बाबूजी... तीन अक्षरों का मंत्र. एक जीवन सिद्धांत जो दर्डा परिवार और लोकमत परिवार के जीवन में व्याप्त है... आज बाबूजी की 101वीं जयंती है. यह जयंती उनके विचारों की है. यह उनके प्रति आभार और धन्यवाद व्यक्त करने का दिन है. भारत सरकार ने बाबूजी के जन्म शताब्दी वर्ष के अवसर पर 100 रुपए का स्मारक सिक्का जारी किया है. यह सिक्का आज मुंबई में उनके जयंती समारोह में लोकार्पित किया जा रहा है. इससे श्रेष्ठ संयोग क्या हो सकता है? बाबूजी की आने वाली पीढ़ियों ने उनके विचारों को तन और मन से अपनाया है, इसलिए यह समारोह और विशेष बन जाता है.
बीसवीं सदी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और स्वतंत्रता के बाद राष्ट्र निर्माण की सदी थी. उस दौरान देश-भर के कई महापुरुषों ने अपनी छाप छोड़ी. उसमें महाराष्ट्र में जन्मे नवरत्नों की बहुत बड़ी हिस्सेदारी थी. अनेक भाग्यशाली लोगों को स्वतंत्रता से पहले और स्वतंत्रता के बाद भी देश की सेवा करने का अवसर मिला. इनमें से एक वरिष्ठ स्वतंत्रता सेनानी और लोकमत समूह के संस्थापक संपादक हैं जवाहरलाल दर्डा उर्फ बाबूजी!
किसी भी व्यक्ति की महानता उसके आचार-व्यवहार में ईमानदारी से किए गए कार्यों से सिद्ध होती है. इसके लिए वाणी और व्यवहार में शुद्धता और सामंजस्य होना चाहिए. ये सभी बातें एक साथ मिल जाएं तो वह केवल व्यक्ति नहीं रह जाता, बल्कि व्यापक अर्थों में समाज के लिए प्रेरणा और ऊर्जा का स्रोत बन जाता है. शक्ति बन जाता है. बाबूजी सभी के लिए एक प्रेरणा हैं, जो अपनी प्रतिभा से दूसरों के मार्ग को उसी तरह रोशन करते हैं. उनके व्यक्तित्व की गंध उसी तरह व्याप्त है, जैसे बेला के फूलों से वातावरण महक उठता है. उनके द्वारा स्थापित जीवन मूल्यों ने अनेक लोगों के जीवन को सफल बना दिया. उनकी समर्थ जीवनसाधना के लिए बहुमुखी, बहुआयामी, सर्वतोमुखी आदि विशेषणों का प्रयोग भी छोटा पड़ जाता है. उनके व्यक्तित्व के कई पहलू हैं जैसे साहसी स्वतंत्रता सेनानी, विरोधियों से प्रेम करने वाले उदारवादी संस्कारी राजनेता, कृषक, विकास पुरुष, कुशल संपादक, सफल उद्यमी, दार्शनिक.
एक सदी पहले यवतमाल जिले के बाभुलगांव नामक एक छोटे-से गांव में जन्म लेने के बाद, उन्होंने बहुत कम उम्र में स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भाग लिया, इसके लिए कारावास भोगा, स्वतंत्रता के बाद के समय में सामाजिक मुद्दों और राजनीति में एक अलग स्थान बनाया, लोगों की सेवा की. लंबे समय तक महाराष्ट्र में मंत्री के रूप में राज्य के विकास का मार्गदर्शन करना, ‘लोकमत’ समूह की आधारशिला रखना और उस समूह को अपने जीवनकाल में वटवृक्ष बनते देखना, ये तमाम उपलब्धियां आश्चर्यचकित करती हैं.
महात्मा गांधी से प्रेरित होकर उन्होंने 17 साल की उम्र में स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया. पहले ही सत्याग्रह में गिरफ्तार कर उन्हें जबलपुर सेंट्रल जेल भेज दिया गया. युवावस्था में एक खुशहाल जीवन का सपना देखने के बजाय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने की अपनी ‘विशिष्टता’ से उन्होंने बाद के जीवन में कई तूफानों और चुनौतियों का सामना किया. बाबूजी क्रांतिकारी नेता सुभाष चंद्र बोस और भगत सिंह के क्रांतिकारी विचारों से भी प्रभावित थे. उन्होंने यवतमाल में आजाद हिंद सेना की एक शाखा भी स्थापित की.
