महाराष्ट्र की राजनीति में हलचल, करुणानिधि की राह पर चल रहे हैं ठाकरे?, आखिर क्या है माजरा

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: July 11, 2025 05:28 IST2025-07-11T05:27:02+5:302025-07-11T05:28:31+5:30

Maharashtra political stir: महाराष्ट्र का निर्माण वास्तव में छह-सात दशक पहले खूनी, हिंसक संघर्षों के बाद भाषायी पहचान के आधार पर ही हुआ था.

Maharashtra political stir Uddhav and Raj Thackeray following path Karunanidhi blog Abhilash Khandekar | महाराष्ट्र की राजनीति में हलचल, करुणानिधि की राह पर चल रहे हैं ठाकरे?, आखिर क्या है माजरा

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Highlights1950 के दशक के मध्य और उत्तरार्ध में मराठी आकांक्षाओं की रक्षा के लिए भीषण राजनीतिक संघर्ष हुआ.उद्धव और राज ने अपने पुनर्मिलन के कारण के रूप में अपने मराठी गौरव के बारे में बात की है,दिल्ली को साहसपूर्वक चुनौती दी थी. उन्होंने मराठी राज्य की आवश्यकता पर बल दिया था.

अभिलाष खांडेकर

भाषा को लेकर राजनेताओं द्वारा अपने दशकों पुराने मतभेदों को भुला देने से महाराष्ट्र की राजनीति में हलचल मच गई है. चचेरे ठाकरे भाइयों -उद्धव और राज का एक साथ आना राजनीतिक विश्लेषकों और दोनों मूल हिंदुत्ववादी दलों के कार्यकर्ताओं के लिए हर लिहाज से एक आश्चर्य की बात थी. इसके पीछे उनकी घोषित वजह कोई राजनीतिक नहीं, बल्कि एक भाषा है जो उनकी मातृभाषा है और 1960 से महाराष्ट्र की राजभाषा है. महाराष्ट्र का निर्माण वास्तव में छह-सात दशक पहले खूनी, हिंसक संघर्षों के बाद भाषायी पहचान के आधार पर ही हुआ था.

1950 के दशक के मध्य और उत्तरार्ध में मराठी आकांक्षाओं की रक्षा के लिए भीषण राजनीतिक संघर्ष हुआ. द्विभाषी बॉम्बे राज्य को अंततः विलीन कर दिया गया और बॉम्बे (बाद में मुंबई) को राजधानी बनाने वाले एक मराठी भाषी राज्य का मार्ग प्रशस्त हुआ, लेकिन कई लोगों की जान जाने के बाद. चूंकि उद्धव और राज ने अपने पुनर्मिलन के कारण के रूप में अपने मराठी गौरव के बारे में बात की है,

मुझे याद आता है कि कैसे उस समय के दिग्गज एसए डांगे, एसएम जोशी, पीके अत्रे, मधु दंडवते, केशव ठाकरे, अहिल्या रांगणेकर, टीआर नरवणे और अन्य नेता मजबूत संयुक्त महाराष्ट्र समिति (एसएमएस) के नेता थे, जिन्होंने दिल्ली को साहसपूर्वक चुनौती दी थी. उन्होंने मराठी राज्य की आवश्यकता पर बल दिया था.

गुजरात से अलग अपने राज्य के लिए कड़ा संघर्ष किया था और कर्नाटक के मराठी भाषी कुछ हिस्सों की भी मांग की थी. बाद में वह हिस्सा नहीं मिला (बेलगाम, कारवार, बीदर जिलों का नए महाराष्ट्र में विलय नहीं हुआ) लेकिन बॉम्बे पुनर्गठन अधिनियम 1960 के माध्यम से, पंडित जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल द्वारा भाषायी राज्यों के विरोध के बावजूद यशवंत राव चव्हाण के नेतृत्व वाले महाराष्ट्र का जन्म हुआ.

उस समय मराठी के लिए हुई हिंसा में सैकड़ों लोग मारे गए थे, ठीक उसी तरह जैसे कुछ साल बाद 1965 में दक्षिणी राज्य तमिलनाडु में हिंदी के खिलाफ हुए विरोध प्रदर्शनों में मारे गए थे. मैं माहिम (मुंबई) में जन्मा एक मराठी व्यक्ति हूं, हालांकि पिछले 60 वर्षों से हिंदीभाषी राज्य मध्य प्रदेश में रह रहा हूं.

