राजेश बादल का ब्लॉग: कांग्रेस के चिंतन शिविर से निकलते संदेश

By राजेश बादल | Published: May 17, 2022 10:42 AM2022-05-17T10:42:57+5:302022-05-17T10:44:06+5:30

उदयपुर चिंतन शिविर से पार्टी को निश्चित रूप से प्राणवायु मिली है। इसे शिविर की सबसे बड़ी उपलब्धि माना जा सकता है। पार्टी के इस चौथे चिंतन शिविर में शिमला में 2003 में हुए दूसरे चिंतन शिविर की छाप नजर आई। एक बार फिर पार्टी ने आर्थिक और सामाजिक मुद्दों के प्रति संवेदनशीलता प्रकट की।

Messages coming out of Congress's Chintan Shivir | राजेश बादल का ब्लॉग: कांग्रेस के चिंतन शिविर से निकलते संदेश

राजेश बादल का ब्लॉग: कांग्रेस के चिंतन शिविर से निकलते संदेश

Highlightsप्रधानमंत्री चंद्रशेखर के कार्यकाल में सोने का रिजर्व भंडार गिरवी रखना पड़ा था और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदुस्तान की वित्तीय साख गिरी थी।वर्तमान परिस्थितियों में भारत के लिए नेहरू युग के समाजवाद और सहकारिता पर जाेर देना जरूरी है।

कांग्रेस का चौथा चिंतन शिविर अरसे बाद कुछ स्पष्ट और ठोस संकल्पों के साथ संपन्न हुआ। इस शिविर में लंबे समय से दल में अनेक मसलों पर छाया कुहासा दूर होता दिखाई दे रहा है। तीन साल पहले 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद यह बुजुर्ग पार्टी निराशा और हताशा की स्थितियों का सामना कर रही थी। पांच प्रदेशों के विधानसभा चुनावों में मिली पराजय ने अवसाद को और घना कर दिया था। उसके बाद पार्टी छोड़कर जाने वाले कार्यकर्ताओं और नेताओं की तादाद में बढ़ोत्तरी हुई थी। 

नेतृत्व पर सवाल उठाए जाने लगे थे और कहा जाने लगा था कि अब कांग्रेस का भगवान ही मालिक है लेकिन इधर हाल ही में समूह-23 के सदस्यों ने जिस अंदाज में पार्टी के पुनर्गठन और गंभीर मसलों पर स्पष्टता की खुलकर मांग की और उसके बाद प्रशांत किशोर प्रसंग के दौरान पार्टी सुर्खियाें में आई, उसने आलाकमान को त्वरित कार्रवाई के लिए विवश कर दिया था। वास्तव में कांग्रेस की ओर देश भर के मतदाता भी टकटकी लगाए देख रहे थे। उनकी चिंता लोकतंत्र की सेहत को लेकर थी, जिसमें पक्ष तो बेहद मजबूत था लेकिन प्रतिपक्ष का आकार चुनाव दर चुनाव अत्यंत महीन और दुर्बल हो रहा था। 

उदयपुर चिंतन शिविर से पार्टी को निश्चित रूप से प्राणवायु मिली है। इसे शिविर की सबसे बड़ी उपलब्धि माना जा सकता है। पार्टी के इस चौथे चिंतन शिविर में शिमला में 2003 में हुए दूसरे चिंतन शिविर की छाप नजर आई। एक बार फिर पार्टी ने आर्थिक और सामाजिक मुद्दों के प्रति संवेदनशीलता प्रकट की। पूर्व वित्त मंत्री चिदंबरम ने कहा कि आर्थिक उदारीकरण का लाभ कांग्रेस पार्टी की सरकार के दौरान 1991 से 1996 के मध्य देश को मिल चुका है। लेकिन मौजूदा परिदृश्य उदारीकरण की अवधारणा में परिवर्तन मांग रहा है। इसकी समीक्षा करने की आवश्यकता है। जब नरसिंह राव और डॉ मनमोहन सिंह की जोड़ी ने तीन दशक पहले इन परिवर्तनों की शुरुआत की थी तो उससे पहले भारत की वित्तीय हालत जर्जर हो चुकी थी। 

प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के कार्यकाल में सोने का रिजर्व भंडार गिरवी रखना पड़ा था और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदुस्तान की वित्तीय साख गिरी थी। भारत ने जब परदेसी कंपनियों के लिए दरवाजे खोले और पूंजी निवेश को न्यौता दिया तो उसके सकारात्मक परिणाम मिले थे। देखते ही देखते भारतीय अर्थव्यवस्था कुलांचे भरने लगी थी लेकिन आज के भारत की प्राथमिकताएं अलग हैं। विदेशी पूंजी निवेश को निमंत्रण हमेशा कारगर नहीं होता और न ही औद्योगिक घरानों के हाथों में मुल्क को सौंपकर निश्चिंत हुआ जा सकता है। 