बाबूजी ने राजनीति में अपनी पहचान बनाई, लेकिन असल में उनकी दिलचस्पी पत्रकारिता में थी! आज बाबूजी का नाम लेते ही ‘लोकमत’ समूह आंखों के सामने खड़ा हो जाता है. बाबूजी ने ‘लोकमत’ से पहले भी पत्रकारिता के क्षेत्र में कुछ प्रयोग किए थे. स्कूल में रहते हुए ही उनकी प्रबल इच्छा थी कि स्वतंत्रता संग्राम की घटनाएं आम लोगों तक पहुंचें. उसी इच्छा के चलते उनके स्कूली जीवन में ही हस्तलिखित ‘सिंहगर्जना’ अखबार का और उनके अंदर के पत्रकार का जन्म हुआ. उस समय तिलक युग समाप्त हो रहा था और गांधी युग का उदय हो रहा था. स्वाभाविक रूप से उनका व्यक्तित्व इन दोनों युगपुरुषों से प्रभावित था. एक समाचार पत्र के संपादक के रूप में किसी मुद्दे पर कड़ा रुख अपनाना, उसे निर्णायक ढंग से कार्यान्वित करना, समानता, प्रगतिशीलता और सर्वधर्मसमभाव को कभी न छोड़ने की भावना उनके व्यक्तित्व पर लोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी के प्रभाव को उजागर करती है.
जुलाई 1949 में, 26 साल की उम्र में उन्होंने यवतमाल में ‘नवे जग’ नाम से एक साप्ताहिक समाचार पत्र प्रकाशित किया. वे तिलक और गांधीजी के विचारों के साथ-साथ पंडित जवाहरलाल नेहरू के स्वतंत्र भारत के सपनों से भी प्रभावित थे. बाबूजी ने 1953 में यवतमाल में ‘साप्ताहिक लोकमत’ की पुनः शुरुआत की. (इसे 1918 में लोकमान्य तिलक की प्रेरणा से लोकनायक बापूजी अणे द्वारा शुरू किया गया था और उनके द्वारा ही ‘लोकमत’ नाम सुझाया गया था, लेकिन 1933 में इसे बंद कर दिया गया.) बाबूजी ने इस साप्ताहिक को फिर से शुरू करने के बारे में सोचा. जननायकों ने भी उन्हें सहर्ष अनुमति दे दी.
‘साप्ताहिक लोकमत’ का पहला अंक ‘भूदान यज्ञ विशेषांक’ के रूप में प्रसिद्ध हुआ. इसके लिए चुने गए विषयों और अंक के विभिन्न स्तंभों के माध्यम से एक वटवृक्ष का बीज रोपा गया था. उसके बाद मात्र सात वर्षों में ‘लोकमत’ अर्ध-साप्ताहिक के रूप में और अगले 11 वर्षों के बाद दैनिक के रूप में नागपुर से प्रकाशित होने लगा. बाबूजी न केवल एक कुशल संपादक थे, बल्कि समाचार पत्र व्यवसाय का गहन ज्ञान और दूरदर्शिता रखने वाले एक उद्यमी भी थे, जैसा कि ‘लोकमत’ की अल्प समय में ही साप्ताहिक से दैनिक बनने तक की यात्रा से साबित होता है. उनका मानना था कि ‘लोकमत’ के मालिक हम नहीं, पाठक हैं. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि जो नवीन और सर्वोत्तम है वह ‘लोकमत’ में होना चाहिए. नई मशीनें और तकनीकें तो हासिल की जानी चाहिए, लेकिन मानवता को नहीं भूलना चाहिए. उन्होंने परिवार को यह बहुमूल्य मंत्र भी दिया कि यंत्र और तंत्र के पीछे काम करने वाला व्यक्ति भी उतना ही महत्वपूर्ण है. शीघ्र ही विदर्भ और फिर संपूर्ण महाराष्ट्र में ‘लोकमत’ समूह ने अपनी धाक जमाई.
