हिंदी की पढ़ाई को छोड़ बाकी सब चाहिए!, राजनीति अजीब, कभी धर्म, जाति और प्रांत या भाषा के नाम पर...

By Amitabh Shrivastava | Updated: June 28, 2025 04:42 IST2025-06-28T04:42:30+5:302025-06-28T04:42:30+5:30

चुनाव के हथियार को दूसरे और दूसरे के तीसरे में चलाने से बचा जा रहा है या उसे चुका मान लिया गया है. इसीलिए हिंदी एक नए हथियार के रूप में सामने आई है.

Maharashtra want everything except Hindi study Politics strange Sometimes name religion castes both not work province or language blog Amitabh Srivastava | हिंदी की पढ़ाई को छोड़ बाकी सब चाहिए!, राजनीति अजीब, कभी धर्म, जाति और प्रांत या भाषा के नाम पर...

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Highlightsकेवल मुंबई में भाषाई आधार पर ध्रुवीकरण किया जा रहा है. महाराष्ट्र के गठन से पहले हिंदीभाषी प्रांत से ही जुड़ा हुआ था. प्रांत से तैयार हिंदी सिनेमा विश्वभर में अपनी पहचान बनाता है.

Maharashtra language dispute: राजनीति भी बड़ी अजीब है. उसमें कभी धर्म के नाम पर, कभी जातियों में भेद कर और यदि दोनों ही नहीं चले तो प्रांत या भाषा के नाम पर झगड़े करा लक्ष्य पाने की खुली कोशिश की जाती है. जिसके प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में महाराष्ट्र में लोकसभा चुनाव से लेकर आने वाले स्थानीय निकायों के चुनावों तक हर प्रकार और स्तर तक कटुता पैदा करने के प्रयासों को देखा जा सकता है. ध्यानार्थ यह है कि एक चुनाव के हथियार को दूसरे और दूसरे के तीसरे में चलाने से बचा जा रहा है या उसे चुका मान लिया गया है. इसीलिए हिंदी एक नए हथियार के रूप में सामने आई है.

जिसको लेकर केवल मुंबई में भाषाई आधार पर ध्रुवीकरण किया जा रहा है. वर्ना यह भी जानने में कोई गुरेज नहीं करना चाहिए कि राज्य का विदर्भ भाग महाराष्ट्र के गठन से पहले हिंदीभाषी प्रांत से ही जुड़ा हुआ था. साथ ही यह वही राज्य है, जिसकी सीमाएं दो हिंदी, एक-एक गुजराती, कन्नड़ और तेलुगू भाषी राज्यों से जुड़ती हैं. इसी प्रांत से तैयार हिंदी सिनेमा विश्वभर में अपनी पहचान बनाता है.

यहीं हिंदी के पहले विश्व सम्मेलन का आयोजन हुआ था. मराठी भाषी बाबूराव विष्णु पराड़कर ने हिंदी पत्रकारिता के मानक स्थापित किए हैं और अमरावती में जन्मे गुणाकर मुले ने तत्कालीन इलाहाबाद से शिक्षा लेकर हिंदी में विज्ञान लेखन का कीर्तिमान बनाया है. वैसे यह बात बहुत दिन पुरानी नहीं है, जब फिल्मों के पटकथा लेखक और गीतकार जावेद अख्तर 27 फरवरी को मराठी दिवस के मंच पर दिखे और उन्होंने हिंदी में ही अपनी बात कही तथा अपनी रचना सुनाई. उसके बाद शिवसेना के प्रवक्ता संजय राऊत की मराठी किताब के विमोचन समारोह में भी वह हिंदी में बोलते सुने गए.

यहां तक कि उनके विचारों को दोहराते हुए अनेक वक्ताओं को हिंदी में बोलना पड़ा. इससे पहले भी जावेद अख्तर मराठी साहित्य सम्मेलन के मंचों पर देखे गए हैं और उन्होंने अपने विचार अपनी भाषा में रखे. इन आयोजनों में किसी ने अंगुली नहीं उठाई. हालांकि इन दिनों में हिंदी के विरोध में उबल रहे नेताओं ने उन्हीं मंचों पर गैरमराठी में विचार सुनकर ताली ही बजाई थी.

वहीं, दूसरी ओर जब-जब मराठी साहित्य सम्मेलनों के आयोजन हुए, उनमें हिंदी के बढ़ते प्रभाव पर रोना रोया गया. हिंदी फिल्मों और धारावाहिकों को लेकर भी चिंता व्यक्त की गई. किंतु उक्त अवसरों पर कहीं जावेद अख्तर तो कहीं गुलजार दिखाई दिए. इसी प्रकार चुनाव से लेकर किसी भी आयोजन में हिंदी कलाकार के साथ मंच साझा करने में किसी नेता को कभी दु:ख नहीं हुआ.

