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जम्मू-कश्मीर: रस्साकशी की इस सरकार में कश्मीरी आवाम सिर्फ दर्शक के रूप में मौजूद थी

By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Updated: June 26, 2018 16:33 IST

कठिनाई यह भी है कि वह पीढ़ी अब वहां समाप्त हो रही है जो विभाजन के बाद से हिंदुस्तान और यहां की साझा विरासत को पसंद करती रही हैl नई पीढ़ियां जो 1990 के बाद आई हैं, वे नफरत, हिंसा और अलगाव का पाठ पढ़ते हुए बड़ी हुई हैं। 

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कश्मीर 1990 के बाद सबसे कठिन दौर का सामना कर रहा है। प्रशासन और सुरक्षा बलों के अलावा स्थानीय राजनेताओं के लिए भी यह बेहद उलझन का समय है। सेना और अर्धसैनिक बल सख्ती कर सकते हैं, आतंकवादियों को चुन-चुन कर मार सकते हैं, घुसपैठ रोक सकते हैं और सीमा पर पूरी चौकसी कर सकते हैं। लेकिन बरसों का अनुभव यही है कि 1990 में दहशत के जो चेहरे थे, वे 2000 में नहीं रहे और 2010 में जो चेहरे थे वे 2018 में उस तरह मौजूद नहीं हैं। आज के कश्मीर में सिर्फ पाकिस्तान पोषित दहशतगर्दो के ठिकाने ही नहीं हैं बल्कि पड़ोसी मुल्क ने कश्मीरियत के नाम पर दूषित विचार की जो फसल बोई है, वह अब नई नस्लों के बीच प्रवाहित हो रही है।

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असल मुकाबला तो इस विचार से है। सख्ती से आप किसी को भौतिक रूप से समाप्त कर सकते हैं, लेकिन दिमागों में भरे जहरीले विचार का सफाया कैसे करेंगे? आज के कश्मीर का यक्ष प्रश्न यही है। कठिनाई यह भी है कि वह पीढ़ी अब वहां समाप्त हो रही है जो विभाजन के बाद से हिंदुस्तान और यहां की साझा विरासत को पसंद करती रही है। नई पीढ़ियां जो 1990 के बाद आई हैं, वे नफरत, हिंसा और अलगाव का पाठ पढ़ते हुए बड़ी हुई हैं। मदरसों, स्कूलों, कॉलेजों में उन्हें भारतीय संस्कृति और सद्भाव के मूल कश्मीरी पाठ नहीं पढ़ाए गए हैं। इसके लिए किसको जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए?

जाहिर है हुकूमत करने वाले इस आरोप से बच नहीं सकते कि उन्होंने अपनी राजनीतिक प्राथमिकताओं के चलते कश्मीरी अवाम और देश के हित नजरअंदाज कर दिए। हमारे शैक्षणिक ढांचे में सीमावर्ती राज्यों के लिए खास पाठयक्रम पर जोर क्यों नहीं दिया गया है? इस दृष्टि से हम एक भयंकर चूक कर बैठे हैं। हिंदुस्तान में विविधता में एकता की बात हमें  गौरव का आधार देती रही है। इस आधार को और पुख्ता करने के लिए स्थानीय स्तर पर सरकारों ने देश के प्रति गर्व बोध कराने वाले पाठ्यक्रम अपनी शिक्षा प्रणालियों में शामिल नहीं किए। कश्मीर, अरुणाचल और उत्तर पूर्व के अलावा दक्षिण के अनेक हिस्सों में राष्ट्रीय भावना का विलोप इसी का नतीजा है। कश्मीर जैसे संवेदनशील इलाके के बारे में तो यह और भी सच है। 

