लुटियंस का अभिजात्य वर्ग अपना नजरिया बदले

By पवन के वर्मा | Updated: July 29, 2018 10:21 IST2018-07-29T09:27:31+5:302018-07-29T10:21:20+5:30

इनके बीच बौद्धिक प्रतिभा वाले लोग भी हैं, भले ही वे अंग्रेजी में सबसे अधिक आरामदायक हों, उनका दायरा अपने जैसे चंद लोगों तक ही सिमटा हो, जहां केवल यही भाषा बोली जाती है और समझा जाता है कि देश की बेहतरी में इसका योगदान है।  

Lutyens' elite class changed their view | लुटियंस का अभिजात्य वर्ग अपना नजरिया बदले

लुटियंस का अभिजात्य वर्ग अपना नजरिया बदले

हाल ही में मैंने एक ब्लॉगिंग साइट को एक इंटरव्यू दिया, जिसमें कहा कि लुटियंस का अभिजात्य वर्ग अलग-थलग द्वीप के समान है, बिना जड़ों का, दिशाहीन और जो अधिकांशत: अंग्रेजी, अंग्रेजी और सिर्फ अंग्रेजी के द्वारा ही पहचाना जाता है।  जो मैंने कहा उसके समर्थन में कई टिप्पणियां आईं और विरोध में भी।  इसलिए मुझे लगता है कि इसे थोड़ा और विस्तार से बताने की जरूरत है कि मेरा मतलब क्या था।  सबसे पहले, जरूरी नहीं है कि ‘लुटियंस एलाइट’ वाक्यांश को परिभाषित क्षेत्रीय स्थान ही समझा जाए।  इससे कहीं आगे, यह एक नजरिया है, श्रेष्ठता की धारणा, जो कि मुख्यत: विरासत में मिले विशेषाधिकार के गर्व को रेखांकित करती है, लोगों को आंकने की जिसकी प्रवृत्ति सिर्फ इस पर आधारित होती है कि वे कितने धाराप्रवाह और विशिष्ट उच्चारण के साथ अंग्रेजी बोलते हैं।  दूसरा, (और यह बात महत्वपूर्ण है), ऐसा नहीं है कि इस तथाकथित अभिजात्य वर्ग में कोई प्रतिभा नहीं है।  

इनके बीच बौद्धिक प्रतिभा वाले लोग भी हैं, भले ही वे अंग्रेजी में सबसे अधिक आरामदायक हों, उनका दायरा अपने जैसे चंद लोगों तक ही सिमटा हो, जहां केवल यही भाषा बोली जाती है और समझा जाता है कि देश की बेहतरी में इसका योगदान है।  तीसरा, यह अपने आप में अंग्रेजी पर आक्षेप नहीं है।  अंग्रेजी ऐतिहासिक कारणों से दुनिया में बहुत से लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा बन गई है।  यह वैश्वीकृत दुनिया के साथ संपर्क के लिए अनिवार्य माध्यम है।  इसके अलावा, एक भाषा के रूप में, इसकी अपनी सुंदरता और निपुणता है।  स्वयं भाषाएं सांस्कृतिक वर्चस्व के लिए दोषी नहीं हैं, बल्कि उनका प्रयोग है।  

समस्या तब पैदा होती है, जब अंग्रेजी सामाजिक बहिष्कार का कारण बन जाती है।  लुटियंस का अभिजात्य वर्ग वास्तव में मानता है कि उसे इस भाषायी नस्लवाद की अगुवाई करने का अधिकार है, और वह शेष भारत को पीड़ित या आकांक्षी समझता है।  इस भाषा को पक्का साहिब की तरह बोलने की क्षमता ही शासक अभिजात्य वर्ग के आकर्षक सर्कल में प्रवेश के लिए एकमात्र कसौटी बन जाती है, सामाजिक स्वीकृति के लिए एकमात्र मापदंड।  जहां माना जाता है कि जो इसे सही स्वराघात के साथ बोलते हैं, वे हमारे जैसे लोग हैं।  जो ऐसा नहीं कर सकते, वे पराये हैं, देसी, जो योग्य सामाजिक और शैक्षणिक पृष्ठभूमि से वंचित हैं।  राजनयिक के अपने पूर्व रूप में, मुङो एक बार ऐसा बॉस मिला था जो लुटियंस एलाइट के सबसे बुरे गुणों का प्रतिनिधित्व करता था।  यदि कोई हिंदी या उर्दू मीडिया का मिलने आ जाता तो वे इंटरकॉम पर मुङो फोन करते और कहते : ‘‘कुछ एचएमटी और यूएमटी मुझसे मिलने आए हैं।  प्लीज, तुम उन्हें हैंडल कर लोगे?’’ एचएमटी का मतलब होता था ‘हिंदी मीडियम टाइप’ और यूएमटी का ‘उर्दू मीडियम टाइप’।  संयोग से वे खुद उर्दू का उच्चरण ‘अदरू’ करते थे। 