इसके अलावा इसने दिल्ली और गोवा में भी धावा बोलकर अपना सिक्का जमाया है. ‘पत्रकारिता परमो धर्म:’ के आदर्श वाक्य को अपनाते हुए बाबूजी ने राजनीति और पत्रकारिता में कभी घालमेल नहीं होने दिया. संपादकों की स्वतंत्रता अक्षुण्ण रखी. उन्होंने समाज के दबे-कुचले लोगों की आवाज सरकार तक पहुंचाने का सूत्र समझाया. उन्होंने जनोन्मुखी एवं विकासोन्मुख पत्रकारिता का मार्ग प्रशस्त किया. उनके दोनों सुपुत्र लोकमत समूह के एडिटोरियल बोर्ड के चेयरमैन और पूर्व सांसद डाॅ. विजय दर्डा और एडिटर-इन-चीफ राजेंद्र दर्डा उसी मार्ग पर चले. अब तीसरी पीढ़ी के देवेेंद्र, ऋषि और करण दर्डा ने समाचार चैनल, डिजिटल और ऑनलाइन जैसे विभिन्न समाचार माध्यमों से ‘लोकमत’ समूह को अलग ऊंचाइयों पर पहुंचाया है.मंत्रिमंडल में कई विभागों को संभालते हुए उन्होंने कूटनीतिक और व्यापक राजनीतिक नेतृत्व का एक आदर्श उदाहरण स्थापित किया. बाबूजी ने महाराष्ट्र के आज के गौरवशाली औद्योगिक विकास की नींव रखी. उन्होंने सत्ता और पत्रकारिता का उपयोग सिद्धांतों और मूल्यों से समझौता किए बिना लोक कल्याण के लिए किया. उन्होंने महाराष्ट्र के सामाजिक, राजनीतिक और पत्रकारिता क्षेत्र में रचनात्मक कार्यों की अमिट छाप छोड़ी. ‘लोकमत’ में प्रकाशित समाचारों के कारण उन्हें विधानमंडल में कभी-कभी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, लेकिन उनका कहना था कि ‘लोकमत’ के पत्रकार अपना काम कर रहे हैं और मैं अपना! एक बार चुनाव प्रचार के लिए जब अटल बिहारी वाजपेयी यवतमाल आए तो बाबूजी ने उदारतापूर्वक उन्हें प्रचार के लिए अपना वाहन उपलब्ध कराया. ऐसे अनेक उदाहरण हैं.
पत्रकारिता और राजनीति में जिम्मेदारी से काम करने वाले बाबूजी का संवेदनशीलता और करुणा पर बहुत जोर था. बाबूजी की दौलत थी उनके स्वजन, पत्रकारिता, राजनीति तथा सामाजिक कार्यों के प्रति उनका जुनून, इसलिए जो कोई भी उनके संपर्क में आता था वह उनके मंत्रमुग्ध कर देने वाले व्यक्तित्व से अभिभूत हो जाता था. यही कारण है कि कला-साहित्य-संगीत के क्षेत्र के कई दिग्गजों से भी उनके विशेष संबंध थे. जब यवतमाल के दर्डा पार्क में पशु-पक्षी चहचहाते तो वे कहते थे, ‘देखो, भीमसेन जोशी, लता दीदी, किशोरी अमोणकर गा रहे हैं, मुझे उनके स्वर सुनाई दे रहे हैं.’ इससे प्रकृति के प्रति उनका रुझान और आत्मीयता समझी जा सकती है.
कुटुंबवत्सल बाबूजी दर्डा परिवार के संरक्षक तो थे ही, उन्होंने लोकमत परिवार के सभी सदस्यों पर भी अपना प्यार लुटाया. सदैव शांत, संयमित, प्रसन्न रहने वाले बाबूजी विनम्र व्यक्तित्व के स्वामी थे. आमतौर पर उन्हें किसी ने गुस्से में नहीं देखा. स्थितप्रज्ञता उनके व्यक्तित्व की विशेषता थी. मनुष्य हमेशा खुशी की तलाश में भागता रहता है, लेकिन बाबूजी की खुशी की परिभाषा अलग थी. उन्होंने कहा, ‘हम शून्य से जो निर्मित कर सकें, वही असली खुशी है! किसी समस्याग्रस्त व्यक्ति की मदद करें और उसके चेहरे पर खुशी का भाव देखें. तब आपको एहसास होगा कि सच्ची खुशी क्या है!’ खुशी और दुख दोनों के प्रति निर्विकार बने रहना बहुत मुश्किल है.
वस्तुतः यह एक साधना ही है. इसी से जीवन के मूल्यों का उद्गम होता है. बाबूजी ने वही उपहार दिया. दूरदर्शी और बहुआयामी व्यक्तित्व वाले बाबूजी की जीवनसाधना कई पीढ़ियों के लिए प्रेरणा रही है. बाबूजी की स्मृति स्फूर्ति देने वाली है. उनकी जयंती मनाते हुए उत्साह भी है और गंभीरता भी. बाबूजी को सच्ची श्रद्धांजलि यही है कि उनके सिद्धांत कायम रहें और उनके विचारों की लौ जलती रहे. उनकी स्मृति को श्रद्धांजलि.
(विजय बाविस्कर)