Lok Sabha Elections 2024: निर्वाचन आयोग द्वारा लोकसभा चुनाव के कार्यक्रम की घोषणा किए जाने के साथ ही देश में चुनावी गतिविधियों में तेजी आने लगी है. नेताओं के जोशीले बयान आने शुरू हो गए हैं और कुछ ही दिनों में भड़काऊ भाषणों के अंबार लग जाएंगे. पिछले कुछ वर्षों में चुनावों के दौरान यह लगभग रूटीन सा बन गया है. विडंबना यह है कि शायद ही किसी दल के नेता भड़काऊ भाषण देने या जुमले उछालने में पीछे रहते हैं. यहां तक कि अपने राजनीतिक विरोधियों पर व्यक्तिगत आक्षेप करने का चलन भी बढ़ता जा रहा है. यहां उन आपत्तिजनक शब्दों को दोहराने की जरूरत नहीं है लेकिन सब जानते हैं कि पिछले वर्षों में राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप के दौरान कई ऐसे शब्द उछाले गए हैं जिन्होंने राजनीति की गरिमा घटाकर उसे दागदार बनाया है.
इस बार भी अगर ऐसे कुछ नए आपत्तिजनक शब्दों का चुनावी शस्त्र की तरह इस्तेमाल किया जाए तो आश्चर्य नहीं. एक दौर था जब राजनीति में अपने विरोधियों पर विद्वत्तापूर्ण भाषा में अकाट्य तर्कों के साथ, किंतु शालीनता से ऐसे तीखे शाब्दिक हमले किए जाते थे कि विरोधी तिलमिलाकर रह जाते थे. इसके बावजूद उनके व्यक्तिगत रिश्तों में कोई आंच नहीं आने पाती थी, क्योंकि हमले व्यक्तिगत नहीं किए जाते थे और प्रयोग किए जाने वाले शब्दों की गरिमा का ध्यान रखा जाता था. अब राजनीतिक विमर्श में भाषा की मर्यादा का उल्लंघन तो जैसे आम बात हो गई है.
राजनीतिक विरोधियों को अब दुश्मन की तरह देखा जाने लगा है. मजे की बात यह है कि बड़े स्तर के नेता अभी भी कई बार अपने राजनीतिक विरोधियों के साथ व्यक्तिगत तौर पर मेलजोल और सद्भावपूर्ण संबंध रखते देखे जा सकते हैं लेकिन जमीनी स्तर पर उनके कार्यकर्ता अपने विरोधी दलों के कार्यकर्ताओं के साथ वैचारिक मतभेद रखने के बजाय उनके दुश्मन बन जाते हैं.
राजनीति समाज में विद्वेष फैलाने का एक हथियार बन जाती है. नेताओं को समझना होगा कि राजनीति समाज में विद्वेष फैलाने का हथियार नहीं बल्कि समाजसेवा करने का माध्यम है, इसलिए अपने मतभेदों को विचारों तक ही सीमित रखना चाहिए, किसी के ऊपर निजी तौर पर कीचड़ नहीं उछालना चाहिए.
अगर नेता ऐसा न करें तो जनता को ध्यान रखना होगा कि वह ऐसे लोगों को अपना प्रतिनिधि चुने जो सभ्य और शालीन हों, वरना संसद में भी वे विचारपूर्ण विमर्श और बहस करने के बजाय केवल हंगामा मचाकर शोरगुल करते रहेंगे.