अदाकारा पद्मश्री कंगना रणावत अक्सर कुछ न कुछ ऐसा कहती रहती हैं जिससे वे चर्चा में बनी रहें. ताजा उदाहरण देश की आजादी के संदर्भ में दिया गया वह बयान है जिसमें उन्होंने कहा है कि आजादी हमें भीख में मिली थी.
उसे लेकर उनका अच्छा-खासा विरोध हो रहा है, पर वे अपनी बात पर डटी हुई हैं. कुछ लोग इसे सौ साल की आजादी की लड़ाई में शहीद हुए देशभक्तों का अपमान बता रहे हैं और कुछ का कहना है कि यदि कंगना इस अपराध के लिए क्षमा नहीं मांगतीं तो उनसे पद्मश्री का सम्मान वापस ले लिया जाना चाहिए.
भीख में मिली आजादी वाली बात से सहमत होना संभव नहीं है, यह कथन और सोच अज्ञान का ही सूचक नहीं है, एक तरह की बीमार मानसिकता का भी परिचायक है. लेकिन जहां तक ऐसा समझने और कहने का सवाल है, कंगना रणावत समेत किसी को भी ऐसा करने का अधिकार है.
हमारा संविधान हमें अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार देता है और जनतांत्रिक मूल्यों का तकाजा है कि हर नागरिक के इस अधिकार की रक्षा की जाए. इस रक्षा का यह काम सरकार और समाज दोनों को करना होता है.
लेकिन यहीं इस बात को भी नहीं भुलाया जाना चाहिए कि संविधान-प्रदत्त इस अधिकार के साथ विवेक का अंकुश भी लगा है. कुछ भी कहने से पहले अपनी बात को विवेक के तराजू पर तौलना हर नागरिक का कर्तव्य बनता है.
विवेक के इसी आधार पर कंगना रणावत के व्यवहार को समझा-परखा जाना चाहिए. पद्मश्री से अलंकृत अदाकारा का यह अधिकार है कि वे अपनी बात कह सकें, पर मेरा भी यह अधिकार बनता है कि मैं कह सकूं कि कंगनाजी आप गलत सोच रही हैं. आपको हवा में मुट्ठी लहराने की पूरी आजादी है, पर यह अधिकार आपको यह आजादी नहीं देता कि आपकी मुट्ठी मेरे नाक का भी ध्यान न रखे.
एक बात और भी जुड़ी है इस समूचे प्रकरण से कंगना रणावत ने अपनी विवादास्पद बात एक टीवी समाचार चैनल के एक कार्यक्रम में कही थी. मंच पर उनके साथ एंकर भी थी और उनके सामने प्रबुद्ध समझे जाने वाले आमंत्रित श्रोता भी थे.
जब मंच से देश की आजादी को भीख कहा जा रहा था तो उपस्थित श्रोताओं ने तालियां बजा कर फिल्मी अदाकारा के कथन का स्वागत (समर्थन) किया था. क्या अर्थ निकाला जाए इस स्वागत और समर्थन का?
क्या उनमें से किसी को नहीं लगा कि देश की आजादी को भीख बताना उन लाखों स्वतंत्रता, सेनानियों का अपमान है जिन्होंने अपने प्राण इसलिए निछावर कर दिए ताकि हम आजाद हवा में सांस ले सकें? क्या कार्यक्रम की एंकर का यह कर्तव्य नहीं बनता था कि वे कंगना रणावत की बात से असहमति जतातीं? यह असहमति जताई चैनल ने, पर पूरे अठारह घंटे बाद!
मर्यादा का तकाजा था कि कंगना रणावत अपनी मान्यता को संतुलित और सभ्य भाषा में सामने रखतीं. अपनी बात के समर्थन में उन्होंने बाद में जो तर्क रखने की कोशिश की है वे भी कुतर्क की ही श्रेणी में आते हैं. उनका कहना है कि यदि कोई यह प्रमाणित कर दे कि भीख में मिली आजादी वाली बात कह कर उन्होंने शहीदों का अपमान किया है तो वे पद्मश्री लौटा देंगी.
नहीं, सवाल सम्मान लौटाने का नहीं है, सवाल है सम्मान की रक्षा करने का. कंगना रणावत की सोच वाले लोग यह मानते हैं कि भले ही हमारे स्वतंत्रता-सेनानियों ने 15 अगस्त 1947 को विदेशी शासन का जुआ उतार फेंका था, पर असली आजादी हमें सन 2014 में ही मिली है! वर्ष 2014 यानी प्रधानमंत्री मोदी की सरकार बनने का वर्ष.
यह कैसे भुलाया जा सकता है कि अपनी सरकार चुनने का यह अधिकार भी उसी आजादी का परिणाम है जो महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, तिलक, गोखले, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, अशफाक उल्ला, मौलाना आजाद जैसे लाखों सेनानियों ने हमें दिलाई थी?
यह उन सबके बलिदान और त्याग-तपस्या का ही परिणाम है कि आज हम दुनिया में सिर उठाकर जीने लायक बने हैं. उस आजादी को भीख में मिली आजादी समझना-कहना शहीदों का अपमान नहीं तो क्या है?
समता, स्वतंत्नता, न्याय और बंधुता के चार स्तंभों पर खड़ा हमारा संविधान हमें अभिव्यक्ति की आजादी देता है, ताकि हम खुलकर अपनी बात कह सकें, अपने प्रतिनिधियों और अपने नेताओं से सवाल पूछ सकें, सही को सही और गलत को गलत कहने का साहस जुटा सकें. सवाल उठाने और घटिया विवादों की धूल उड़ाने में अंतर होता है.
आजादी के इस 75 सालों में हमारी सरकारों ने क्या किया, यह पूछने का हक बनता है हमें, समय-समय की सरकारों की नीतियों और उनके क्रियान्वयन पर भी प्रश्नचिह्न् लगाए जा सकते हैं. सच तो यह है कि यह हमारा कर्तव्य है. जागरूक नागरिक आजादी की रक्षा करने वाला सिपाही होता है. गलत के खिलाफ खड़े होना इसी जागरूकता का एक हिस्सा है- और प्रमाण भी.
अनर्गल और चौंकाने वाली बातों से फुलझड़ियां तो छोड़ी जा सकती हैं, पर वह बम नहीं जिसकी आवाज सोने वालों को जगा सके. अभिव्यक्ति की आजादी का एक मतलब सोतों को जगाना भी है. उत्तरदायी बनना इस जागरूकता का एक प्रमाण है.