दूर से मैं अब ठाकरे परिवार को ‘अपनी भाषा’ के लिए दलगत राजनीतिक उद्देश्यों से ऊपर उठते हुए उत्सुकता से देख रहा हूं. भाषा विवाद में हिंसा का मैं विरोधी हूं. मराठी के लिए उनका संघर्ष किस तरह आगे बढ़ेगा, यह वास्तव में एक प्रगतिशील राज्य महाराष्ट्र की ओर सबकी नजरें खींचने वाला है. क्या वे महाराष्ट्र में गुजरातियों, बिहारियों और यूपी वालों को मराठी बोलने पर मजबूर कर पाएंगे,

जैसे करुणानिधि की डीएमके ने तमिल के लिए किया था? डीएमके ने दिल्ली के साथ लड़ाई लड़ी थी-भाषा के लिए. ठाकरे परिवार अच्छी तरह जानता है कि बालासाहब ठाकरे ने भी मराठी माणूस के लिए लड़ाई लड़ी थी और इसीलिए उन्होंने 1966 में शिवसेना की स्थापना की थी. उन्होंने कुछ हद तक मराठी लोगों के लिए रोजगार सुनिश्चित किया था.

वे कद्दावर नेता थे एवं मराठी लोगों के लिए चट्टान की तरह हमेशा खड़े रहे. उनकी शिवसेना ने सरकार में और बाहर मराठी लोगों के हितों की रक्षा की थी. लेकिन वो दिन अलग थे. जनवरी 1965 में, तमिलनाडु में करुणानिधि ने जो आंदोलन किया और हिंदी के खिलाफ जमकर विरोध प्रदर्शन किया उसके लिए उन्हें गिरफ्तार किया गया था और अधिकांश तमिल नेता उनके साथ थे.

भाषा सम्मेलन, छात्र विरोध प्रदर्शन, रैलियां - ये सब तमिल भाषा की रक्षा के नाम पर हुए थे. कांग्रेस नेता एम भक्तवत्सलम आखिरी मुख्यमंत्री थे उस दल के;  दिल्ली में लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री थे और गुलजारीलाल नंदा गृह मंत्री थे. मुख्यमंत्री ने खुद स्वीकार किया था कि व्यापक विरोध और आगजनी की घटनाओं को नियंत्रित करने के लिए पुलिस ने गोलीबारी की और अकेले फरवरी 1965 में 51 लोग मारे गए.

शास्त्रीजी ने तुरंत नरमी दिखाई और वादा किया कि हिंदी नहीं थोपी जाएगी. वैसे हिंदी का विरोध वास्तव में 1930 के दशक के अंत में शुरू हुआ था जब पेरियार रामासामी ने हिंदी के खिलाफ विद्रोह की आग सुलगाई थी. मैं तमिलनाडु के उस समय और आज के महाराष्ट्र के बीच कुछ समानताएं देखता हूं. फर्क सिर्फ इतना है कि मोदी-शाह की जोड़ी आज 60 के दशक के शास्त्री-नंदा से कहीं ज्यादा मजबूत है.

करुणानिधि और उनके जैसे लोग एक मजबूत विपक्ष को खड़ा करने में कामयाब रहे थे और दिल्ली को झुका सकते थे, भाषा के लिए. लेकिन औद्योगीकृत महाराष्ट्र और नौकरियों का बड़ा केंद्र व भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई में कई गुजराती, पारसी और मारवाड़ी व्यवसायी अब प्रभावी हैं. मजदूर वर्ग, टैक्सी चालक, असंगठित मजदूर बिहार और उत्तर प्रदेश से हैं.

शिवसेना और मनसे मिलकर उन्हें कैसे बाहर निकाल सकते हैं या भाजपा के राज में उन्हें जबरन मराठी बोलने पर मजबूर कर सकते हैं? फिल्म उद्योग का क्या होगा? ग्रामीण महाराष्ट्र में आज मराठी बोली जाती है, लेकिन पुणे, नागपुर, संभाजी नगर आदि में इस भाषा का प्रभाव धीरे-धीरे कम होता जा रहा है.

इस पर ठाकरे बंधुओं के विचार मुझे सुनने हैं. हालांकि मराठी भाषा पर दोनों चचेरे भाइयों की पूरी योजना अभी तक ज्ञात नहीं है, लेकिन महाराष्ट्र का ‘मराठी माणुस’ ठाकरे परिवार का समर्थन करने के लिए कितनी मजबूती से तैयार है, यह देखना अभी बाकी है. भाषा की राजनीति में अभी कई मोड़ आएंगे.  

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