महाराष्ट्र विधानभवन परिसरः ये कार्यकर्ता नहीं, क्या गुंडों की फौज है ये?

By विजय दर्डा | Updated: July 21, 2025 05:18 IST2025-07-21T05:18:13+5:302025-07-21T05:18:13+5:30

Maharashtra Legislative Assembly Complex: राष्ट्रवादी कांग्रेस (शरद पवार गुट) के विधायक जितेंद्र आव्हाड़ के समर्थक नितिन देशमुख और भाजपा विधायक गोपीचंद पडलकर के समर्थक सर्जेराव बबन टकले के खिलाफ पहले से कई मामले दर्ज हैं.

Maharashtra Legislative Assembly Complex these not workers they army goons blog Dr Vijay Darda | महाराष्ट्र विधानभवन परिसरः ये कार्यकर्ता नहीं, क्या गुंडों की फौज है ये?

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Highlightsदरअसल जिन दो लोगों पर मुख्य रूप से आरोप लग रहे हैं, उनका रिकॉर्ड दागदार है. टकले पर तो झोपड़पट्टी दादा विरोधी कानून के तहत कार्रवाई भी हो चुकी है. दूसरे लोगों को विधानभवन में आने की अनुमति कैसे मिली?

महाराष्ट्र विधानभवन परिसर में पिछले सप्ताह विधायकोें के समर्थकों के बीच जोे भीषण मारपीट हुई, एक-दूसरे को मां-बहन की गालियां दीं और कपड़े फाड़ दिए, उसने पूरे महाराष्ट्र को शर्मिंदा कर दिया है. हर कोई यही कह रहा है कि समर्थक या कार्यकर्ता ऐसा कैसे कर सकते हैं. क्या ये गुंडों की फौज थी? दरअसल जिन दो लोगों पर मुख्य रूप से आरोप लग रहे हैं, उनका रिकॉर्ड दागदार है. राष्ट्रवादी कांग्रेस (शरद पवार गुट) के विधायक जितेंद्र आव्हाड़ के समर्थक नितिन देशमुख और भाजपा विधायक गोपीचंद पडलकर के समर्थक सर्जेराव बबन टकले के खिलाफ पहले से कई मामले दर्ज हैं.

टकले पर तो झोपड़पट्टी दादा विरोधी कानून के तहत कार्रवाई भी हो चुकी है. सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि इन दोनों को और दूसरे लोगों को विधानभवन में आने की अनुमति कैसे मिली? टकले के पास तो विधानभवन का पास भी नहीं था. यह सुरक्षा में चूक का गंभीर मामला है. संसद पर आतंकी हमले के बाद पूरा देश यही सोच रहा है कि विधानभवनों में  भी सुरक्षा व्यवस्था इतनी चौकस होगी ही कि बिना पास के कोई भी व्यक्ति विधानभवन में प्रवेश न कर पाए! मगर इस घटना ने नई चिंता पैदा कर दी है. चर्चा तो यहां तक है कि पांच से लेकर दस हजार रुपए में पास मिल जाते हैं. क्या वाकई ऐसा है?

अब एक पक्ष कह रहा है कि यह घटना अचानक हुई तो दूसरा पक्ष कह रहा है कि घटना सुनियोजित थी. मेरे लिए या किसी के लिए भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि तैयारी किसकी तरफ से थी. किसने किसको ज्यादा मारा, ज्यादा मां-बहन की गालियां दीं या किस पक्ष के समर्थकों के कपड़े ज्यादा फटे. चिंता का विषय यह है कि महाराष्ट्र की राजनीति जा कहां रही है?

इससे पहले विधानसभा के भीतर तीखे वाद-विवाद होते रहे हैं. खूब हंगामे भी होते रहे हैं. पेपर वेट भी फेंके गए हैं लेकिन वे छोटी घटनाएं थीं. विधानभवन परिसर में जिस तरह की घटना अभी हुई, वैसी शर्मनाक घटना पहले कभी नहीं हुई. मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने बिल्कुल सही कहा है कि इस घटना के कारण हमारा सिर शर्म से झुक गया है.

