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कपिल सिब्बल का ब्लॉग: निरर्थक बन कर रह गया संसद का मानसून सत्र

By कपील सिब्बल | Updated: September 30, 2020 16:56 IST

संसदीय कामकाज का एक महत्वपूर्ण हिस्सा प्रश्नकाल होता है. वहीं पर मंत्रियों की जवाबदेही देखने को मिलती है. इस सत्र में, प्रश्नकाल हटा दिया गया. सत्ता पक्ष की अयोग्यता को उजागर करने का विपक्ष के पास जो एकमात्र मौका था, उसे कतर दिया गया.

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ठळक मुद्देप्रश्नकाल हटाकर विपक्ष के पास मौजूद मौके को कतरा गया, सरकार बस प्रमुख कानूनों को पारित कराना चाहती थीसोशल डिस्टेंसिंग के नाम पर दोनों सदनों के सदस्यों को राज्यसभा और लोकसभा के बीच विभाजित किया गया था

संसद के हाल ही में संपन्न सत्र की कार्यवाही ने प्रदर्शित किया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आत्मनिर्भरता की अवधारणा आर्थिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है.

इन कार्यवाहियों ने दिखाया है कि सदन के कामकाज को संचालित करने में सरकार पूरी तरह से आत्मनिर्भर है: उसे विपक्ष की आवश्यकता नहीं है, अन्य राजनीतिक दलों के विचार का वह तिरस्कार करती है, प्रक्रियाओं की अपने मनमुताबिक व्याख्या करती है और सदन की परंपराओं से कोई संबंध नहीं रखती है. आत्मनिर्भरता के इस स्तर ने संसदीय कार्यवाही को मजाक में बदल कर रख दिया.

सोशल डिस्टेंसिंग के नाम पर दोनों सदनों के सदस्यों को विभाजित किया गया

संसदीय कार्यवाही के संदर्भ में लोकतांत्रिक कामकाज की प्रकृति यह है कि सदस्य एक कक्ष में बैठते हैं. इससे जोरदार बहस, विचारशील हस्तक्षेप और विचारों के खुले आदान-प्रदान का मौका मिलता है, जिसे लाखों लोग देखते हैं. हालांकि, इस मानसून सत्र के दौरान, सोशल डिस्टेंसिंग के नाम पर दोनों सदनों के सदस्यों को राज्यसभा और लोकसभा के बीच विभाजित किया गया था.

इसके परिणामस्वरूप राज्यसभा से जुड़े हम में से कई लोगों को लोकसभा में समायोजित किया गया था, जिन्हें राज्यसभा कक्ष में पीठासीन अधिकारी की कार्यवाही को देखने के लिए एक बड़ी टीवी स्क्रीन से जोड़ा गया था.

कांग्रेस के राज्यसभा के 15 सदस्य अपर हाउस में, 10 चेंबर में और पांच गैलरी में थे, जबकि शेष 26 लोकसभा में समायोजित किए गए थे. सबसे अच्छे समय में भी, एक चेम्बर में बैठते समय, योगदान करने के लिए या कोई मुद्दा उठाने के लिए सभापति का ध्यान खींच पाना कठिन होता है.

अधिकांश कांग्रेस सदस्यों ने पाया कि पीठासीन अधिकारी का ध्यान आकर्षित कर पाना असंभव है. वास्तव में, राज्यसभा कक्ष में केवल 10 कांग्रेस सदस्य ही सक्रिय रूप से सदन के कामकाज में शामिल थे,  यह बात  भाजपा सहित अन्य दलों के लिए भी सही थी.

प्रश्नकाल हटाकर विपक्ष के पास मौजूद मौके को कतरा गया

संसदीय कामकाज का एक महत्वपूर्ण हिस्सा प्रश्नकाल होता है. वहीं पर मंत्रियों की जवाबदेही देखने को मिलती है. इस सत्र में, प्रश्नकाल हटा दिया गया. इसका एकमात्र संभावित कारण, यद्यपि तर्कहीन, यह था कि प्रत्येक सदन की बैठकें चार घंटे तक सीमित थीं और इसलिए सरकार की जवाबदेही उतनी महत्वपूर्ण नहीं थी जितना कि प्रमुख कानूनों को पारित करना.