सौभाग्य से, अतीत के इन अवशेषों की संख्या घट रही है।  जो अभी भी जीवित हैं वे अधिकांशत: कैरीकेचर बन गए हैं, अपनी भाषायी संकीर्णता में अलग-थलग रहते हैं और अपनी सांस्कृतिक तथा भाषायी जड़ों से कटे हुए हैं।  वे दूसरे भारत से अनजान हैं, जहां अंग्रेजी महत्वपूर्ण तो है, लेकिन वहां चिंताओं, प्राथमिकताओं और प्रतिभाओं को सिर्फ इससे परिभाषित नहीं किया जाता कि उसे कैसे बोला जाता है।  फिर भी, यह मान लेना गलत होगा कि नये के सशक्तिकरण ने पुराने के सम्मान को पूरी तरह से नष्ट कर दिया है।  जब मैं लंदन में नेहरू सेंटर के निदेशक के रूप में पदस्थ था, तब लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स का सुनील कुमार नामक एक युवा छात्र मुझसे मिलने आया था।  

उसका परिवार बिहार से था, लेकिन वह इंग्लैंड में शिक्षित हुआ था और उसके अभिभावक अब कैलिफोर्निया में रहते थे।  उसने मुङो बताया कि दिल्ली की यात्र पर उसके साथ क्या हुआ : ‘‘मैंने सोचा कि बरिस्ता (आधुनिक कॉफी शॉप की श्रृंखला) में जाकर कॉफी पियूं, जो कि आगे ही थी।  मैं जींस के साथ कुर्ता पहने हुए था।  शॉप के दरवाजे पर खड़ी होस्टेस ने मुझसे हिंदी में कहा : ‘कहां जा रहे हो? इधर कॉफी बहुत महंगी है। ’ मैंने उससे हिंदी में पूछा कि कितनी महंगी है।  उसने कहा, ‘बावन रुपए का एक कप। ’ तब मैंने अंग्रेजी में उससे पूछा : ‘हाऊ मच इज बावन?’ वह चुप रह गई और उसने मेरे अंग्रेजी बोलने के लहजे पर गौर किया।  उसे लगा कि मैं इतना ज्यादा अंग्रेजियत में ढला हूं कि हिंदी की संख्याएं भी नहीं जानता, और उसका पूरा रवैया ही बदल गया।  अपने कठोर चेहरे पर मुस्कुराहट लाते हुए उसने मेरा स्वागत किया। ’’

यह घटना कुछ साल पहले हुई थी।  लेकिन आज भी, कुछ बहुत ज्यादा नहीं बदला है।  अंग्रेजी को दिए गए असमान महत्व का सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव हमारी अपनी भाषाओं पर पड़ा है और उसी अनुपात में उनका अवमूल्यन हुआ है।  खराब ढंग से बोली जा रही अंग्रेजी भी स्वीकार की जा रही है-बल्कि नई अखिल भारतीय भाषा के रूप में उसकी तारीफ भी की जा रही है-  भले ही पुराना अभिजात्य वर्ग इस पर हंसता है और इसे अपनी श्रेष्ठता का समर्थन मानता है।  एक ऐसे देश के लिए, जो कि भाषायी विरासत की दृष्टि से बहुत अमीर है, और जहां कम से कम दो दर्जन भाषाओं का सदियों का परिष्कृत साहित्य है, यह किसी त्रसदी से कम नहीं है।  यह अंग्रेजी का भाषायी नकलीपन ही था, जिसने एक बार अटल बिहारी वाजपेयी को यह कहने के लिए प्रेरित किया था कि अंग्रेजों ने अंतत: स्वतंत्रता आंदोलन के कारण भारत को नहीं छोड़ा, बल्कि इसलिए कि वे अंग्रेजी भाषा का और ज्यादा कत्लेआम सहन नहीं कर सकते थे!


लेकिन भारत बदल रहा है।  लुटियंस के अभिजात्य वर्ग का सामाजिक रूप से श्रेष्ठ होने, सवरेत्तम शैक्षिक संस्थानों और नौकरियों तक पहुंचने का दावा चुनौतियों के दायरे में है।  स्पष्ट रूप से, वे एक अलग-थलग द्वीप के रूप में सिकुड़ते गए हैं  और यदि उन्होंने अपने आप को नहीं बदला तो शीघ्र ही अप्रासंगिक हो   जाएंगे।  

Web Title: Lutyens' elite class changed their view

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