तमिलनाडु, उत्तरप्रदेश और बिहार में इस तरह की घटनाएं होती रही हैं. मगर हमारा महाराष्ट्र इससे अछूता था. ये बीमारी कहां से आई? हालांकि विधानसभा अध्यक्ष राहुल नार्वेकर ने विधायकों को खरी-खोटी सुनाई है और यह बड़ा निर्णय भी लिया कि विधानभवन में अब आगंतुकों को आने की अनुमति नहीं होगी. इतना ही नहीं मंत्रियों को भी निर्देश दिए हैं कि वे विधानभवन में कोई बैठक नहीं करेंगे.

अपनी बैठकें वे मंत्रालय में ही करें. मगर सवाल केवल विधानभवन का नहीं है. सवाल तो महाराष्ट्र की राजनीति के बदलते हुए स्वरूप का है. महाराष्ट्र में राजनीति की पवित्रता पर हम गर्व करते रहे हैं. मैं पूरे देश में घूमता हूं, विदेश में घूमता हूं और गर्व से महाराष्ट्र की राजनीतिक शुचिता की बात भी करता हूं. मगर अब मैं किस मुंह से राजनीतिक शुचिता की बात करूंगा?

मेरे मन में संदेह पैदा हो रहा है कि क्या हमारी राजनीति पर आपराधिक सोच की काली छाया पड़ गई है? राजनीति में दबंगई  वाले कुछ लोगों को मेरी बात बुरी लग सकती है लेकिन इस सच्चाई से कौन इनकार कर सकता है कि देश के दूसरे राज्यों की तरह ही हमारे यहां की राजनीति भी अपराध का शिकार होती जा रही है.

मैं चुनाव आयोग के आंकड़ों का विश्लेषण कर रहा था तो यह पढ़ कर हैरान रह गया कि विधानसभा के 286 विधायकों में से 118 के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं.  जब समग्रता में बात करेंगे तो राजनीति के अपराधीकरण के लिए किसी एक पार्टी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता. राजनीति में सारी पार्टियां पचास तरह के कर्म करती हैं और सारे कर्मों का एक ही उद्देश्य होता है कि ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतनी हैं.

सत्ता के शिखर पर बने रहना है तो जो जीतने की क्षमता रखने वाला व्यक्ति यदि आपराधिक दामन का है तो भी उसे टिकट देंगे! साम-दाम-दंड-भेद राजनीति का स्वरूप बन चुका है. सारे राजनीतिक दल आपराधिक तत्वों के कर्मों की अनदेखी करते हैं. उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती. कई विधायक इस बात का भी खयाल नहीं रखते कि उनके आचरण से नई पीढ़ी क्या सीखेगी!

संजय गायकवाड़ का ही मामला देखें, उन्होंने कैंटीन के एक व्यक्ति को कितनी बुरी तरह से मारा! मैं मानता हूं कि खाना ठीक नहीं बना होगा, मगर शिकायत के लिए हाउस की कमेटी है! कानून हाथ में लेने का अधिकार किसने दिया? हकीकत यह है कि राजनीति में सीधे-सादे समर्पित कार्यकर्ताओं की जगह उन लोगों ने ले ली है जो बेधड़क मारपीट करने की क्षमता रखते हैं.

जिनके खून में दबंगई होती है. नेता ऐसे गुंडों को पालते हैं और बेशर्मी ऐसी है कि कई नेता तो यहां तक कहते हैं कि गुंडों को साथ इसलिए रखते हैं ताकि उनका मन बदल सकें! मगर मैं मानता हूं कि वक्त रहते यदि गुंडों की फौज पर राजनीति ने काबू नहीं पाया तो ये गुंडे राजनीति को अपनी दासी बना लेंगे. कार्यकर्ताओं के नाम पर गुंडों की फौज जब तक पलती रहेगी, हम शर्मसार होते रहेंगे.  

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