यकों को दरकिनार कर कोई भी देश तरक्की नहीं कर सकता.

Web Title: minority rights un resolution indian constitution

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