वर्तमान परिस्थितियों में भारत के लिए नेहरू युग के समाजवाद और सहकारिता पर जाेर देना जरूरी है। तभी सामाजिक सशक्तिकरण का लक्ष्य पूरा हो सकता है। इसके अलावा बेरोजगारी की समस्या दूर करने और खुशहाली का कोई मंत्र नहीं हो सकता। कांग्रेस के लिए एक और चुनौती नए खून को अवसर देने की है। प्रथम पंक्ति के नेता सिकुड़ते जा रहे हैं। एक तरफ पार्टी उनकी कमी महसूस कर रही है तो दूसरी ओर नौजवान पीढ़ी को संगठन में समुचित प्रतिनिधित्व नहीं मिलने से उनमें कुंठा बढ़ती जा रही है। राजनीतिक जीवन में पचास-पचपन की आयु के बाद कुछ कर दिखाने के मौके भी सीमित हो जाते हैं। 

बीते दिनों इस आयु वर्ग के पार्टी कार्यकर्ताओं तथा नेताओं की निराशा का कारण भी यही था। अपनी पार्टी छोड़कर जाने का यह भी एक बड़ा कारण रहा है। सिंधिया हों या जतिन प्रसाद, आरपीएन सिंह हों या कोई अन्य- सभी अपनी सर्वाधिक ऊर्जा के साथ पार्टी को कुछ न कुछ देना चाहते थे। वे पार्टी के हित में, संगठन को पुनर्जीवित करने के लिए अपने आपको झाेंकने के लिए तैयार थे, मगर आलाकमान उन्हें संगठन के काम में भी नहीं लगा रहा था। अध्यक्ष सोनिया गांधी ने साफ कर दिया है कि पार्टी अब देने की स्थिति में नहीं रही है, बल्कि पार्टी के लिए अपने आपको समर्पित करने का समय आ गया है। 

एक वर्ग राहुल गांधी को एक बार फिर पार्टी की कमान सौंपने के पक्ष में है। चूंकि राष्ट्रीय स्तर पर चुनाव प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी है, आने वाले दिनों में इसका भी निर्णय हो जाएगा। यदि गांधी परिवार अपने को नेतृत्व की दौड़ से अलग करता है तो फिर सिवाय अशोक गहलोत के कोई अन्य राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए नहीं दिखाई देता। माना जा सकता है कि संगठन चुनाव के बाद जो कांग्रेस इस देश के सामने प्रस्तुत होगी, उसमें नए और पुराने खून का पर्याप्त मिश्रण होगा। चिंतन शिविर में पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के हवाले से बेहद महत्वपूर्ण बात कही गई है। 

उन्होंने जाेर दिया है कि कांग्रेस कार्यकर्ताओं को आम अवाम के साथ जीवंत रिश्ता बनाने की जरूरत है। बताने की आवश्यकता नहीं कि आज की कांग्रेस का प्रदेश, जिला, तहसील और पंचायत स्तर पर संवाद टूटा हुआ है। जब तक यह दोबारा स्थापित नहीं होता, तब तक पार्टी के लिए आगामी चुनाव में आक्रामक अंदाज में भाजपा का मुकाबला करना कठिन होगा। मैं याद कर सकता हूं कि इंदिरा गांधी के नहीं रहने पर भी ऐसी ही परिस्थितियां बनी थीं। तब कांग्रेस के शताब्दी वर्ष में दिल्ली तथा मुंबई में बड़े अधिवेशन हुए थे। 

उनमें तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने पंडित जवाहरलाल नेहरू के 1936 में लखनऊ में दिए गए एक भाषण का जिक्र किया था। उस भाषण में नेहरूजी ने कहा था कि कांग्रेस ने जनता से संपर्क खो दिया है। कांग्रेस कमजाेर होकर सिकुड़ती जा रही है इसलिए इसकी शक्ति पहले से घट गई है। राजीव गांधी के इस भाषण का असर हुआ था और युवा कांग्रेस, महिला कांग्रेस, छात्र कांग्रेस तथा संगठन का धमनियों और शिराओं में प्रभाव दिखने लगा था। क्या उदयपुर के चिंतन शिविर का असर भी आने वाले दिनों में दिखाई देगा?

Web Title: Messages coming out of Congress's Chintan Shivir

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