उसे भाषा का संकट नजर नहीं आया. यह साबित करता है कि आवश्यकता अनुसार हिंदी के विरोध की परंपरा बन गई है. इसे प्रेरणा दक्षिण के राज्यों से मिलती है. वहां हिंदी की खिलाफत का इतिहास है. उन्होंने अपने साहित्य, सिनेमा और संस्कृति को इतना समृद्ध बनाया है कि किसी मंच पर उन्हें दूसरे भाषाभाषी की आवश्यकता महसूस नहीं होती है.

यहां तक कि चुनावों में भी क्षेत्रीय कलाकारों का बोलबाला रहता है. महाराष्ट्र में चंद नेताओं और कतिपय मराठी साहित्यकारों ने मंच देखकर हिंदी की खिलाफत की है. उनके अलावा गांधीवादी नेता मधुकरराव चौधरी ने वर्धा राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की अध्यक्षता की और उन्हें हिंदी के प्रचार-प्रसार का पुरोधा माना जाता है. राज्य में तीसरी भाषा के रूप में हिंदी, संस्कृत और उर्दू हमेशा ही विकल्प के रूप में रहे.

विद्यार्थियों ने विश्वविद्यालय स्तर पर स्नातक से लेकर पीएचडी तक उपाधियां हासिल की हैं. उन्हीं में से अनेक मराठी भाषी हिंदी साहित्यकार, शिक्षक और प्राध्यापक तैयार हुए हैं. वर्तमान समय में मराठीभाषी हिंदी के विद्वान अनेक राज्यों में शिक्षा-दीक्षा का कार्य कर रहे हैं. इनके बीच हिंदी से नुकसान की कहीं चर्चा सुनने और देखने में नहीं मिली.

मराठी की तरह देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिंदी किसी भाषा के समक्ष संकट नहीं बनी, जो अंग्रेजी के साथ अनुभव हो रहा है. भारत में मातृभाषा को हमेशा ही सर्वोपरि रखा गया है. उसे ही प्राथमिक शिक्षा का आधार माना गया है. उसके बाद संपर्क भाषा और अंतरराष्ट्रीय संवाद की भाषा के रूप में क्रमश: हिंदी तथा अंग्रेजी की आवश्यकता मानी गई है.

जहां मातृभाषा चल नहीं पाती, वहां से संपर्क भाषा के रूप में हिंदी काम करने लगती है और उसके बाद अंग्रेजी अपना स्थान ले लेती है. यदि इस स्थिति में प्राथमिक स्तर से तैयारी नहीं की जाए तो सुनहरे भविष्य की कल्पना कैसे की जा सकती है? बच्चों को ‘ए फॉर एप्पल’ की संकल्पना बच्चों में मामूली समझ आने के साथ ही दी जाने लगती है, लेकिन हिंदी चलताऊ ढंग से सीखने में कोई शर्म महसूस नहीं जाती है.

स्कूल में कदम रखते ही बच्चों से अंग्रेजी के शब्दों के सही उच्चारण से लेकर सही व्याकरण के उपयोग की अपेक्षा रखी जाती है. वहीं हिंदी की गलती अनदेखी कर दी जाती है. ऐसे में यदि किसी भाषा की आवश्यकता है तो उसे विधिवत सीखने में कोई संकोच या प्रतिष्ठा का मुद्दा नहीं बनाया जाना चाहिए.

जब फ्रेंच, जर्मन, जापानी, रूसी आदि भाषाओं को सीखने में हमें कोई शर्म नहीं आती है तो भारत की अग्रणी भाषा को सीखने में हिचकिचाहट किस बात की है. यह तय है कि भाषा सीखने के लिए विधिवत ज्ञान प्राप्त करना होगा, जो शिक्षण संस्थाएं ही दे सकती हैं. इसलिए शिक्षा पाठ्‌यक्रम के साथ ही कोई भाषा सीखी जा सकती है.

जिसे देखते हुए हिंदी विरोध ‘कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना’ दिख रहा है. मजेदार बात यह है कि तीसरी भाषा के रूप में हिंदी की अनिवार्यता को लेकर विरोध किया जा रहा है, जबकि सरकार सभी भाषाओं का विकल्प दे रही है और उन्हें सिखाने की तैयारी भी है.

बावजूद इसके यदि कोई विद्यार्थी हिंदी सीखकर आधे से अधिक भारत में अपने भविष्य की संभावना देखना चाहता है तो केवल राजनीति की रोटियां सेंकने के लिए हिंदी का विरोध क्यों ? हिंदी एक निजी पसंद है, न अनिवार्यता है और न ही बाध्यता है. इतना अवश्य है कि हिंदी विद्यार्थियों के लिए एक सुनहरा कल है और जिसके साथ चलने में भविष्य उज्ज्वल है.

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