इस प्रकार सत्ता पक्ष की अयोग्यता को उजागर करने का विपक्ष के पास जो एकमात्र मौका था, उसे कतर दिया गया. प्रश्नकाल के बिना, इन कार्यवाहियों को देखने वाली जनता के पास प्रमुख राष्ट्रीय मुद्दों पर सरकार के कामों के आकलन का कोई जरिया नहीं था.

सरकारी फरमानों के अलावा इस सत्र को निर्थक बनाने वाली दूसरी समस्या इसकी सीमित अवधि थी. यहां राज्यसभा नुकसान में थी. इसके लिए आवंटित समय सुबह 9 से दोपहर 1 बजे तक था. जबकि लोकसभा को आवंटित समय दोपहर 3 बजे से 7 बजे तक था जिससे सदन की भावना के अनुरूप इसके सत्र को बढ़ाया जा सकता था. यह लाभ राज्यसभा को उपलब्ध नहीं था, क्योंकि उसे दोपहर 3 बजे से पहले बैठक समाप्त करना था. यह एक अलग तरह का भेदभाव था.

कोई भी आश्चर्य कर सकता है कि आखिर इस सत्र की जरूरत क्या थी. किसानों से संबंधित तीन अध्यादेशों को इस सत्र को आहूत किए बिना भी बरकरार रखा जा सकता था, खासकर तब जब कार्यवाही की संक्षिप्त प्रकृति को देखते हुए न तो विपक्ष की बात को सुने जाने की कोई इच्छा थी और न ही अधिक विचार-विमर्श के लिए इसे स्थायी समिति या प्रवर समिति को सौंपने को सरकार तैयार थी. 

बहस और चर्चा भाजपा का पसंदीदा तरीका नहीं

अन्य कानूनों में भी संशोधन के बजाय उन्हें अध्यादेश के माध्यम से जारी रखा जा सकता था क्योंकि भाजपा ने बार-बार दिखाया है कि विधायी कार्यो को निपटाने के लिए बहस और चर्चा उसका पसंदीदा तरीका नहीं है.

जैसा कि अपेक्षित था, सरकार इन मामलों में से किसी पर भी विचार-विमर्श के मूड में नहीं थी. किए जाने वाले संशोधनों के आलोक में, विपक्षी सदस्यों ने राज्यसभा में इस पर मत विभाजन की मांग की, क्योंकि 18 राजनीतिक दल, जिनमें जनता दल (यू) को छोड़कर भाजपा का समर्थन करने वाले दल भी शामिल थे, कानून के अपने वर्तमान स्वरूप में विरोधी थे. यदि मत विभाजन की अनुमति दी गई होती तो वह अध्यादेशों का व्यापक विरोध प्रदर्शित करता.

उपसभापति ने कथित तौर पर मत विभाजन का आदेश देने से इनकार कर दिया, जिससे राजनीतिक दलों को वोटों के जरिये अपने रुख को स्पष्ट करने से रोका जा सके, जो संयोग से सरकार के लिए अनुकूल नहीं था. तब सदन में अव्यवस्था को रोकने के लिए मार्शलों को लाया गया. 

इसके बाद सदन के आठ सदस्यों को निलंबित कर दिया गया. यह रूखापन ऐसी मानसिकता का लक्षण है जो विरोध को बर्दाश्त नहीं करती है. निलंबित सदस्य संसद भवन परिसर में महात्मा गांधी की प्रतिमा के पास विरोध में पूरी रात बैठे रहे.  

वास्तव में, यह सरकार विपक्ष को चुप कराने में आनंद लेती है. सबसे ऊपर, हमारे आत्मनिर्भर प्रधानमंत्री ने 2014 से कभी भी सदन में एक भी सवाल का जवाब नहीं दिया. संवाद का उनका पसंदीदा तरीका एकालाप है.

टॅग्स :संसद मॉनसून सत्रराज्य सभालोकसभा संसद बिलनरेंद्र मोदी
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