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वैचारिक प्रदूषण अगर अपने विकराल रूप में कश्मीरी अवाम को नुकसान पहुंचा रहा है तो इसके लिए मीडिया के तमाम रूप भी कहीं न कहीं जिम्मेदार हैं। सोशल मीडिया के नए अवतारों का दुष्प्रचार निरंतर जारी है। पाकिस्तान टेलीविजन की एक शाखा और फौजी निर्देश पर कुछ प्रोडक्शन इकाइयां दिन-रात जहर भरे प्रोग्राम तैयार करती हैं।उन्हें फेसबुक, व्हाट्सएप, यूट्यूब और गूगल के जरिए कश्मीर तथा पूरे भारत में फैलाया जाता है। पाकिस्तानी चैनलों और रेडियो के सिग्नल कश्मीर के घरों में कैसे पहुंच रहे हैं- इसकी जांच होनी चाहिए। आपत्तिजनक और देश विरोधी प्रसारण रोकने की तकनीक पर काम नहीं किया जा रहा है, जबकि पाकिस्तान में बरसों से भारतीय खबरिया चैनलों पर रोक लगी है।

यह विचार का बिंदु है कि पाक अधिकृत कश्मीर हमारे देश का हिस्सा है, हम बाकायदा चीन से वहां निर्माणकार्य रोकने की बात कह चुके हैं तो हमारे चैनल, रेडियो और सोशल मीडिया के रूप पाक अधिकृत कश्मीर में धड़ल्ले से अपना प्रसार क्यों नहीं फैला रहे हैं? खास बात तो यह है कि पाक अधिकृत कश्मीर के लोग हमेशा पाकिस्तानी अत्याचार से दुखी रहे हैं। सत्तर साल से वहां भारत के पक्ष में आंदोलन होते रहे हैं। हिंदुस्तान ने इसका कूटनीतिक लाभ उठाने में कंजूसी बरती है। भारत को इस मामले में खुलकर आगे क्यों नहीं आना चाहिए। कश्मीर समस्या इन दिनों वास्तव में ऐसे मोड़ पर है, जब सख्ती के अलावा विकास, शांति - सद्भाव तथा कूटनीतिक प्रयास भी महत्वपूर्ण हैं।

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पिछले तीन चार साल में इन प्रयासों को झटका लगा है। कारण था सत्ता में शामिल दोनों पार्टियों के नजरिए में अंतर। पीडीपी हमेशा से अलगाववादियों के साथ नरम रवैया अख्तियार करती रही और भाजपा कड़े सलूक की पक्षधर दिखाई दी। एक सरकार के भीतर दो विरोधाभासी धाराएं बह रही थीं। इस कारण नौकरशाही और सुरक्षा बल दुविधा में रहे। सरकार चलती रही और समस्या के हल की कोशिशें ठिठकी रहीं। यह प्रयोग नेताओं को बेशक रास आया मगर मतदाताओं के मन में सरकार को लेकर पहले दिन से ही अविश्वास बना रहा। दोनों दलों के समर्पित मतदाता अपनी अपनी पार्टी के रुख से कभी खुश नहीं रहे। दोनों दलों का आलाकमान मतदाता का मन और मूड समझता था, इसलिए अगले चुनाव से पहले पिछले चुनाव के पूर्व की स्थिति में लौटना बेहद जरूरी था। 

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इसलिए गठबंधन सरकार के खाते में एक बड़ा शून्य रहा। कह सकते हैं कि यह ऐसी रस्साकशी थी जिसमें कश्मीरी आवाम सिर्फ दर्शक के रूप में मौजूद थी। गलतियों को ठीक करने के लिए कभी किसी मुहूर्त की आवश्यकता नहीं होती। राज्यपाल शासन में कश्मीर के नौजवानों को रोजगार पर सर्वोच्च ध्यान देने की जरूरत है। पेट की आग से तेज कोई आग नहीं होती। बरसों की अशांति से वहां आम नागरिक की जिंदगी बर्बाद हो चुकी है, यह नहीं भूलना चाहिए।

(ये ब्लॉग लोकमत के लिए राजेश बादल ने लिखा है)

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